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भारत में अंग्रेजी शिक्षा को स्थापित हुए अब २०० वर्षों से अधिक काल हो गया है। इस काल में हमने अंग्रेजी या पाश्चात्य जीवनदृष्टि का लगभग स्वीकार कर लिया दिखाई देता है। केवल पाश्चात्य जीवनदृष्टि ही नहीं तो उस के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार और व्यवस्थाओं का भी हमने स्वीकार कर लिया है। जैसे हमने अंग्रेजों जैसे कपडे पहनना स्वीकार कर लिया है। कपडों को किया हुआ लोहा नहीं बिगडे इस लिये अब हम कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर खाना रख कर खाते है। भारतीय स्वास्थ्य विचार के अनुसार भोजन की यह स्थिति अत्यंत गलत है। किंतु हम अब उस आदत के इतने गुलाम बन गये है कि नीचे बैठकर पालखी मार कर हम खाना नहीं खा सकते। हम ऐसी आदतों के इतने आदि हो गये है कि अब हमें हम कुछ गलत कर रहे है इस का ज्ञान भी नहीं है।  
 
भारत में अंग्रेजी शिक्षा को स्थापित हुए अब २०० वर्षों से अधिक काल हो गया है। इस काल में हमने अंग्रेजी या पाश्चात्य जीवनदृष्टि का लगभग स्वीकार कर लिया दिखाई देता है। केवल पाश्चात्य जीवनदृष्टि ही नहीं तो उस के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार और व्यवस्थाओं का भी हमने स्वीकार कर लिया है। जैसे हमने अंग्रेजों जैसे कपडे पहनना स्वीकार कर लिया है। कपडों को किया हुआ लोहा नहीं बिगडे इस लिये अब हम कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर खाना रख कर खाते है। भारतीय स्वास्थ्य विचार के अनुसार भोजन की यह स्थिति अत्यंत गलत है। किंतु हम अब उस आदत के इतने गुलाम बन गये है कि नीचे बैठकर पालखी मार कर हम खाना नहीं खा सकते। हम ऐसी आदतों के इतने आदि हो गये है कि अब हमें हम कुछ गलत कर रहे है इस का ज्ञान भी नहीं है।  
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भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही शुरू हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतोंद्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
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भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही शुरू हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। फिर भी इस विषय पर लोगों को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँवपर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। फिर भी इस विषय पर लोगों को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
    
नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। फिर भी अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
 
नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। फिर भी अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
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इसी प्रकार विविधता या अनेकता में एकता के भारतीय तत्व को समझने में भी भूल हुई समझ में आती है। विविधता ढूँढते ढूँढते बात सांस्कृतिक विविधता तक खींची गई। फिर एकता किस बात में रही यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया। वास्तव में वेष, भोजन, भाषा, भूषणों जैसे अन्य सभी प्रकार की विविधता तो समझी जा सकती है, किंतु संस्कृति की विविधता होगी तो साथ में कैसे रह सकेंगे। इस बिंदू को ठीक से समझना होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने पश्चिमी देशों में किये कई भाषणों में कहा है कि 'आप के समाज में अपनी माँ को छोडकर आप अन्य सभी स्त्रियों को संभाव्य पत्नी (प्रॉस्पेक्टिव्ह वाईफ) के रूप में देखते है। भारत में हम अपनी पत्नी को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखते है (मातृवत् परदारेषू)।  ऐसी विपरीत मान्यता रखनेवाले दो कुटुम्ब इकठ्ठे नहीं रह सकते। इसी प्रकार समाज के एक गुट की मान्यता है कि मूर्ति में भी परमात्मा को देखा जा सकता है। और दूसरे वर्ग की मान्यता है ऐसी मूर्तियों को नष्ट करना (बुतशिकन अर्थात् मूर्तिभंजक) पुण्य की बात है, मूर्ति की पूजा करने वाले लोगों को कत्ल करने की। ऐसी विपरीत सांस्कृतिक मान्यता वाले दो समाज गुट इकठ्ठे नहीं रह सकते। इकठ्ठे रहे तो शांति नहीं रहेगी। इसलिये मिली-जुली संस्कृति या साझी संस्कृति की भाषा तो तब ही बोली जा सकती है जब माता छोडकर हर स्त्री में संभाव्य पत्नी को देखनेवाले और मूर्तिपूजकों को जीने का अधिकार नहीं है ऐसा कहने वाले मजहबी लोग अपने विचारों का त्याग करेंगे। किंतु इस प्रकार का कोई भी प्रयास शिक्षा के माध्यम से (कोअर एलिमेंण्ट्स् की पुस्तिका में भी) किया नहीं जा रहा है। यह जब तक नहीं होता तब तक साझी संस्कृति की बात करना बेमानी होगी।
 
