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सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर ' राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता ' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
 
सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर ' राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता ' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।
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सन १९८६ में एक उच्चस्तरीय शासकीय समिति ने विचार विमर्ष के बाद 'नॅशनल पॉलिसी ऑन एज्युकेशन' की एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। इस समिति की एक सदस्य, स्वतन्त्रता सेनानी रहीं डॉ. सुश्री उषाबहन मेहता से प्रस्तुत लेखक १९८९ में मिला था। मिलकर उन से इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर कुछ चर्चा हुई थी। चर्चा का सब से महत्वपूर्ण बिंदू ' राष्ट्र ' संकल्पना ही था। चर्चा कुछ निम्न प्रकार से हुई थी। मैंने पूछा,' इस पुस्तिका का शीर्षक ' नॅशनल पॉलिसी ऑन एज्युकेशन ' है। क्या इस का मतलब यह है कि 'भारत को एक श्रेष्ठ राष्ट्र बनाने के लिये इस शिक्षा नीति का निर्माण किया गया है?’
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भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुष्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है की राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
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ऊषाबहन का उत्तर हाँ में था।
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देष्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।
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मैंने कहा,' लेकिन आप ने इस पुस्तिका में 'राष्ट्र क्या होता है ? और राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाने का अर्थ क्या है? यह तो कहीं भी लिखा नहीं है। यह तो ऐसे हो गया कि कहाँ जाना है वह गन्तव्य तो तय किया नहीं है या अस्पष्ट है, और निकल पडे। इस से तो कहीं भी नहीं पहुंचा जा सकता।'
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पध्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पध्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णू विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटोंद्वारा साझी विरासत के आधारपर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।
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ऊषाबहन का कहना था कि 'राष्ट्र' की कल्पना तो सब को स्पष्ट है। मैंने कहा,' ना ही तो संविधान में यह स्पष्ट किया गया है। और ना ही सामान्य शिक्षा की किसी पुस्तक में यह स्पष्ट किया गया है। यहाँ तक कि सेना के अधिकारियों को भी वह किस 'राष्ट्र' कल्पना के लिये लड रहे है ? यह स्पष्ट नहीं है। कृपया मुझे बताएं कि 'राष्ट्र' की आप को और आप की समिति को जो मान्य है, ऐसी संकल्पना कहाँ प्राप्त हो सकेगी ? ऐसी कोई संकल्पना उपलब्ध नहीं थी।
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ऊषा बहन का कहना था कि 'आपका बिंदू पत्र के रूप में लिखकर भेजें । मैं इस विषय पर समिति में चर्चा कराऊंगी’ । किंतु यह अवसर ही नहीं आया। शासन बदलने के साथ ही वह समिति भंग कर दी गई।
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भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुष्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया।
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यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है की राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देष्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पध्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पध्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णू विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटोंद्वारा साझी विरासत के आधारपर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।
   
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
 
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
 
पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।
 
पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।
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सामाजिक अवरोध में वर्णाश्रम धर्म का विरोध यह प्रमुख उद्देश्य दिखाई देता है। वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज जीवन का ताना बाना था। इसको तोड़ने से पहले इसका अच्छी तरह भारतीय दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता थी। लेकिन अंग्रेजों के अन्धानुकरण के कारण हम इसे तोड़ने में लगे हैं। छोटे परिवारों ने कई नई सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। संयुक्त कुटुम्ब के दर्जनों लाभों से समाज वंचित हो गया है।  
 
सामाजिक अवरोध में वर्णाश्रम धर्म का विरोध यह प्रमुख उद्देश्य दिखाई देता है। वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज जीवन का ताना बाना था। इसको तोड़ने से पहले इसका अच्छी तरह भारतीय दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता थी। लेकिन अंग्रेजों के अन्धानुकरण के कारण हम इसे तोड़ने में लगे हैं। छोटे परिवारों ने कई नई सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। संयुक्त कुटुम्ब के दर्जनों लाभों से समाज वंचित हो गया है।  
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साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्त्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्त्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
 
साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्त्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्त्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
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जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिध्द हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिध्द होता है।  
 
जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिध्द हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिध्द होता है।  
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महाविद्यालयीन शिक्षा के क्षेत्र में तो लगभग १०० प्रतिशत पश्चिम का अंधानुकरण होता दिखाई देता है। हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहे भारत में समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि शास्त्र यह अत्यंत प्रगत अवस्था में थे। पाश्चात्य शास्त्रों का तो जन्म पिछले २५०-३०० वर्षों का है। इस लिये उन का अधूरा होना स्वाभाविक ही है। किंतु हमारी मानसिक और बौद्धिक दासता के कारण हम कालसिध्द भारतीय शास्त्रों का विचार छोड केवल पश्चिमी (अधूरी) ज्ञानधारा की शिक्षा को ही शिक्षा मान रहे है। वास्तव में स्वाधीनता के बाद पूरी शक्ति के साथ हमने अपने शास्त्रों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान करने की आवश्यकता थी। लेकिन इसका विचार आज ७० वर्ष के उपरांत भी होता दिखाई नहीं दे रहा। स्वाधीनता के बाद हमारे शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्धारक यूनेस्को से मार्गदर्शन लेनेवाले ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् ‘ में श्रध्दा रखने वाले राजकीय नेताओं से मार्गदर्शन लेकर शिक्षा के निर्माण में लगे हैं।
 
महाविद्यालयीन शिक्षा के क्षेत्र में तो लगभग १०० प्रतिशत पश्चिम का अंधानुकरण होता दिखाई देता है। हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहे भारत में समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि शास्त्र यह अत्यंत प्रगत अवस्था में थे। पाश्चात्य शास्त्रों का तो जन्म पिछले २५०-३०० वर्षों का है। इस लिये उन का अधूरा होना स्वाभाविक ही है। किंतु हमारी मानसिक और बौद्धिक दासता के कारण हम कालसिध्द भारतीय शास्त्रों का विचार छोड केवल पश्चिमी (अधूरी) ज्ञानधारा की शिक्षा को ही शिक्षा मान रहे है। वास्तव में स्वाधीनता के बाद पूरी शक्ति के साथ हमने अपने शास्त्रों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान करने की आवश्यकता थी। लेकिन इसका विचार आज ७० वर्ष के उपरांत भी होता दिखाई नहीं दे रहा। स्वाधीनता के बाद हमारे शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्धारक यूनेस्को से मार्गदर्शन लेनेवाले ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् ‘ में श्रध्दा रखने वाले राजकीय नेताओं से मार्गदर्शन लेकर शिक्षा के निर्माण में लगे हैं।
  
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