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=== अभारतीय जीवनदृष्टि के वर्तनसूत्र ===
 
=== अभारतीय जीवनदृष्टि के वर्तनसूत्र ===
# बलवान को ही जीने का अधिकार है। ( सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट )। दुर्बल बलवान जैसा और जितना चाहेगा, वैसा और उतना ही जियेगा। 'स्वार्थ' भावना से ही इस वर्तनसूत्र का जन्म हुआ है। दुर्बल किसी को तकलीफ नहीं दे सकता। इस लिये स्वार्थ की होड में दुर्बल को कोई स्थान नहीं है। बलवान को जितना चाहिये और जैसा चाहिए उतना ही दुर्बल जिएगा। इस सूत्र से और दो सूत्र तैयार होते है।
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# बलवान को ही जीने का अधिकार है। ( सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट )। दुर्बल बलवान जैसा और जितना चाहेगा, वैसा और उतना ही जियेगा। 'स्वार्थ' भावना से ही इस वर्तनसूत्र का जन्म हुआ है। दुर्बल किसी को तकलीफ नहीं दे सकता। इस लिये स्वार्थ की होड में दुर्बल को कोई स्थान नहीं है। बलवान को जितना चाहिये और जैसा चाहिए उतना ही दुर्बल जिएगा। इस सूत्र से और दो सूत्र तैयार होते है
१.१  दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)। स्त्री, प्रकृति या पर्यावरण, अन्य पुरूष, अन्य समाज,  अन्य देश, सारी दुनिया इन से मैं यदि बलवान हूं तो इन का शोषण करना मेरा अधिकार है।
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## दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)। स्त्री, प्रकृति या पर्यावरण, अन्य पुरूष, अन्य समाज,  अन्य देश, सारी दुनिया इन से मैं यदि बलवान हूं तो इन का शोषण करना मेरा अधिकार है।
१.२  अमर्याद व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनलिमिटेड इंडिविज्युअल लिबर्टि)। बलवान अपना स्वार्थ साध सके इस लिये अमर्याद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आवश्यक है।
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## अमर्याद व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनलिमिटेड इंडिविज्युअल लिबर्टि)। बलवान अपना स्वार्थ साध सके इस लिये अमर्याद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आवश्यक है।
२. जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगों से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगों से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।  
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# जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगों से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगों से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
३. अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
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# अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
४. भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग)* सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा शुरू हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना।  
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# भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग)* सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा शुरू हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।
भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था ' यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता '। यांत्रिकतावादी विचार। (मेकॅनिस्टिक थिंकिंग)। यांत्रिक (मेकेनिस्टिक) दृष्टि भी इसी का हिस्सा है। जिस प्रकार पुर्जों का काम और गुण लक्षण समझने से एक यंत्र का काम समझा जा सकता है, उसी प्रकार से छोटे छोटे टुकडों में विषय को बाँटकर अध्ययन करने से उस विषय को समझा जा सकता है। इस पर व्यंग्य से ऐसा भी कहा जा सकता है कि ' टु नो मोर एँड मोर अबाऊट स्मॉलर एँड स्मॉलर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग ’।
