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इन में से कई कोअर एलिमेंट्स् ऐसे है जो अधूरे हैं, कुछ अस्पष्ट है, कुछ अंग्रेजों की मानसिक दासता के फलस्वरूप है, कुछ नकारात्मक है, कुछ जिन का अर्थ इन के निर्माताओं को भी नहीं समझता है ऐसे हैं। सामान्य मानव इन्हें ठीक से कैसे समझ सकेगा?  
 
इन में से कई कोअर एलिमेंट्स् ऐसे है जो अधूरे हैं, कुछ अस्पष्ट है, कुछ अंग्रेजों की मानसिक दासता के फलस्वरूप है, कुछ नकारात्मक है, कुछ जिन का अर्थ इन के निर्माताओं को भी नहीं समझता है ऐसे हैं। सामान्य मानव इन्हें ठीक से कैसे समझ सकेगा?  
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स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास (हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट) : इस केंद्रीय घटक के पीछे क्या कारण रहा होगा? कुछ प्रत्यक्ष पाठयक्रमों की विषयवस्तु का निरीक्षण और कुछ उस के होने वाले परिणामों से इस के चार उद्देश्य ध्यान में आते है:  
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स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास (हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट History of India's Freedom Movement) : इस केंद्रीय घटक के पीछे क्या कारण रहा होगा? कुछ प्रत्यक्ष पाठयक्रमों की विषयवस्तु का निरीक्षण और कुछ उस के होने वाले परिणामों से इस के चार उद्देश्य ध्यान में आते है:  
 
# अत्यंत गौरवशाली भारतीय इतिहास को नकारना।  
 
# अत्यंत गौरवशाली भारतीय इतिहास को नकारना।  
# केवल काँग्रेस के स्वाधीनता संग्राम में जुटे, 'वी आर ए नेशन इन द मेकिंग' ऐसा लगने वाले नेताओं का महिमा मंडन करना। लगभग १५ वर्ष पूर्व प्रस्तुत लेखक ने ७वीं में पढ रही एक लडकी से प्रश्न पूछा था 'स्वाधीनता किस के कारण प्राप्त हुई ?' तुरंत उत्तर आया 'गांधीजी और नेहरूजी'।  
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# केवल काँग्रेस के स्वाधीनता संग्राम में जुटे, 'वी आर ए नेशन इन द मेकिंग We are a nation in the making' ऐसा लगने वाले नेताओं का महिमा मंडन करना। लगभग १५ वर्ष पूर्व प्रस्तुत लेखक ने ७वीं में पढ रही एक लडकी से प्रश्न पूछा था 'स्वाधीनता किस के कारण प्राप्त हुई ?' तुरंत उत्तर आया 'गांधीजी और नेहरूजी'।  
# इस्लाम और ईसाई शासकों और आक्रमकों के हत्याकांडों, अत्याचारों, स्त्रियोंपर बलात्कार, गुलाम बनाकर बेचना, तलवार के बल पर इस्लामीकरण और ईसाईकरण, कत्ले आम आदि को नकारना।  
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# इस्लाम और ईसाई शासकों और आक्रमकों के हत्याकांडों, अत्याचारों, स्त्रियों पर बलात्कार, गुलाम बनाकर बेचना, तलवार के बल पर इस्लामीकरण और ईसाईकरण, कत्ले आम आदि को नकारना।  
 
# एक आभासी साझी संस्कृति को जन्म देना।  
 
# एक आभासी साझी संस्कृति को जन्म देना।  
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देश का जो भी संविधान है उसका उचित आदर तो सभी से अपेक्षित है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संविधान आलोचना से ऊपर माना जाने लगे। १०० से अधिक बार जिस संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता निर्माण हुई उसे पवित्र नहीं माना जा सकता। भारतीय संसद भी इसे पवित्र नहीं मानती। भारतीय संवैधानिक जिम्मेदारियाँ (कॉन्स्टिटयूशनल ऑब्लिगेशनस्) : जिस संविधान में औसतन प्रति वर्ष लगभग दो बार संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई उस के द्वारा प्रतिपादित संवैधानिक जिम्मेदारियों के पालन की गुहार दी गई है। यह संविधान मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित नहीं है। संविधान में पूरा बल अधिकारों पर ही दिया गया है। अंग्रेजी शासन के गव्हर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट आदि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए बनाए अन्यान्य कानूनों से बहुत बड़ा हिस्सा इस संविधान में लिया गया है। भारतीय दृष्टि से तो धर्म सर्वोपरि होता है। इस संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है।
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देश का जो भी संविधान है उसका उचित आदर तो सभी से अपेक्षित है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संविधान आलोचना से ऊपर माना जाने लगे। १०० से अधिक बार जिस संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता निर्माण हुई उसे पवित्र नहीं माना जा सकता। यह संविधान मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित नहीं है। संविधान में पूरा बल अधिकारों पर ही दिया गया है। अंग्रेजी शासन के गव्हर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट आदि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए बनाए अन्यान्य कानूनों से बहुत बड़ा हिस्सा इस संविधान में लिया गया है। भारतीय दृष्टि से तो धर्म सर्वोपरि होता है। इस संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है।
    
