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== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
शिक्षण का उद्देष्य भी समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। सामान्यत: जब समाज भी धर्माचरणी होता है तो शासन को धर्म की रक्षा करना सहज ही संभव हो जाता है। किंतु जब समाज का बडा हिस्सा अधर्माचरणी होता है तब कोई भी शासन समाज को दुष्टों से और अन्याय से छुटकारा नहीं दिला सकता। इसलिये धर्माचरण सिखाने वाली शिक्षा समाज में प्रतिष्टित हो यह देखना यह शासन का दायित्व होता है। उसी प्रकार से धर्माचरणी राजा शासक बने यह सुनिश्चित करना यह धर्माचरण की शिक्षा देनेवाली व्यवस्था का दायित्व होता है।  
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शिक्षण का उद्देष्य भी समाज को धर्माचरणी बनाने का होता है। सामान्यत: जब समाज भी धर्माचरणी होता है तो शासन को धर्म की रक्षा करना सहज ही संभव हो जाता है। किंतु जब समाज का बडा हिस्सा अधर्माचरणी होता है तब कोई भी शासन समाज को दुष्टों से और अन्याय से छुटकारा नहीं दिला सकता। इसलिये धर्माचरण सिखाने वाली शिक्षा समाज में प्रतिष्टित हो यह देखना यह शासन का दायित्व होता है। उसी प्रकार से धर्माचरणी राजा शासक बने यह सुनिश्चित करना यह धर्माचरण की शिक्षा देनेवाली व्यवस्था का दायित्व होता है।
प्रकृति विकेंद्रित है। हवा, पानी, सूर्यप्रकाश, जंगल, खनिज पदार्थ ये संसाधन प्रकृति में बिखरे हुए हैं, विकेंद्रित हैं। और इन के बिना मानव का जीना असंभव है। इसलिये मानव जीवन की रचना में एक तो प्रकृति सुसंगत जीना यानी प्राकृतिक पदार्थों में न्यूनतम फेरफार कर उनका उपयोग करना और दूसरे विकेंद्रित जन, धन, उत्पादन और सत्ता की रचना करना मानव के लिये, समाज के लिये और मानवेतर सृष्टि के लिये भी हितकर होता है। इसे समझकर हमारे पूर्वजों ने सामाजिक व्यवस्थाओं का तानाबाना रचा था। समाज जीवन के लिये आवश्यक पोषण, रक्षण और शिक्षण तीनों की विकेंद्रित व्यवस्था की गई थी। शासन व्यवस्था भी गृह, ग्राम, गुरुकुल, जाति, राजा या सम्राट और अंत में त्याग, तपस्या, ज्ञान, चराचर के हित का सदैव चिंतन और चिंता करनेवाली नैतिक सत्ता अर्थात् धर्मसत्ता ऐसी विकेंद्रित थी। लेकिन इन सभी स्तरोंपर जो प्रमुख होता था उसकी भूमिका एक कुटुम्ब के मुखिया जैसी ही होती थी और आचरण धर्मानुसारी ही रहता था।  
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प्रकृति विकेंद्रित है। हवा, पानी, सूर्यप्रकाश, जंगल, खनिज पदार्थ ये संसाधन प्रकृति में बिखरे हुए हैं, विकेंद्रित हैं। और इन के बिना मानव का जीना असंभव है। इसलिये मानव जीवन की रचना में एक तो प्रकृति सुसंगत जीना यानी प्राकृतिक पदार्थों में न्यूनतम फेरफार कर उनका उपयोग करना और दूसरे विकेंद्रित जन, धन, उत्पादन और सत्ता की रचना करना मानव के लिये, समाज के लिये और मानवेतर सृष्टि के लिये भी हितकर होता है। इसे समझकर हमारे पूर्वजों ने सामाजिक व्यवस्थाओं का तानाबाना रचा था। समाज जीवन के लिये आवश्यक पोषण, रक्षण और शिक्षण तीनों की विकेंद्रित व्यवस्था की गई थी। शासन व्यवस्था भी गृह, ग्राम, गुरुकुल, जाति, राजा या सम्राट और अंत में त्याग, तपस्या, ज्ञान, चराचर के हित का सदैव चिंतन और चिंता करनेवाली नैतिक सत्ता अर्थात् धर्मसत्ता ऐसी विकेंद्रित थी। लेकिन इन सभी स्तरों पर जो प्रमुख होता था उसकी भूमिका एक कुटुम्ब के मुखिया जैसी ही होती थी और आचरण धर्मानुसारी ही रहता था।  
    