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# यांत्रिकतावादी विचार। (मेकॅनिस्टिक थिंकिंग)। यांत्रिक (मेकेनिस्टिक) दृष्टि भी इसी का हिस्सा है। जिस प्रकार पुर्जों का काम और गुण लक्षण समझने से एक यंत्र का काम समझा जा सकता है, उसी प्रकार से छोटे छोटे टुकडों में विषय को बाँटकर अध्ययन करने से उस विषय को समझा जा सकता है। इस पर व्यंग्य से ऐसा भी कहा जा सकता है कि ' टु नो मोर एँड मोर अबाऊट स्मॉलर एँड स्मॉलर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग’ (To know more and more about smaller and smaller things till you know everything about nothing. )।
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# इहवादिता। (धिस इज द ओन्ली लाईफ)। मानव जन्म एक बार ही मिलता है। इस के न आगे कोई जन्म है न पीछे कोई था, ऐसी मानसिकता। इस लिये उपभोगवाद का समर्थन।
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पूरे यूरोप के सभी देशों का इतिहास साक्षी है की उनका व्यवहार इन्हीं वर्तनसूत्रों के अनुरूप होता रह है। १८ वीं और १९ वीं सदी में दुनिया के लगभग सभी देशों पर यूरोप के किसी देश का आधिपत्य था। इन में इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल, इटली आदि जो भी विभिन्न देश शासक थे उन में अपवाद के लिये भी एक भी समाज ऐसा नहीं है जिसने अपने औपनिवेशिक देशों की जनता पर अनन्वित अत्याचार नहीं किये, जनता के कत्ले आम नहीं किये, अपने उपनिवेशों को लूटकर नंगा नहीं कर दिया। अमरिका में 'रेड इंडियन' आज केवल प्रदर्शनी की वस्तु बन गये है। ऑस्ट्रेलिया की तो मूल जनता का १०० प्रतिशत कत्ले आम किया गया। भारत में अंग्रेजों ने किये अत्याचार हम जानते है। भारत की सन १७५७ से १९४७ तक अंग्रेजों ने की हुई लूट को हम जानते है। भारत की जनसंख्या बहुत अधिक और भारत का प्रतिकार अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक होने से अंग्रेज भारत में कत्ले आम कम ही कर सके।
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५. इहवादिता। (धिस इज द ओन्ली लाईफ)। मानव जन्म एक बार ही मिलता है। इस के न आगे कोई जन्म है न पीछे कोई था, ऐसी मानसिकता। इस लिये उपभोगवाद का समर्थन।
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इन वर्तनसूत्रों के अनुसार पश्चिमी व्यवहार अब नहीं होता ऐसा भी नहीं है। केवल तरीके बदल गये है। जो वर्तन पाश्चात्य देश दूसरे महायुध्द से पहले कर रहे थे वही काम वे अब भी कर रहे है। विश्व कोष, आंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन आदि के माध्यम से दुर्बल देशों की लूट का ही प्रयास यह देश करते दिखाई दे रहे है।
 
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पूरे यूरोप के सभी देशों का इतिहास साक्षी है की उनका व्यवहार इन्हीं वर्तनसूत्रों के अनुरूप होता रह है। १८ वीं और १९ वीं सदी में दुनिया के लगभग सभी देशों पर यूरोप के किसी देश का आधिपत्य था। इन में इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल, इटली आदि जो भी विभिन्न देश शासक थे उन में अपवाद के लिये भी एक भी समाज ऐसा नहीं है जिसने अपने औपनिवेशिक देशों की जनता पर अनन्वित अत्याचार नहीं किये, जनता के कत्ले आम नहीं किये, अपने उपनिवेशों को लूटकर नंगा नहीं कर दिया। अमरिका में ' रेड इंडियन ' आज केवल प्रदर्शनी की वस्तु बन गये है। ऑस्ट्रेलिया की तो मूल जनता का १०० प्रतिशत कत्ले आम किया गया। भारत में अंग्रेजों ने किये अत्याचार हम जानते है। भारत की सन १७५७ से १९४७ तक अंग्रेजों ने की हुई लूट को हम जानते है। भारत की जनसंख्या बहुत अधिक और भारत का प्रतिकार अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक होने से अंग्रेज भारत में कत्ले आम कम ही कर सके।
