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== समृद्धि व्यवस्था के स्तंभश: धर्म ==
 
== समृद्धि व्यवस्था के स्तंभश: धर्म ==
यह हमने पूर्व में जाना है कि मानवेतर प्राणी अपने धर्म के अनुसार ही व्यवहार करता है। जैसे बिच्छू का काम है अपरिचित वस्तू का संपर्क होते ही डंख मारना। छुईमुई का धर्म है किसी के भी स्पर्श से मुरझा जाना। इसी प्रकार से मनुष्य और मनुष्य समाज की भिन्न भिन्न ईकाईयाँ अपने अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करें यह प्राकृतिक बात है। लेकिन मानव की योनि कर्म योनि होने से उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार, प्रकृति से घटिया(विकृति) और प्रकृति से उन्नत (संस्कृति) व्यवहार कर सकता है।  
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यह हमने पूर्व में जाना है कि मानवेतर प्राणी अपने धर्म के अनुसार ही व्यवहार करता है। जैसे बिच्छू का काम है अपरिचित वस्तू का संपर्क होते ही डंक मारना। छुईमुई का धर्म है किसी के भी स्पर्श से मुरझा जाना। इसी प्रकार से मनुष्य और मनुष्य समाज की भिन्न भिन्न ईकाईयाँ अपने अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करें, यह प्राकृतिक बात है। लेकिन मानव की योनि कर्म योनि होने से उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार, प्रकृति से घटिया(विकृति) और प्रकृति से उन्नत (संस्कृति) व्यवहार कर सकता है।  
हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है। जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है। अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं। अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है तब कौशल विधा व्यवस्था ( पूर्व में जाति) बनती है। इसी प्रकार समान जीवन दृष्टिवाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं। इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं। पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों। और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले। इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है।  
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किन्तु इनके साथ ही मानव के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी अनिवार्य बात होती है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव और इसलिए मानव समाज भी जी नहीं सकता। प्रकृति के भी अपने नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हुए जीने से प्रकृति भी अनुकूल होती है। इन नियमों का पालन न करने से मानव को ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वनक्षेत्र के कम होने से बारिश पर परिणाम होता है। उसके बुरे परिणाम फिर मानव को सहने पड़ते हैं। इसलिए प्रकृति सुसंगत जीना मानव के ही हित में होता है।  
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हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है। जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है, तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है। अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं। अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है, तब कौशल विधा व्यवस्था (पूर्व में जाति) बनती है। इसी प्रकार समान जीवन दृष्टि वाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं। इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं। पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले। इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है।  
समृद्धि शास्त्र यह मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है। वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है। इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है। जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म। ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं।  
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अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे।  
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किन्तु इनके साथ ही मानव के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी अनिवार्य बात होती है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव और इसलिए मानव समाज भी जी नहीं सकता। प्रकृति के भी अपने नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हुए जीने से प्रकृति भी अनुकूल होती है। इन नियमों का पालन न करने से मानव को ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वनक्षेत्र के कम होने से बारिश पर परिणाम होता है। उसके बुरे परिणाम फिर मानव को सहने पड़ते हैं। इसलिए प्रकृति सुसंगत जीना मानव के ही हित में होता है। समृद्धि शास्त्र मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है। वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है। इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है। जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म। ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं। अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे।  
    