== भारतीय लोकराज्य का स्वरूप - धर्मराज्य ==
 
== भारतीय लोकराज्य का स्वरूप - धर्मराज्य ==
बच्चा जब पैदा होता है तब वह केवल 'मम हिताय मम सुखाय' जानता है। इस अवस्था से आगे विकास की क्रमश: अवस्थाएँ मम जन हिताय मम जन सुखाय, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय और सबसे ऊपर सर्वे भवन्तु सुखिन: ये होतीं हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: के स्तर के आचरण को ही धर्म कहते हैं। इस का अर्थ है कि मनुष्य जीवन की सर्वाधिक विकास की अवस्था धर्माचरणी जीवन की है।
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बच्चा जब पैदा होता है तब वह केवल 'मम हिताय मम सुखाय' जानता है। इस अवस्था से आगे विकास की क्रमश: अवस्थाएँ मम जन हिताय मम जन सुखाय, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय और सबसे ऊपर सर्वे भवन्तु सुखिन: ये होतीं हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: के स्तर के आचरण को ही धर्म कहते हैं। इस का अर्थ है कि मनुष्य जीवन की सर्वाधिक विकास की अवस्था धर्माचरणी जीवन की है।  
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भारत में धर्म को अनन्यसाधारण महत्व दिया गया है। हमारी सभी व्यवस्थाएँ धर्माधिष्ठित ही होतीं हैं। राज्य भी धर्मराज्य होता है। मूलत: धर्म को छोडकर राज्य का विचार ही नहीं किया जा सकता। राज्य का स्वरूप भले ही लोकतंत्रात्मक हो चाहे राजा का हो उसे यदि लोकहितकरी होना है तो उसका धर्मानुसारी होना अनिवार्य माना गया है। धर्माधिष्ठित नहीं हैं तो शासन लोकतंत्रात्मक हो या एकतंत्रीय राजा का हो उसमें लोगों का उत्पीडन होगा ही।  
 
भारत में धर्म को अनन्यसाधारण महत्व दिया गया है। हमारी सभी व्यवस्थाएँ धर्माधिष्ठित ही होतीं हैं। राज्य भी धर्मराज्य होता है। मूलत: धर्म को छोडकर राज्य का विचार ही नहीं किया जा सकता। राज्य का स्वरूप भले ही लोकतंत्रात्मक हो चाहे राजा का हो उसे यदि लोकहितकरी होना है तो उसका धर्मानुसारी होना अनिवार्य माना गया है। धर्माधिष्ठित नहीं हैं तो शासन लोकतंत्रात्मक हो या एकतंत्रीय राजा का हो उसमें लोगों का उत्पीडन होगा ही।  
धर्मराज्य में व्यक्ति और समाज के साथ साथ ही प्रकृति का हित भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। केवल व्यक्ति का हित या केवल समाज का हित सर्वोपरि मानने से राज्य एकांगी बन जाता है। व्यक्तिवादी यानी पूँजीवादी राज्यव्यवस्था में समाज का और सृष्टि का हित गौण बन जाता है। इसी तरह से समाज के हितपर आधारित यानी साम्यवादी राज्य में व्यक्ति का और सृष्टि का हित खतरे में पड जाता है।  
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धर्मराज्य का अर्थ पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब का राज्य नहीं होता। यह थिओक्रेटिक राज्य नहीं होता। ये सभी प्रकारके राज्य अपने पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब के प्रेषित की नीतियों के अनुसार चलते हैं। अपने मत को अन्य मतों के माननेवाली जनतापर बलपूर्वक थोपते हैं।
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धर्मराज्य में व्यक्ति और समाज के साथ साथ ही प्रकृति का हित भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। केवल व्यक्ति का हित या केवल समाज का हित सर्वोपरि मानने से राज्य एकांगी बन जाता है। व्यक्तिवादी यानी पूँजीवादी राज्यव्यवस्था में समाज का और सृष्टि का हित गौण बन जाता है। इसी तरह से समाज के हितपर आधारित यानी साम्यवादी राज्य में व्यक्ति का और सृष्टि का हित खतरे में पड जाता है।  
धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिध्दांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगों ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलानेवाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।
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वर्तमान अभारतीय प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। भारतीय जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिध्दांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
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धर्मराज्य का अर्थ पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब का राज्य नहीं होता। यह थिओक्रेटिक राज्य नहीं होता। ये सभी प्रकार के राज्य अपने पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब के प्रेषित की नीतियों के अनुसार चलते हैं। अपने मत को अन्य मतों के माननेवाली जनतापर बलपूर्वक थोपते हैं।  
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
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धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिद्धांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगों ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलाने वाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।  
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वर्तमान अभारतीय प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। भारतीय जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिद्धांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
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लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
    