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इन वर्तनसूत्रों के अनुसार पश्चिमी व्यवहार अब नहीं होता ऐसा भी नहीं है। केवल तरीके बदल गये है। जो वर्तन पाश्चात्य देश दूसरे महायुध्द से पहले कर रहे थे वही काम वे अब भी कर रहे है। विश्व कोष, आंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन आदि के माध्यम से दुर्बल देशों की लूट का ही प्रयास यह देश करते दिखाई दे रहे है।
   
इसलिये पश्चिमी जीवनदृष्टि से पिण्ड छुडा कर अन्य किसी श्रेष्ठ जीवनदृष्टि का स्वीकार करना यह वैश्विक आवश्यकता है। यह जीवनदृष्टि भारतीय ही होगी। इसे व्यवहार में लाने का माध्यम/साधन शिक्षा है।
 
इसलिये पश्चिमी जीवनदृष्टि से पिण्ड छुडा कर अन्य किसी श्रेष्ठ जीवनदृष्टि का स्वीकार करना यह वैश्विक आवश्यकता है। यह जीवनदृष्टि भारतीय ही होगी। इसे व्यवहार में लाने का माध्यम/साधन शिक्षा है।
    
== पाठयक्रम निर्माण प्रक्रिया ==
 
== पाठयक्रम निर्माण प्रक्रिया ==
पाठयक्रम का निर्माण और विविध विषयों की विषयवस्तु का निर्माण करने का आधार जिस समाज के लिये इन का निर्माण किया जा रहा है, उस की जीवनदृष्टि, उस की मान्यताएं आदि होते है। यह जीवनदृष्टि और मान्यताएं उस समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य के अनुसार उस समाज की जीवनदृष्टि और मान्यताएं विकसित होतीं है। इस प्रकार से सर्वप्रथम समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य को सर्वप्रथम समझना, इस लक्ष्य के कारण विकसित हुई जीवनदृष्टि को समझना, जीवनदृष्टि के आधारपर पाठयक्रम निर्माण का उद्देष्य तय करना, इस उद्देष्य की पूर्ति के लिये आयु की अवस्था के अनुसार पाठयक्रम निर्माण के मार्गदर्शक सूत्र, इन सूत्रों के आधारपर समाज जीवन से जुडे विभिन्न आवश्यक विषयों का निर्धारण और फिर जीवनदृष्टि के अनुरूप उन विषयों की विषयवस्तूओं का निर्माण, ऐसी यह प्रक्रिया चलती है।
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पाठयक्रम का निर्माण और विविध विषयों की विषयवस्तु का निर्माण करने का आधार जिस समाज के लिये इन का निर्माण किया जा रहा है, उस की जीवनदृष्टि, उस की मान्यताएं आदि होते है। यह जीवनदृष्टि और मान्यताएं उस समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य के अनुसार उस समाज की जीवनदृष्टि और मान्यताएं विकसित होतीं है। इस प्रकार से सर्वप्रथम समाज के सामुहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य को सर्वप्रथम समझना, इस लक्ष्य के कारण विकसित हुई जीवनदृष्टि को समझना, जीवनदृष्टि के आधारपर पाठयक्रम निर्माण का उद्देष्य तय करना, इस उद्देष्य की पूर्ति के लिये आयु की अवस्था के अनुसार पाठयक्रम निर्माण के मार्गदर्शक सूत्र, इन सूत्रों के आधारपर समाज जीवन से जुडे विभिन्न आवश्यक विषयों का निर्धारण और फिर जीवनदृष्टि के अनुरूप उन विषयों की विषयवस्तूओं का निर्माण, ऐसी यह प्रक्रिया चलती है।  
पाठयक्रमों में भिन्नता  
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हर मानव समाज की जीने की कुछ आधारभूत मान्यताएं होतीं है। इन मान्यताओं के अनुसार ही उस समाज का जीने का तरीका निर्धारित होता है। इन मान्यताओं को ' जीवनदृष्टि ' और जीने के तरीके को ' जीवनशैली ' कहा जाता है। एक समाज की जीवनदृष्टि में और दूसरे समाज की जीवनदृष्टि में कुछ मूलगत भिन्नता होती है। इसी प्रकार से एक समाज की जीवनशैली दूसरे समाज की जीवनशैली से भिन्न होती है। इन भिन्नताओं के कारण ही उस समाज की 'पहचान’ बनती है। जैसे युरोप के दो देश लें। एक देश में, इंग्लैंड में भोजन के उपरांत थाली में अन्न छूट गया हो तो यह माना जाता है की भोजन करने वाले को भोजन पसंद  नहीं आया। और दूसरे देश में, फ्रांस में भोजन के उपरांत थाली में अन्न नहीं छोडने पर यह समझा जाता है कि खाने वाले को भोजन पसंद नहीं आया।  