=== कुटुम्ब धर्म ===
 
=== कुटुम्ब धर्म ===
- कुटुम्ब में श्रेष्ठ जीवात्माओं को जन्म देना।
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# कुटुम्ब में श्रेष्ठ जीवात्माओं को जन्म देना।  
- गर्भधारणा से लेकर संस्कारक्षम आयुतक बच्चों को श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करना। उनमें उपभोग संयम जैसी अच्छी आदतें डालना। सदाचार, संयम, स्वच्छता, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वावलंबन, स्वतंत्रता, सहकारिता, स्वदेशी (राष्ट्रभक्ति), परोपकार आदि का स्वभाव बनें ऐसे संस्कार करना।
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# गर्भधारणा से लेकर संस्कारक्षम आयुतक बच्चों को श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करना। उनमें उपभोग संयम जैसी अच्छी आदतें डालना। सदाचार, संयम, स्वच्छता, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वावलंबन, स्वतंत्रता, सहकारिता, स्वदेशी (राष्ट्रभक्ति), परोपकार आदि का स्वभाव बनें ऐसे संस्कार करना।  
- केवल अधिकारों की समझ लेकर पैदा हुए नवजात अर्भक को केवल कर्तव्यों के लिए जीनेवाला मानव बनाना।  
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# केवल अधिकारों की समझ लेकर पैदा हुए नवजात अर्भक को केवल कर्तव्यों के लिए जीनेवाला मानव बनाना।  
- कुटुम्ब भावना के संस्कार, व्यवहार का सर्वप्रथम कुटुम्ब के सभी सदस्योंतक, ग्राम के सभी सदस्योंतक  और आगे चराचरतक विस्तार करना।  
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# कुटुम्ब भावना के संस्कार, व्यवहार का सर्वप्रथम कुटुम्ब के सभी सदस्यों तक, ग्राम के सभी सदस्यों तक और आगे चराचर तक विस्तार करना।  
- कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करने में यथाशक्ति योगदान देना।
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# कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करने में यथाशक्ति योगदान देना।  
- ग्राम, कौशल विधा, राष्ट्र इन सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए आवश्यकतानुसार कुटुम्ब के सदस्यों का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से कुटुम्ब के सदस्यों का विकास करना।  
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# ग्राम, कौशल विधा, राष्ट्र इन सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए आवश्यकतानुसार कुटुम्ब के सदस्यों का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से कुटुम्ब के सदस्यों का विकास करना।  
- केवल प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने उत्पादनों और उपभोग के लिए करना।  
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# केवल प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने उत्पादनों और उपभोग के लिए करना।  
- ज्ञान, अनुभव को और आयु को भी सम्मान देना।  
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# ज्ञान, अनुभव को और आयु को भी सम्मान देना।  
- ज्ञान को प्रतिष्ठित करना। श्रम और सेवा की प्रतिष्ठा करना। तीसरे क्रमांकपर धन की प्रतिष्ठा को रखना।  
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# ज्ञान को प्रतिष्ठित करना। श्रम और सेवा की प्रतिष्ठा करना। तीसरे क्रमांक पर धन की प्रतिष्ठा को रखना।  
- न्याय के पीछे, सत्य के समर्थन और सहायता में अपने कुटुम्ब की शक्ति खडी करना।  
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# न्याय के पीछे, सत्य के समर्थन और सहायता में अपने कुटुम्ब की शक्ति खडी करना।  
- स्त्री और पुरूष कार्य विभाजन । वर्तमान मानसिक विकृति को दूर करना । बच्चे पैदा करने का काम स्त्री और पुरूष दोनों मिलकर ही कर सकते है । अन्य कोई भी काम ऐसा नहीं है की जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता । किंतु केवल कर सकना यह निकष काम के लिये लगाना ना केवल उस व्यक्ति के लिये और ना ही समाज के लिये हितकर है । प्रयोजन के आधारपर या गुण और स्वभाव के अनुसार ही काम का निश्चय होना चाहिये। स्त्री और पुरुष में, पुरुष और पुरुष में भी और स्त्री और स्त्री में भी क्षमताओं का अन्तर होता है ।
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# स्त्री और पुरूष कार्य विभाजन। वर्तमान मानसिक विकृति को दूर करना। बच्चे पैदा करने का काम स्त्री और पुरूष दोनों मिलकर ही कर सकते है। अन्य कोई भी काम ऐसा नहीं है कि जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल कर सकना यह निष्कर्ष ना केवल उस व्यक्ति के लिये और ना ही समाज के लिये हितकर है। प्रयोजन के आधार पर या गुण और स्वभाव के अनुसार ही काम का निश्चय होना चाहिये। स्त्री और पुरुष में, पुरुष और पुरुष में भी और स्त्री और स्त्री में भी क्षमताओं का अन्तर होता है।