संविधान में कहीं भी राष्ट्र की व्याख्या नहीं दी गयी है। संविधान का प्रारम्भ ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ की विकृति से शुरू होता है। इसकी अल्पसंख्य की संकल्पना और उनको दिए जानेवाले विशेषाधिकार तो राष्ट्रीय दिवालियेपन का ही लक्षण है। इसके कर्ता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी इस संविधान से समाधानी नहीं थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मी के कारण वे अपनी पसंद का संविधान नहीं बना पाए।
 
संविधान में कहीं भी राष्ट्र की व्याख्या नहीं दी गयी है। संविधान का प्रारम्भ ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ की विकृति से शुरू होता है। इसकी अल्पसंख्य की संकल्पना और उनको दिए जानेवाले विशेषाधिकार तो राष्ट्रीय दिवालियेपन का ही लक्षण है। इसके कर्ता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी इस संविधान से समाधानी नहीं थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मी के कारण वे अपनी पसंद का संविधान नहीं बना पाए।
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राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी) : इसमें राष्ट्र की भ्रामक संकल्पना के कारण सभी बिन्दुओं में भारतीय दृष्टि से भिन्न विषयों का चयन हुआ दिखाई देता है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु आदि विषय आते हैं। यहीं से ‘राष्ट्र संकल्पना का संभ्रम खडा हो जाता है।
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राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी Content essential to nurture national identity) : इसमें राष्ट्र की भ्रामक संकल्पना के कारण सभी बिन्दुओं में भारतीय दृष्टि से भिन्न विषयों का चयन हुआ दिखाई देता है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु आदि विषय आते हैं। यहीं से ‘राष्ट्र संकल्पना का संभ्रम खडा हो जाता है।
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राष्ट्रीय त्यौहारों का जो उल्लेख कोअर एलिमेंट्स् में किया है, उस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्र और राज्य एक ही है। स्वतन्त्रता (वास्तव में केवल स्वाधीनता) दिवस और प्रजासत्ताक दिवस यह दोनों राज्य के त्यौहार हैं, राष्ट्र के नहीं। जैसे भारत की सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति करनेवाली तेलगू, तमिळ, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, हिंदी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं ही हैं। उसी तरह से भारत में पैदा होनेवाले भारतीय आकाश की और जंगल की शोभा बढ़ानेवाले सभी फूल, पक्षी और प्राणी राष्ट्रीय ही है। छोटे देशों में इतनी विविधता नहीं होती। इसलिए उनके लिए राष्ट्रीय फूल, पक्षी, प्राणी आदि तय करना एक बार समझ सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी तय करना यह विषय तो अपक्वता का ही लक्षण है। भारत में फूल, प्राणी आदि की जातियों में बहुत विविधता है। ये सभी हमारे राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी हैं।
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राष्ट्रीय त्यौहारों का जो उल्लेख कोअर एलिमेंट्स् (core elements) में किया है, उस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्र और राज्य एक ही है। स्वतन्त्रता (वास्तव में केवल स्वाधीनता) दिवस और प्रजासत्ताक दिवस यह दोनों राज्य के त्यौहार हैं, राष्ट्र के नहीं। जैसे भारत की सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति करनेवाली तेलुगु, तमिळ, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, हिंदी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं ही हैं। उसी तरह से भारत में पैदा होनेवाले भारतीय आकाश की और जंगल की शोभा बढ़ाने वाले सभी फूल, पक्षी और प्राणी राष्ट्रीय ही है। छोटे देशों में इतनी विविधता नहीं होती। इसलिए उनके लिए राष्ट्रीय फूल, पक्षी, प्राणी आदि तय करना एक बार समझ सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी तय करना यह विषय तो अपरिपक्वता का ही लक्षण है। भारत में फूल, प्राणी आदि की जातियों में बहुत विविधता है। ये सभी हमारे राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी हैं।
    
सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर 'राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
 
सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर 'राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
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भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुष्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है की राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
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भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुश्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है कि राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजी ने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बना सकते हैं ? 
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
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समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे। किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं, जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
    
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
 
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
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