इसी प्रकार विविधता या अनेकता में एकता के भारतीय तत्व को समझने में भी भूल हुई समझ में आती है। विविधता ढूँढते ढूँढते बात सांस्कृतिक विविधता तक खींची गई। फिर एकता किस बात में रही यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया। वास्तव में वेष, भोजन, भाषा, भूषणों जैसे अन्य सभी प्रकार की विविधता तो समझी जा सकती है, किंतु संस्कृति की विविधता होगी तो साथ में कैसे रह सकेंगे। इस बिंदू को ठीक से समझना होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने पश्चिमी देशों में किये कई भाषणों में कहा है कि 'आप के समाज में अपनी माँ को छोडकर आप अन्य सभी स्त्रियों को संभाव्य पत्नी (प्रॉस्पेक्टिव्ह वाईफ) के रूप में देखते है। भारत में हम अपनी पत्नी को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखते है (मातृवत् परदारेषू)।  ऐसी विपरीत मान्यता रखनेवाले दो कुटुम्ब इकठ्ठे नहीं रह सकते। इसी प्रकार समाज के एक गुट की मान्यता है कि मूर्ति में भी परमात्मा को देखा जा सकता है। और दूसरे वर्ग की मान्यता है ऐसी मूर्तियों को नष्ट करना (बुतशिकन अर्थात् मूर्तिभंजक) पुण्य की बात है, मूर्ति की पूजा करने वाले लोगों को कत्ल करने की। ऐसी विपरीत सांस्कृतिक मान्यता वाले दो समाज गुट इकठ्ठे नहीं रह सकते। इकठ्ठे रहे तो शांति नहीं रहेगी। इसलिये मिली-जुली संस्कृति या साझी संस्कृति की भाषा तो तब ही बोली जा सकती है जब माता छोडकर हर स्त्री में संभाव्य पत्नी को देखनेवाले और मूर्तिपूजकों को जीने का अधिकार नहीं है ऐसा कहने वाले मजहबी लोग अपने विचारों का त्याग करेंगे। किंतु इस प्रकार का कोई भी प्रयास शिक्षा के माध्यम से (कोअर एलिमेंण्ट्स् की पुस्तिका में भी) किया नहीं जा रहा है। यह जब तक नहीं होता तब तक साझी संस्कृति की बात करना बेमानी होगी।
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मिली-जुली संस्कृति के प्रयोग में जो सहिष्णु और श्रेष्ठ संस्कृति के अनुयायी है, उस समाज गुट को हानि होती रहेगी। या तो ऐसा समाज नष्ट हो जाएगा या फिर एक सीमा से आगे वह भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए असहिष्णू गटों के विरोध में खडा हो जाएगा। जैसा आज हिंदू समाज में होता दिखाई दे रहा है।
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मिली-जुली संस्कृति के प्रयोग में जो सहिष्णु और श्रेष्ठ संस्कृति के अनुयायी है, उस समाज गुट को हानि होती रहेगी। या तो ऐसा समाज नष्ट हो जाएगा या फिर एक सीमा से आगे वह भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए असहिष्णु गटों के विरोध में खडा हो जाएगा। जैसा आज हिंदू समाज में होता दिखाई दे रहा है।
    
== अभारतीय जीवनदृष्टि के आधारभूत तत्व ==
 
== अभारतीय जीवनदृष्टि के आधारभूत तत्व ==
 
वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
 
वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे ' दैवी ' समाज कहा जाता है। और ' स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे ' आसुरी ' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगों के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अभारतीय विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगों के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अभारतीय विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
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पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है ' इहवादिता '। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
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पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
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पाश्चात्य जीवनदृष्टि का तीसरा आधारभूत तत्व है ' जडवादिता '- मटेरियलिस्टिक। जड के ही विकास के एक मोड पर जीव का जन्म हुआ है। अतएव इस विश्व में चेतन कुछ भी नहीं है। इसी कारण से 'यांत्रिकता' (मेकॅनिस्टिक एप्रोच) भी पाश्चात्य जीवनदृष्टि का एक तत्व बन जाता है।
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पाश्चात्य जीवनदृष्टि का तीसरा आधारभूत तत्व है 'जडवादिता'- मटेरियलिस्टिक। जड के ही विकास के एक मोड पर जीव का जन्म हुआ है। अतएव इस विश्व में चेतन कुछ भी नहीं है। इसी कारण से 'यांत्रिकता' (मेकॅनिस्टिक एप्रोच) भी पाश्चात्य जीवनदृष्टि का एक तत्व बन जाता है।
    