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=== पाठयक्रमों में भिन्नता ===
तात्पर्य यह है की हर समाज की मान्यताओं में भिन्नता होती है । इन मान्यताओं के आधारपर वह समाज व्यवहार करे ऐसी अपेक्षा की जाती है। ऐसा व्यवहार व्यक्ति कर सके इस के लिये अनुकूल और अनुरूप व्यवस्थाएं निर्माण की जातीं है। ऐसा करने से समाज का जीवन सुचारू रूप से चलता है।
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हर मानव समाज की जीने की कुछ आधारभूत मान्यताएं होतीं है। इन मान्यताओं के अनुसार ही उस समाज का जीने का तरीका निर्धारित होता है। इन मान्यताओं को 'जीवनदृष्टि' और जीने के तरीके को 'जीवनशैली' कहा जाता है। एक समाज की जीवनदृष्टि में और दूसरे समाज की जीवनदृष्टि में कुछ मूलगत भिन्नता होती है। इसी प्रकार से एक समाज की जीवनशैली दूसरे समाज की जीवनशैली से भिन्न होती है। इन भिन्नताओं के कारण ही उस समाज की 'पहचान’ बनती है। जैसे युरोप के दो देश लें। एक देश में, इंग्लैंड में भोजन के उपरांत थाली में अन्न छूट गया हो तो यह माना जाता है की भोजन करने वाले को भोजन पसंद  नहीं आया। और दूसरे देश में, फ्रांस में भोजन के उपरांत थाली में अन्न नहीं छोडने पर यह समझा जाता है कि खाने वाले को भोजन पसंद नहीं आया।  
यह प्रक्रिया दुनिया भर के सभी देशों को लागू है।  
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आजकल व्हॅल्यू एज्युकेशन का बोलबाला है। दुनियाभर के लोग आज अनेकों भीषण समस्याओं से जूझ रहे है। महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है। बेरोजगारी के कारण युवक वर्ग गुनहगारी की दिशा में खींचा जा रहा है। पर्यावरण के संरक्षण की बातें तो हो रही है फिर भी हवा, पानी और जमीन का प्रदूषण बढता ही जा रहा है। प्लॅस्टिक के कचरे के अंबार लग रहे है। आण्विक कचरे और आण्विक विकीरणों के कारण नयी पीढी में जन्मगत विकृतियाँ आ रही है। कार्य के घण्टे बढ रहे है और जीना कम हो रहा है। युवकों को आयु से पूर्व ही बुढापा घेर रहा है। निराधार महिलाओं के लिये महिलाश्रम, वृध्दाश्रम, अनाथाश्रम बढ रहे है। उच्च शिक्षा विभूषित युवक अपने माता पिताओं को वृध्दाश्रमों मे धकेल रहे है। इसीलिये युनेस्को की पहल से सभी देशों में व्हॅल्यू एज्युकेशन (मूल्यशिक्षा) का विचार किया जा रहा है। भारत में भी हो रहा है। अंग्रेज भारत में आए तब भारत अपने पतन के निम्नतम स्तरपर था। फिर भी सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता ब्रिटिश पाद्री से श्रेष्ठ पाई गई थी, इसीलिये १७९२ की चार्टर डिबेट में चर्चा के बाद, भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पाद्री भेजने की योजना को रोक दिया गया था। जीवनमूल्यों की शिक्षा का विचार भारत में प्राचीन काल से अंग्रेज पूर्व काल तक की शिक्षा के इतिहास में कभी भी ऐसा अलग से किया नहीं किया गया था। किंतु अब विदेशी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में यह हो रहा है।
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तात्पर्य यह है कि हर समाज की मान्यताओं में भिन्नता होती है । इन मान्यताओं के आधार पर वह समाज व्यवहार करे ऐसी अपेक्षा की जाती है। ऐसा व्यवहार व्यक्ति कर सके इस के लिये अनुकूल और अनुरूप व्यवस्थाएं निर्माण की जातीं है। ऐसा करने से समाज का जीवन सुचारू रूप से चलता है।  
वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  