== निष्कर्ष ==
 
== निष्कर्ष ==
उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं।
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उपर्युक्त विवेचन से निम्न बातें ध्यान में आतीं हैं:
१.  हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिध्द हैं।
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# हजारों लाखों वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो सोच और व्यवस्थाएँ निर्माण की थीं वह कालसिद्ध हैं।
२.  अभारतीय समाजोंने पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिध्द नहीं हुईं हैं। तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिध्द होंगी।  
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# अभारतीय समाजों द्वारा पुरस्कृत की हुई और आग्रहपूर्वक लादी गई व्यवस्थाएँ तो उन के लिये भी हितकारी सिद्ध नहीं हुईं हैं। तो  भारत के लिये हितकारी कैसे सिद्ध होंगी।
३.  'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं। रामराज्य का वर्णन आगे दे रहे हैं।
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# 'धर्मराज्य' ही वास्तव में लोगों का, लोगों (चराचर के हित की चिंता करनेवालों) द्वारा चलाया गया, लोगों के ही नहीं तो चराचर के हित में काम करनेवाले शासन का श्रेष्ठ स्वरूप है। इसी को हम रामराज्य भी कहते हैं। रामराज्य का वर्णन [[Ramrajya (राम राज्य)|यहाँ]] है।
 
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=== राम राज्य ===
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(तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५)
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(गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)
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श्रीरामचन्द्रजीके राज्यपर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से बैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे सबकी विषमता (आतंरिक भेदभाव) मिट गयी। सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल; धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय होता है और न कोई रोग ही सताता है।
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रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगतमें परिपूर्ण हो रहा है; स्वप्नमें भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परमगति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।
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छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभीके शरीर सुन्दर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न कोई दु:खी है और न कोई दीन ही है। न कोई मुर्ख है न शुभ लक्षणों से हीन ही है। सभी दम्भरहित हैं, धर्मंपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करनेवाले और पंडित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दुसरे के उपकारों को माननेवाले) हैं, कपट चतुराई (धूर्तता) किसीमें नहीं है।
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(काकभुशुंडीजी कहते हैं- हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिए!) श्रीराम के राज्यमें जड़, चेतन सारे जगतमें काल, कर्म, स्वभाव और गुणोंसे उत्पन्न हुए दुःख: किसीको भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधनमें कोई नहीं है)। अयोध्यामें हरी रघुनाथजी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वीके एकमात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोममें अनेकों ब्रह्माण्ड हैं, उनके लिये सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है।
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रामराज्य की सुखासम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते। सभी नर नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मण के चरणों के सेवक हैं। सभी पुरुष एकपत्निव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्मसे पतिका हित करनेवाली हैं।
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श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें कोई शत्रु है ही नहीं इसलिये ‘जीतो’ शब्द केवल मन को जितने के लिये ही कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं है। इसलिये किसी को दण्ड नहीं दिया जाता। दण्ड शब्द का उपयोग तो केवल संन्यासियों के हाथ में रहनेवाले दण्डों के लिये ही रह गया है। सभी अनुकुल होने के कारण भेदभाव का विषय ही नहीं है। इसलिए ‘भेद’ शब्द केवल ताल-सुरों के भेदके सन्दर्भ में ही काम में आता है।
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वनोंमें वृक्ष सदा फुलते और फलते हैं। हाथी और सिंह बैर भुलाकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभीने स्वाभाविक बैर भुलाकर आपसमें प्रेम बढा लिया है। पक्षी कुजते हैं, भांति-भांति के पशुओंके समूह वनमें निर्भय विचरते और आनंद करते हैं। शीतल, मंद, सुगन्धित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं। बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु टपका देते हैं। गौएँ मनचाहा दूध देतीं हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की स्थिति हो जाती है।  
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समस्त जगतके आत्मा भगवानको जगतका राजा जानकर पर्वतोंने अनेक प्रकारकी मणियोंकी खान प्रकट करे दी। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं हैं। समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरोंके द्वारा किनारोंपर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं। सब तालाब कमलोंसे परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के प्रदेश अत्यंत प्रसन्न हैं। चन्द्रमा अपनी अमृतमयी किरणोंसे पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं जितनी आवश्यकता होती है और मेघ माँगनेसे जहाँ जितना चाहिये उतना ही जल देते हैं।
      
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