इन तत्वों के आधार पर पश्चिमी जीवनदृष्टि के निम्न वर्तनसूत्र तैयार हुए है।
 
इन तत्वों के आधार पर पश्चिमी जीवनदृष्टि के निम्न वर्तनसूत्र तैयार हुए है।
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# जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगों से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगों से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
 
# जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगों से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगों से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
 
# अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
 
# अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
# भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग)* सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा शुरू हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।
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# भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग) सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा शुरू हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।
 
# यांत्रिकतावादी विचार। (मेकॅनिस्टिक थिंकिंग)। यांत्रिक (मेकेनिस्टिक) दृष्टि भी इसी का हिस्सा है। जिस प्रकार पुर्जों का काम और गुण लक्षण समझने से एक यंत्र का काम समझा जा सकता है, उसी प्रकार से छोटे छोटे टुकडों में विषय को बाँटकर अध्ययन करने से उस विषय को समझा जा सकता है। इस पर व्यंग्य से ऐसा भी कहा जा सकता है कि ' टु नो मोर एँड मोर अबाऊट स्मॉलर एँड स्मॉलर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग’ (To know more and more about smaller and smaller things till you know everything about nothing. )।
 
# यांत्रिकतावादी विचार। (मेकॅनिस्टिक थिंकिंग)। यांत्रिक (मेकेनिस्टिक) दृष्टि भी इसी का हिस्सा है। जिस प्रकार पुर्जों का काम और गुण लक्षण समझने से एक यंत्र का काम समझा जा सकता है, उसी प्रकार से छोटे छोटे टुकडों में विषय को बाँटकर अध्ययन करने से उस विषय को समझा जा सकता है। इस पर व्यंग्य से ऐसा भी कहा जा सकता है कि ' टु नो मोर एँड मोर अबाऊट स्मॉलर एँड स्मॉलर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग’ (To know more and more about smaller and smaller things till you know everything about nothing. )।
 
# इहवादिता। (धिस इज द ओन्ली लाईफ)। मानव जन्म एक बार ही मिलता है। इस के न आगे कोई जन्म है न पीछे कोई था, ऐसी मानसिकता। इस लिये उपभोगवाद का समर्थन।
 
# इहवादिता। (धिस इज द ओन्ली लाईफ)। मानव जन्म एक बार ही मिलता है। इस के न आगे कोई जन्म है न पीछे कोई था, ऐसी मानसिकता। इस लिये उपभोगवाद का समर्थन।
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== पाठयक्रम निर्माण प्रक्रिया ==
 
== पाठयक्रम निर्माण प्रक्रिया ==
पाठयक्रम का निर्माण और विविध विषयों की विषयवस्तु का निर्माण करने का आधार जिस समाज के लिये इन का निर्माण किया जा रहा है, उस की जीवनदृष्टि, उस की मान्यताएं आदि होते है। यह जीवनदृष्टि और मान्यताएं उस समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य के अनुसार उस समाज की जीवनदृष्टि और मान्यताएं विकसित होतीं है। इस प्रकार से सर्वप्रथम समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य को सर्वप्रथम समझना, इस लक्ष्य के कारण विकसित हुई जीवनदृष्टि को समझना, जीवनदृष्टि के आधारपर पाठयक्रम निर्माण का उद्देष्य तय करना, इस उद्देष्य की पूर्ति के लिये आयु की अवस्था के अनुसार पाठयक्रम निर्माण के मार्गदर्शक सूत्र, इन सूत्रों के आधारपर समाज जीवन से जुडे विभिन्न आवश्यक विषयों का निर्धारण और फिर जीवनदृष्टि के अनुरूप उन विषयों की विषयवस्तूओं का निर्माण, ऐसी यह प्रक्रिया चलती है।  
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पाठयक्रम का निर्माण और विविध विषयों की विषयवस्तु का निर्माण करने का आधार जिस समाज के लिये इन का निर्माण किया जा रहा है, उस की जीवनदृष्टि, उस की मान्यताएं आदि होते है। यह जीवन दृष्टि और मान्यताएं उस समाज के सामूहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य के अनुसार उस समाज की जीवनदृष्टि और मान्यताएं विकसित होतीं है। इस प्रकार से सर्वप्रथम समाज के सामूहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य को सर्वप्रथम समझना, इस लक्ष्य के कारण विकसित हुई जीवनदृष्टि को समझना, जीवनदृष्टि के आधार पर पाठयक्रम निर्माण का उद्देश्य तय करना, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आयु की अवस्था के अनुसार पाठयक्रम निर्माण के मार्गदर्शक सूत्र, इन सूत्रों के आधार पर समाज जीवन से जुडे विभिन्न आवश्यक विषयों का निर्धारण और फिर जीवनदृष्टि के अनुरूप उन विषयों की विषयवस्तुओं का निर्माण, ऐसी यह प्रक्रिया चलती है।  
    