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एक अखिल भारतीय शैक्षिक संगठन ने जीवनमूल्यों की शिक्षा की दृष्टि से तथाकथित सैंकड़ों जीवनमूल्यों की सूचि बनाई। उन के ध्यान में आया कि इन सैंकड़ों जीवनमूल्यों को शिक्षा में  ढालना अत्यंत अव्यावहारिक है। उन का सारा परिश्रम व्यर्थ गया। महाराष्ट्र की युती सरकार का भी अनुभव कुछ ऐसा ही था। व्यावहारि दृष्टि से प्राथमिकता के क्रम से केवल दस जीवनमूल्यों का चयन हो पाया। इन मूल्यों के महत्त्वक्रम के अनुसार चयनित दस जीवनमूल्यों में ‘सत्यनिष्ठा’ इस मूल्य का समावेश नहीं हो पाया।  
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यह प्रक्रिया दुनिया भर के सभी देशों को लागू है। आजकल व्हॅल्यू एज्युकेशन का बोलबाला है। दुनियाभर के लोग आज अनेकों भीषण समस्याओं से जूझ रहे है। महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है। बेरोजगारी के कारण युवक वर्ग गुनहगारी की दिशा में खींचा जा रहा है। पर्यावरण के संरक्षण की बातें तो हो रही है फिर भी हवा, पानी और जमीन का प्रदूषण बढता ही जा रहा है। प्लॅस्टिक के कचरे के अंबार लग रहे है। आण्विक कचरे और आण्विक विकीरणों के कारण नयी पीढी में जन्मगत विकृतियाँ आ रही है। कार्य के घण्टे बढ रहे है और जीना कम हो रहा है। युवकों को आयु से पूर्व ही बुढापा घेर रहा है। निराधार महिलाओं के लिये महिलाश्रम, वृध्दाश्रम, अनाथाश्रम बढ रहे है। उच्च शिक्षा विभूषित युवक अपने माता पिताओं को वृध्दाश्रमों मे धकेल रहे है। इसीलिये युनेस्को की पहल से सभी देशों में व्हॅल्यू एज्युकेशन (मूल्यशिक्षा) का विचार किया जा रहा है। भारत में भी हो रहा है। अंग्रेज भारत में आए तब भारत अपने पतन के निम्नतम स्तरपर था। फिर भी सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता ब्रिटिश पाद्री से श्रेष्ठ पाई गई थी, इसीलिये १७९२ की चार्टर डिबेट में चर्चा के बाद, भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पाद्री भेजने की योजना को रोक दिया गया था। जीवनमूल्यों की शिक्षा का विचार भारत में प्राचीन काल से अंग्रेज पूर्व काल तक की शिक्षा के इतिहास में कभी भी ऐसा अलग से किया नहीं किया गया था। किंतु अब विदेशी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में यह हो रहा है।  
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वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  
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एक अखिल भारतीय शैक्षिक संगठन ने जीवनमूल्यों की शिक्षा की दृष्टि से तथाकथित सैंकड़ों जीवनमूल्यों की सूचि बनाई। उन के ध्यान में आया कि इन सैंकड़ों जीवनमूल्यों को शिक्षा में  ढालना अत्यंत अव्यावहारिक है। उन का सारा परिश्रम व्यर्थ गया। महाराष्ट्र की युती सरकार का भी अनुभव कुछ ऐसा ही था। व्यावहारि दृष्टि से प्राथमिकता के क्रम से केवल दस जीवनमूल्यों का चयन हो पाया। इन मूल्यों के महत्त्वक्रम के अनुसार चयनित दस जीवनमूल्यों में ‘सत्यनिष्ठा’ इस मूल्य का समावेश नहीं हो पाया।  
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मूल्य और जीवनदृष्टि में अन्तर होता है। मूल्य शब्द जीवन की किसी भौतिक वस्तू के लिए लागू होता है। जीवनदृष्टि शब्द भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साम्पत्तिक, राजकीय ऐसे जीवन के सभी पहलुओं को लागू होता है। जीवन में सामने आई एक ही वस्तू का मूल्य हर मनुष्य अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार तय करता है। सोने के सिक्के का मूल्य गृहस्थ की दृष्टि में अनमोल है। उसी सोने के सिक्के का मूल्य बैरागी के लिये संन्यासी के लिये मिट्टि से बढकर नहीं है। दोनों में अन्तर दृष्टि का ही होता है। भारत शांति से जीना चाहता है। पाकिस्तान भी शांति से जीना चाहता है। किंतु पाकिस्तान के शांति के अर्थ और भारत के शांति के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। यह इन दोनों देशों के समाजों की जीवनदृष्टि के अनुसार है। इस जीवनदृष्टि के अन्तर के कारण पाठयक्रमों में और उन की विषय वस्तुओं में भिन्नता होना अपरिहार्य होता है।  
 
