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मानव जीवन का लक्ष्य भी हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर निर्धारित किया है। ऐसे लक्ष्य को निर्धारित करने के निकष निम्न हो सकते है। वह लक्ष्य:  
 
मानव जीवन का लक्ष्य भी हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर निर्धारित किया है। ऐसे लक्ष्य को निर्धारित करने के निकष निम्न हो सकते है। वह लक्ष्य:  
 
# सामान्य मानव समझ सके ऐसा है।  
 
# सामान्य मानव समझ सके ऐसा है।  
# सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो। 3. सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो। 4. अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधारपर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो। 5. जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो। इन निकषों के आधारपर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है। - मैं सदासुखी रहूं - मैं अमर हो जाऊं - मैं सर्वज्ञानी बन जाऊं - मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं हो - मेरा नियंत्रण सभी पर चले यह पाँच बातें केवल परमात्मा के पास ही होतीं है इन की चाहत रखने का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति की चाहत रखना। अर्थात् ' मोक्ष ' की प्राप्ति की चाहत रखना। इसी को अलग अलग शब्दों में व्य्क्त किया जाता है। जैसे जन्म मृत्यू के बंधन से मुक्ति पाना, चराचर के साथ आत्मीयता की भावना का विकास (व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत विकास करना (पं. दीनदयालजी द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव की कल्पना), परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना (सात्म्य प्राप्त करना), अपने में अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण (स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा की व्याख्या) करना आदि।   जीवन के इस लक्ष्य को भारत का अनपढ से अनपढ ग्रामीण आदमी भी जानता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही जीता था। अपनी इच्छाओं (काम पुरुषार्थ) को और उन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु किये गये प्रयासों और साधनों को (अर्थ पुरूषार्थ) धर्म के अनुकूल रखते हुए त्रिवर्ग का पालन करते हुए, आप भी सुखी और समृध्द बनते हुए समाज को भी सुखी और समृध्द बनाते हुए मोक्ष की दिशा में बढता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले जैसे ॠषि-मुनि हुए, राजा-महाराजा हुए उसी प्रकार सामान्य मोची भी हुए, दर्जी भी हुए, वैष्य वाणी भी हुए, चोखा मेळा जैसे महार भी हुए। यह सब अपने जन्मजात गुणों के अनुसार अपने विहित स्वकर्म करते हुए, समाज के हित में योगदान देते हुए ही परमात्मपद को प्राप्त हुए थे। यह ऐसा लक्ष्य है कि जिसे प्राप्त करने के बाद प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसी लिये शिक्षा की व्याख्या की गई थी - सा विद्या या विमुक्तये । मुक्ति दिलाने के लिये शिक्षा होती है। अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य भी चराचर से एकात्मता की भावना का विकास ही है। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के कारण ' सर्वे भवन्तु सुखिन: ' के अनुरूप और अनुकूल व्यवहार होता है। और समाज के सभी लोग जब ऐसा व्यवहार करते है तब सभी के सुखी बनने की स्थिति निर्माण होती है। इस से श्रेष्ठ लक्ष्य और क्या हो सकता है ?  
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# सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो।  
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# सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो।  
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# अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधारपर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो।  
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# जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो।  
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इन निकषों के आधारपर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है:
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* मैं सदासुखी रहूं
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* मैं अमर हो जाऊं
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* मैं सर्वज्ञानी बन जाऊं
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* मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं हो
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* मेरा नियंत्रण सभी पर चले
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यह पाँच बातें केवल परमात्मा के पास ही होतीं है इन की चाहत रखने का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति की चाहत रखना। अर्थात् 'मोक्ष' की प्राप्ति की चाहत रखना। इसी को अलग अलग शब्दों में व्य्क्त किया जाता है। जैसे जन्म मृत्यू के बंधन से मुक्ति पाना, चराचर के साथ आत्मीयता की भावना का विकास (व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत विकास करना (पं. दीनदयालजी द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव की कल्पना), परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना (सात्म्य प्राप्त करना), अपने में अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण (स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा की व्याख्या) करना आदि।  
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जीवन के इस लक्ष्य को भारत का अनपढ से अनपढ ग्रामीण आदमी भी जानता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही जीता था। अपनी इच्छाओं (काम पुरुषार्थ) को और उन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु किये गये प्रयासों और साधनों को (अर्थ पुरूषार्थ) धर्म के अनुकूल रखते हुए त्रिवर्ग का पालन करते हुए, आप भी सुखी और समृध्द बनते हुए समाज को भी सुखी और समृध्द बनाते हुए मोक्ष की दिशा में बढता था।  
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इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले जैसे ॠषि-मुनि हुए, राजा-महाराजा हुए उसी प्रकार सामान्य मोची भी हुए, दर्जी भी हुए, वैष्य वाणी भी हुए, चोखा मेळा जैसे महार भी हुए। यह सब अपने जन्मजात गुणों के अनुसार अपने विहित स्वकर्म करते हुए, समाज के हित में योगदान देते हुए ही परमात्मपद को प्राप्त हुए थे।  
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यह ऐसा लक्ष्य है कि जिसे प्राप्त करने के बाद प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता।  
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इसी लिये शिक्षा की व्याख्या की गई थी - सा विद्या या विमुक्तये। मुक्ति दिलाने के लिये शिक्षा होती है। अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य भी चराचर से एकात्मता की भावना का विकास ही है। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के कारण 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' के अनुरूप और अनुकूल व्यवहार होता है। और समाज के सभी लोग जब ऐसा व्यवहार करते है तब सभी के सुखी बनने की स्थिति निर्माण होती है। इस से श्रेष्ठ लक्ष्य और क्या हो सकता है ?
    
== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
 
== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
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