=== पाठयक्रमों में भिन्नता ===
 
=== पाठयक्रमों में भिन्नता ===
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वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  
 
वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  
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एक अखिल भारतीय शैक्षिक संगठन ने जीवनमूल्यों की शिक्षा की दृष्टि से तथाकथित सैंकड़ों जीवनमूल्यों की सूचि बनाई। उन के ध्यान में आया कि इन सैंकड़ों जीवनमूल्यों को शिक्षा में  ढालना अत्यंत अव्यावहारिक है। उन का सारा परिश्रम व्यर्थ गया। महाराष्ट्र की युती सरकार का भी अनुभव कुछ ऐसा ही था। व्यावहारि दृष्टि से प्राथमिकता के क्रम से केवल दस जीवनमूल्यों का चयन हो पाया। इन मूल्यों के महत्त्वक्रम के अनुसार चयनित दस जीवनमूल्यों में ‘सत्यनिष्ठा’ इस मूल्य का समावेश नहीं हो पाया।  
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एक अखिल भारतीय शैक्षिक संगठन ने जीवनमूल्यों की शिक्षा की दृष्टि से तथाकथित सैंकड़ों जीवनमूल्यों की सूचि बनाई। उन के ध्यान में आया कि इन सैंकड़ों जीवनमूल्यों को शिक्षा में  ढालना अत्यंत अव्यावहारिक है। उन का सारा परिश्रम व्यर्थ गया। महाराष्ट्र की युती सरकार का भी अनुभव कुछ ऐसा ही था। व्यावहारि दृष्टि से प्राथमिकता के क्रम से केवल दस जीवनमूल्यों का चयन हो पाया। इन मूल्यों के महत्वक्रम के अनुसार चयनित दस जीवनमूल्यों में ‘सत्यनिष्ठा’ इस मूल्य का समावेश नहीं हो पाया।  
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मूल्य और जीवनदृष्टि में अन्तर होता है। मूल्य शब्द जीवन की किसी भौतिक वस्तू के लिए लागू होता है। जीवनदृष्टि शब्द भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साम्पत्तिक, राजकीय ऐसे जीवन के सभी पहलुओं को लागू होता है। जीवन में सामने आई एक ही वस्तू का मूल्य हर मनुष्य अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार तय करता है। सोने के सिक्के का मूल्य गृहस्थ की दृष्टि में अनमोल है। उसी सोने के सिक्के का मूल्य बैरागी के लिये संन्यासी के लिये मिट्टि से बढकर नहीं है। दोनों में अन्तर दृष्टि का ही होता है। भारत शांति से जीना चाहता है। पाकिस्तान भी शांति से जीना चाहता है। किंतु पाकिस्तान के शांति के अर्थ और भारत के शांति के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। यह इन दोनों देशों के समाजों की जीवनदृष्टि के अनुसार है। इस जीवनदृष्टि के अन्तर के कारण पाठयक्रमों में और उन की विषय वस्तुओं में भिन्नता होना अपरिहार्य होता है।  
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मूल्य और जीवनदृष्टि में अन्तर होता है। मूल्य शब्द जीवन की किसी भौतिक वस्तु के लिए लागू होता है। जीवनदृष्टि शब्द भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साम्पत्तिक, राजकीय ऐसे जीवन के सभी पहलुओं को लागू होता है। जीवन में सामने आई एक ही वस्तु का मूल्य हर मनुष्य अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार तय करता है। सोने के सिक्के का मूल्य गृहस्थ की दृष्टि में अनमोल है। उसी सोने के सिक्के का मूल्य बैरागी के लिये संन्यासी के लिये मिटटी से बढकर नहीं है। दोनों में अन्तर दृष्टि का ही होता है। भारत शांति से जीना चाहता है। पाकिस्तान भी शांति से जीना चाहता है। किंतु पाकिस्तान के शांति के अर्थ और भारत के शांति के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। यह इन दोनों देशों के समाजों की जीवनदृष्टि के अनुसार है। इस जीवनदृष्टि के अन्तर के कारण पाठयक्रमों में और उन की विषय वस्तुओं में भिन्नता होना अपरिहार्य होता है।  
    
== विषयों की नहीं जीवन की शिक्षा ==
 
== विषयों की नहीं जीवन की शिक्षा ==
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== भारतीय दृष्टि में समाज का और व्यक्ति जीवन का लक्ष्य ==
 
