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→‎समृद्धि शास्त्र के स्तंभ: लेख सम्पादित किया
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== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
 
== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, त्तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्त्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है।  
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भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्त्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है।  
मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदाद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूतेपर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन  बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है।  
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अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से मदद की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई मदद के सन्दर्भ में अन्योंपर निर्भर हो जाता है। अन्योंपर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधारपर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है।
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मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदाद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन  बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है।  
हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधारपर जीनेवाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय यहाँ अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है।  
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ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। इसलिए परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है।  
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अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से मदद की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई मदद के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है।  
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हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है।  
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ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। इसलिए परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है।
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अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे।  
 
अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे।  
  
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