- प्रत्यक्ष चांदी-सोना, रुपिया, पशुधन, जंगल, उर्वरा भूमि, संग्रहित धान आदि धन के ही रूप हैं।
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# प्रत्यक्ष चांदी-सोना, रुपिया, पशुधन, जंगल, उर्वरा भूमि, संग्रहित धान आदि धन के ही रूप हैं।  
- प्राकृतिक संसाधन और मानवीय शरीर, मन बुद्धि का उपयोग यही बातें धन का निर्माण करती हैं। ये ठीक रहें इस दृष्टि से शिक्षा और संस्कारों की व्यवस्था करना।
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# प्राकृतिक संसाधन और मानवीय शरीर, मन बुद्धि का उपयोग यही बातें धन का निर्माण करती हैं। ये ठीक रहें इस दृष्टि से शिक्षा और संस्कारों की व्यवस्था करना: अर्थस्य तिस्त्र:गतय: दानं भोगं नाशश्च। संपत्ति की तीन ही सम्भावनाएँ हैं। दान करो, भोग करो यह दो सम्भावनाएँ हैं। अन्यथा तीसरी सम्भावना याने सम्पत्ति का नाश होने ही वाला है। इसलिये उपभोग को कम-कम करते हुए बचाई हुई सम्पत्ति का दान करते जाओ। दान की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाए।
- अर्थस्य तिस्त्र:गतय: दानं भोगं नाशश्च । संपत्ति की तीन ही सम्भावनाएँ हैं। दान करो, भोग करो यह दो सम्भावनाएँ हैं। अन्यथा तीसरी सम्भावना याने सम्पत्ति का नाश होने ही वाला है । इसलिये उपभोग को कम-कम करते हुए बचाई हुई सम्पत्ति का दान करते जाओ । दान की प्रवृत्ती को प्रोत्साहन दिया जाए ।
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# स्पर्धा नहीं प्रेरणा और सहयोग से प्रगति का संस्कार।  
- स्पर्धा नहीं प्रेरणा और सहयोग से प्रगति का संस्कार।  
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# जो जन्मा है वह खाएगा। जो कमाएगा वह खिलाएगा। चर-अचर की न्यूनतम अवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य। साथ ही में यह भाव कि "मैं जब तक समाज जीवन में कोई सार्थक योगदान नहीं करता तब तक मुझे जीने का अधिकार नहीं है" ऐसी जिम्मेदारी की भावना सार्वत्रिक होना। शिक्षा की और समृद्धि व्यवस्था की इस दृष्टि से पुनर्रचना करनी होगी।
- जो जन्मा है वह खाएगा । जो कमाएगा वह खिलाएगा । चर-अचर की न्यूनतम अवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य । साथ ही में मैं जबतक समाज जीवन में कोई सार्थक योगदान नहीं करता तबतक मुझे जीने का अधिकार नहीं है ऐसी जिम्मेदारी की भावना सार्वत्रिक होना। शिक्षा की और समृद्धि व्यवस्था की इस दृष्टि से पुनर्रचना करनी होगी ।
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# संयमित उपभोग। अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक क्षमताओं का क्षरण ना हो इस सीमातक आवश्यकताएं  न्यूनतम करते जाना।
- संयमित उपभोग। अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक क्षमताओं का क्षरण ना हो इस सीमातक आवश्यकताएं  न्यूनतम करते जाना ।
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# औरों के अधिकार और अपने कर्तव्यों पर बल। ऐसा करने से सभी के अधिकारों की रक्षा स्वयमेव होगी।  
- औरों के अधिकार और अपने कर्तव्योंपर बल। ऐसा करने से सभी के अधिकारों की रक्षा स्वयमेव होगी।
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# दिखाऊ नहीं टिकाऊ पर बल। संसाधनों का संपूर्ण / पुन: पुन: उपयोग करें। शोषण न करने की दृष्टि।  
- दिखाऊ नहीं टिकाऊपर बल। संसाधनों का संपूर्ण/पुन:पुन: उपयोग करें। शोषण न करने की दृष्टि।
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# अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना।  
- अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना।
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# सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष। इन का विश्लेषण हम [[Bharat's Science and Technology (भारतीय विज्ञान तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस]] अध्याय में देखेंगे। यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है। सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो। ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है।  
- सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष। इन का विश्लेषण हम अध्याय ३६ विज्ञान और तंत्रज्ञान दृष्टि में देखेंगे। यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है। सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो। ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है।  
      
=== ग्राम धर्म ===
 
=== ग्राम धर्म ===
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