== भारतीय दृष्टि में समाज का और व्यक्ति जीवन का लक्ष्य ==
किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामुहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।  
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किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामूहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।  
    
भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।  
 
भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।  
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# सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो।  
 
# सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो।  
 
# सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो।  
 
# सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो।  
# अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधारपर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो।  
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# अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधार पर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो।  
 
# जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो।  
 
# जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो।  
इन निकषों के आधारपर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है:
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इन निकषों के आधार पर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है:
 
* मैं सदासुखी रहूं
 
* मैं सदासुखी रहूं
 
* मैं अमर हो जाऊं
 
* मैं अमर हो जाऊं
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== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
 
== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
सर्वप्रथम तो भारतीय समाज का लक्ष्य क्या है? यह निश्चित करना चाहिये था। अनिवार्य रूप से मानव जीवन के लक्ष्य के आधारपर ही शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। प्राचीन काल से मानव जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' ही रहा है। इसीलिये शिक्षा के लक्ष्य का वर्णन किया गया था 'सा विद्या या विमुक्तये'। किंतु वर्तमान में इस लक्ष्य का निर्धारण, जैसी हमारी परंपरा रही है वैसा समाज के विद्वानों ने नहीं किया है, अपितु शासनमान्य विद्वानों ने किया है। शासन मान्य विद्वान का अर्थ है शासन की नीतियों के लिये अपने ज्ञान का उपयोग करने वाला विद्वान। सामान्य तौर पर समूचे शिक्षा क्षेत्र ने शासन द्वारा निर्धारित इस लक्ष्य को मान्य किया है। इस की प्रस्तुति शासन ने 'कोअर एलिमेंटस्' (केंद्रीय घटक) के अंतर्गत की है।   
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सर्वप्रथम तो भारतीय समाज का लक्ष्य क्या है? यह निश्चित करना चाहिये था। अनिवार्य रूप से मानव जीवन के लक्ष्य के आधार पर ही शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। प्राचीन काल से मानव जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' ही रहा है। इसीलिये शिक्षा के लक्ष्य का वर्णन किया गया था 'सा विद्या या विमुक्तये'। किंतु वर्तमान में इस लक्ष्य का निर्धारण, जैसी हमारी परंपरा रही है वैसा समाज के विद्वानों ने नहीं किया है, अपितु शासनमान्य विद्वानों ने किया है। शासन मान्य विद्वान का अर्थ है शासन की नीतियों के लिये अपने ज्ञान का उपयोग करने वाला विद्वान। सामान्य तौर पर समूचे शिक्षा क्षेत्र ने शासन द्वारा निर्धारित इस लक्ष्य को मान्य किया है। इस की प्रस्तुति शासन ने 'कोअर एलिमेंटस्' (केंद्रीय घटक) के अंतर्गत की है।   
    
१९८६ की शिक्षा नीति के अनुसार यह कोअर एलिमेंटस् १० थे। २००६ में इन में तीन और जोडे गये। इस लिये इन कोअर एलिमेंटस् की संख्या अब १३ हो गई है। यह कोअर एलिमेंटस् निम्न हैं:  
 
१९८६ की शिक्षा नीति के अनुसार यह कोअर एलिमेंटस् १० थे। २००६ में इन में तीन और जोडे गये। इस लिये इन कोअर एलिमेंटस् की संख्या अब १३ हो गई है। यह कोअर एलिमेंटस् निम्न हैं:  
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# बुध्दि, मन और कृति का समन्वय ( कोऑर्डिनेशन ऑफ ईन्टेलिजन्स्, इमोशन्स् एंड ऍक्शन्स् )  
 
# बुध्दि, मन और कृति का समन्वय ( कोऑर्डिनेशन ऑफ ईन्टेलिजन्स्, इमोशन्स् एंड ऍक्शन्स् )  
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== वर्तमान शिक्षा के उद्देष्यों का मूल्यांकन ==
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== वर्तमान शिक्षा के उद्देश्यों का मूल्यांकन ==
वर्तमान में माध्यमिक के स्तर तक की शिक्षा के उद्देष्यों की प्रस्तुति कोअर एलिमेंट्स् (केंद्रीय घटकों) के माध्यम से की गई है। माध्यमिक शिक्षा तक के स्तर के पाठयक्रम और पाठयक्रमों की विषयवस्तु कोअर एलिमेंटस् के प्रकाश में ही तैयार किये जाते है, इस लिये इन कोअर एलिमेंट्स् का थोडा विश्लेषण करना आवश्यक है।  
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वर्तमान में माध्यमिक के स्तर तक की शिक्षा के उद्देश्यों की प्रस्तुति कोअर एलिमेंट्स् (केंद्रीय घटकों) के माध्यम से की गई है। माध्यमिक शिक्षा तक के स्तर के पाठयक्रम और पाठयक्रमों की विषयवस्तु कोअर एलिमेंटस् के प्रकाश में ही तैयार किये जाते है, इस लिये इन कोअर एलिमेंट्स् का थोडा विश्लेषण करना आवश्यक है।  
 
इन में से कई कोअर एलिमेंट्स् ऐसे है जो अधूरे हैं, कुछ अस्पष्ट है, कुछ अंग्रेजों की मानसिक दासता के फलस्वरूप है, कुछ नकारात्मक है, कुछ जिन का अर्थ इन के निर्माताओं को भी नहीं समझता है ऐसे हैं। सामान्य मानव इन्हें ठीक से कैसे समझ सकेगा?  
 
इन में से कई कोअर एलिमेंट्स् ऐसे है जो अधूरे हैं, कुछ अस्पष्ट है, कुछ अंग्रेजों की मानसिक दासता के फलस्वरूप है, कुछ नकारात्मक है, कुछ जिन का अर्थ इन के निर्माताओं को भी नहीं समझता है ऐसे हैं। सामान्य मानव इन्हें ठीक से कैसे समझ सकेगा?  
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स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास (हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट) : इस केंद्रीय घटक के पीछे क्या कारण रहा होगा? कुछ प्रत्यक्ष पाठयक्रमों की विषयवस्तु का निरीक्षण और कुछ उस के होने वाले परिणामों से इस के चार उद्देष्य ध्यान में आते है:  
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स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास (हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट) : इस केंद्रीय घटक के पीछे क्या कारण रहा होगा? कुछ प्रत्यक्ष पाठयक्रमों की विषयवस्तु का निरीक्षण और कुछ उस के होने वाले परिणामों से इस के चार उद्देश्य ध्यान में आते है:  
 
# अत्यंत गौरवशाली भारतीय इतिहास को नकारना।  
 
# अत्यंत गौरवशाली भारतीय इतिहास को नकारना।  
# केवल काँग्रेस के स्वाधीनता संग्राम में जुटे,' वी आर ए नेशन इन द मेकिंग ' ऐसा लगने वाले नेताओं का महिमा मंडन करना। लगभग १५ वर्ष पूर्व प्रस्तुत लेखक ने ७ वीं में पढ रही एक लडकी से प्रश्न पूछा था ' स्वाधीनता किस के कारण प्राप्त हुई ?' तुरंत उत्तर आया ' गांधीजी और नेहरूजी '।  
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# केवल काँग्रेस के स्वाधीनता संग्राम में जुटे,' वी आर ए नेशन इन द मेकिंग ' ऐसा लगने वाले नेताओं का महिमा मंडन करना। लगभग १५ वर्ष पूर्व प्रस्तुत लेखक ने ७वीं में पढ रही एक लडकी से प्रश्न पूछा था ' स्वाधीनता किस के कारण प्राप्त हुई ?' तुरंत उत्तर आया ' गांधीजी और नेहरूजी '।  
 
# इस्लाम और ईसाई शासकों और आक्रमकों के हत्याकांडों, अत्याचारों, स्त्रियोंपर बलात्कार, गुलाम बनाकर बेचना, तलवार के बलपर इस्लामीकरण और ईसाईकरण, कत्ले आम आदि को नकारना।  
 
# इस्लाम और ईसाई शासकों और आक्रमकों के हत्याकांडों, अत्याचारों, स्त्रियोंपर बलात्कार, गुलाम बनाकर बेचना, तलवार के बलपर इस्लामीकरण और ईसाईकरण, कत्ले आम आदि को नकारना।  
 
# एक आभासी साझी संस्कृति को जन्म देना।  
 
# एक आभासी साझी संस्कृति को जन्म देना।  
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देश का जो भी संविधान है उसका उचित आदर तो सभी से अपेक्षित है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की संविधान आलोचना से ऊपर माना जाने लगे। १०० से अधिक बार जिसमें संशोधन करने की आवश्यकता निर्माण हुई उसे पवित्र नहीं माना जा सकता। भारतीय संसद भी इसे पवित्र नहीं मानती। भारतीय संवैधानिक जिम्मेदारियाँ (कॉन्स्टिटयूशनल ऑब्लिगेशनस्) : जिस संविधान में औसतन प्रतिवर्ष लगभग दो बार संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई उस के द्वारा प्रतिपादित संवैधानिक जिम्मेदारियों के पालन की गुहार दी गई है। यह संविधान मूलत: भारतीय जीवनदृष्टिपर आधारित नहीं है। संविधान में पूरा बल अधिकारोंपर ही दिया गया है। अंग्रेजी शासन के गव्हर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट आदि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए बनाए अन्यान्य कानूनों से बहुत बड़ा हिस्सा इस संविधान में लिया गया है। भारतीय दृष्टि से तो धर्म सर्वोपरि होता है। इस संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है।
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देश का जो भी संविधान है उसका उचित आदर तो सभी से अपेक्षित है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की संविधान आलोचना से ऊपर माना जाने लगे। १०० से अधिक बार जिसमें संशोधन करने की आवश्यकता निर्माण हुई उसे पवित्र नहीं माना जा सकता। भारतीय संसद भी इसे पवित्र नहीं मानती। भारतीय संवैधानिक जिम्मेदारियाँ (कॉन्स्टिटयूशनल ऑब्लिगेशनस्) : जिस संविधान में औसतन प्रति वर्ष लगभग दो बार संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई उस के द्वारा प्रतिपादित संवैधानिक जिम्मेदारियों के पालन की गुहार दी गई है। यह संविधान मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित नहीं है। संविधान में पूरा बल अधिकारों पर ही दिया गया है। अंग्रेजी शासन के गव्हर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट आदि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए बनाए अन्यान्य कानूनों से बहुत बड़ा हिस्सा इस संविधान में लिया गया है। भारतीय दृष्टि से तो धर्म सर्वोपरि होता है। इस संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है।
    
संविधान में कहीं भी राष्ट्र की व्याख्या नहीं दी गयी है। संविधान का प्रारम्भ ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ की विकृति से शुरू होता है। इसकी अल्पसंख्य की संकल्पना और उनको दिए जानेवाले विशेषाधिकार तो राष्ट्रीय दिवालियेपन का ही लक्षण है। इसके कर्ता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी इस संविधान से समाधानी नहीं थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मी के कारण वे अपनी पसंद का संविधान नहीं बना पाए।
 
संविधान में कहीं भी राष्ट्र की व्याख्या नहीं दी गयी है। संविधान का प्रारम्भ ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ की विकृति से शुरू होता है। इसकी अल्पसंख्य की संकल्पना और उनको दिए जानेवाले विशेषाधिकार तो राष्ट्रीय दिवालियेपन का ही लक्षण है। इसके कर्ता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी इस संविधान से समाधानी नहीं थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मी के कारण वे अपनी पसंद का संविधान नहीं बना पाए।
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राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी) : इसमें राष्ट्र की भ्रामक संकल्पना के कारण सभी बिन्दुओं में भारतीय दृष्टि से भिन्न विषयों का चयन हुआ दिखाई देता है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु आदि विषय आते हैं। यहीं से ‘राष्ट्र संकल्पना का संभ्रम खडा हो जाता है।
 
राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी) : इसमें राष्ट्र की भ्रामक संकल्पना के कारण सभी बिन्दुओं में भारतीय दृष्टि से भिन्न विषयों का चयन हुआ दिखाई देता है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु आदि विषय आते हैं। यहीं से ‘राष्ट्र संकल्पना का संभ्रम खडा हो जाता है।
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राष्ट्रीय त्यौहारों का जो उल्लेख कोअर एलिमेंट्स् में किया है, उस के आधारपर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्र और राज्य एक ही है। स्वतन्त्रता (वास्तव में केवल स्वाधीनता) दिवस और प्रजासत्ताक दिवस यह दोनों राज्य के त्यौहार हैं, राष्ट्र के नहीं। जैसे भारत की सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति करनेवाली तेलगू, तमिळ, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, हिंदी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं ही हैं। उसी तरह से भारत में पैदा होनेवाले भारतीय आकाश की और जंगल की शोभा बढ़ानेवाले सभी फूल, पक्षी और प्राणी राष्ट्रीय ही है। छोटे देशों में इतनी विविधता नहीं होती। इसलिए उनके लिए राष्ट्रीय फूल, पक्षी, प्राणी आदि तय करना एक बार समझ सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी तय करना यह विषय तो अपक्वता का ही लक्षण है। भारत में फूल, प्राणी आदि की जातियों में बहुत विविधता है। ये सभी हमारे राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी हैं।
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राष्ट्रीय त्यौहारों का जो उल्लेख कोअर एलिमेंट्स् में किया है, उस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्र और राज्य एक ही है। स्वतन्त्रता (वास्तव में केवल स्वाधीनता) दिवस और प्रजासत्ताक दिवस यह दोनों राज्य के त्यौहार हैं, राष्ट्र के नहीं। जैसे भारत की सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति करनेवाली तेलगू, तमिळ, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, हिंदी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं ही हैं। उसी तरह से भारत में पैदा होनेवाले भारतीय आकाश की और जंगल की शोभा बढ़ानेवाले सभी फूल, पक्षी और प्राणी राष्ट्रीय ही है। छोटे देशों में इतनी विविधता नहीं होती। इसलिए उनके लिए राष्ट्रीय फूल, पक्षी, प्राणी आदि तय करना एक बार समझ सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी तय करना यह विषय तो अपक्वता का ही लक्षण है। भारत में फूल, प्राणी आदि की जातियों में बहुत विविधता है। ये सभी हमारे राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी हैं।
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सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर ' राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता ' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
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सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर 'राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
    
भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुष्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है की राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
 
भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुष्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है की राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देष्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।  
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।  
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पध्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पध्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णू विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटोंद्वारा साझी विरासत के आधारपर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पध्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पध्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
    
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
 
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
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सामाजिक अवरोध में वर्णाश्रम धर्म का विरोध यह प्रमुख उद्देश्य दिखाई देता है। वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज जीवन का ताना बाना था। इसको तोड़ने से पहले इसका अच्छी तरह भारतीय दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता थी। लेकिन अंग्रेजों के अन्धानुकरण के कारण हम इसे तोड़ने में लगे हैं। छोटे परिवारों ने कई नई सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। संयुक्त कुटुम्ब के दर्जनों लाभों से समाज वंचित हो गया है।  
 
सामाजिक अवरोध में वर्णाश्रम धर्म का विरोध यह प्रमुख उद्देश्य दिखाई देता है। वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज जीवन का ताना बाना था। इसको तोड़ने से पहले इसका अच्छी तरह भारतीय दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता थी। लेकिन अंग्रेजों के अन्धानुकरण के कारण हम इसे तोड़ने में लगे हैं। छोटे परिवारों ने कई नई सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। संयुक्त कुटुम्ब के दर्जनों लाभों से समाज वंचित हो गया है।  
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साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्त्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्त्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
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साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
    
जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिध्द हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिध्द होता है।  
 
जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिध्द हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिध्द होता है।  
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२. विषयों का आधार भारतीय जीवनदृष्टि याने चराचर में व्याप्त एकात्मता और वैश्विक समग्रता होंगे। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। प्रत्येक विषय की विषयवस्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत रहे।
 
२. विषयों का आधार भारतीय जीवनदृष्टि याने चराचर में व्याप्त एकात्मता और वैश्विक समग्रता होंगे। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। प्रत्येक विषय की विषयवस्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत रहे।
 
३. जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रत्येक विषय का अंगांगी संबंध है। यह अंगांगी संबंध विषयवस्तु में स्पष्ट होना चाहिए।
 
३. जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रत्येक विषय का अंगांगी संबंध है। यह अंगांगी संबंध विषयवस्तु में स्पष्ट होना चाहिए।
४. भारत के उज्वल इतिहास और इतिहास दृष्टि के आधारपर प्रत्येक विषय के विकास की जानकारी और उससे प्रेरणा मिले।
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४. भारत के उज्वल इतिहास और इतिहास दृष्टि के आधार पर प्रत्येक विषय के विकास की जानकारी और उससे प्रेरणा मिले।
५. हर वस्तू के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इसी तरह से हर विषय की विषयवस्तु का भी जीवन में और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए।  
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५. हर वस्तु के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इसी तरह से हर विषय की विषयवस्तु का भी जीवन में और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए।  
 
६. १५ वर्ष की आयुतक बच्चे के ज्ञानार्जन के करणों (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) के विकास की दृष्टि से विषय और विषयवस्तु रहे।  
 
६. १५ वर्ष की आयुतक बच्चे के ज्ञानार्जन के करणों (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) के विकास की दृष्टि से विषय और विषयवस्तु रहे।  
 
७. शिक्षा यह आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। इस दृष्टि से कुटुंब शिक्षा की योजना और क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है।  
 
७. शिक्षा यह आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। इस दृष्टि से कुटुंब शिक्षा की योजना और क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है।  
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- आनंददायक से दु:खदायक की ओर  
 
- आनंददायक से दु:खदायक की ओर  
 
- श्रेष्ठ स्त्री और श्रेष्ठ पुरुष निर्माण के लिए  
 
- श्रेष्ठ स्त्री और श्रेष्ठ पुरुष निर्माण के लिए  
- सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर करणीय अकरणीय विवेक से विचार कैसे करना चाहिये
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- सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधार पर करणीय अकरणीय विवेक से विचार कैसे करना चाहिये
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
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