मूल्य और जीवनदृष्टि में अन्तर होता है। मूल्य शब्द जीवन की किसी भौतिक वस्तू के लिए लागू होता है। जीवनदृष्टि शब्द भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साम्पत्तिक, राजकीय ऐसे जीवन के सभी पहलुओं को लागू होता है। जीवन में सामने आई एक ही वस्तू का मूल्य हर मनुष्य अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार तय करता है। सोने के सिक्के का मूल्य गृहस्थ की दृष्टि में अनमोल है। उसी सोने के सिक्के का मूल्य बैरागी के लिये संन्यासी के लिये मिट्टि से बढकर नहीं है। दोनों में अन्तर दृष्टि का ही होता है। भारत शांति से जीना चाहता है। पाकिस्तान भी शांति से जीना चाहता है। किंतु पाकिस्तान के शांति के अर्थ और भारत के शांति के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। यह इन दोनों देशों के समाजों की जीवनदृष्टि के अनुसार है। इस जीवनदृष्टि के अन्तर के कारण पाठयक्रमों में और उन की विषय वस्तुओं में भिन्नता होना अपरिहार्य होता है।  
    
== विषयों की नहीं जीवन की शिक्षा ==
 
== विषयों की नहीं जीवन की शिक्षा ==
१५ वर्षतक की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा विषयों की नहीं होती। जीवन की होती है। समग्रता की होती है। एकात्मता की होती है। विषयों को टुकड़ों में बांटकर शिक्षा नहीं होती थी। जीवन जीने के लिए और बालक के ज्ञानार्जन के करणों के विकास के लिए, आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा में जितने गणित की आवश्यकता है उतना गणित आएगा, जितना इतिहास आना चाहिये इतिहास आएगा, जितना विज्ञान आना चाहिये विज्ञान आएगा, जितना भाषाज्ञान आना चाहिये भाषाज्ञान आएगा। याने जिस जिस विषय का जितना जितना ज्ञान आवश्यक है उतना आएगा। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यांत्रिकता है। शिक्षा को विषयों के अनुसार समय खण्डों में बांटा जाता है। बालक का मन को कोई बिजली के खटके जैसी कल लगी नहीं होती की एक विषय की कल को बंद किया और दूसरे विषय की कल दबा दी। शिक्षा की कहीं से भी किसी भी वस्तु या विचार को लेकर शुरुआत होगी। परस्पर सम्बद्ध विचारों के माध्यम से शिक्षा की यात्रा अन्यान्य विषयों का ज्ञान प्रकट करती हुई आगे बढ़ेगी। ऐसा कौशल्य रखने के लिए शिक्षक का प्रतिभाशाली होना आवश्यक होगा। तब ही तो समाज में वह सर्वोच्च सम्मान का पात्र होगा।  
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१५ वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा विषयों की नहीं होती। जीवन की होती है। समग्रता की होती है। एकात्मता की होती है। विषयों को टुकड़ों में बांटकर शिक्षा नहीं होती थी। जीवन जीने के लिए और बालक के ज्ञानार्जन के करणों के विकास के लिए, आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा में जितने गणित की आवश्यकता है उतना गणित आएगा, जितना इतिहास आना चाहिये इतिहास आएगा, जितना विज्ञान आना चाहिये विज्ञान आएगा, जितना भाषाज्ञान आना चाहिये भाषाज्ञान आएगा। याने जिस जिस विषय का जितना जितना ज्ञान आवश्यक है उतना आएगा। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यांत्रिकता है। शिक्षा को विषयों के अनुसार समय खण्डों में बांटा जाता है। बालक का मन को कोई बिजली के खटके जैसी कल लगी नहीं होती की एक विषय की कल को बंद किया और दूसरे विषय की कल दबा दी। शिक्षा की कहीं से भी किसी भी वस्तु या विचार को लेकर शुरुआत होगी। परस्पर सम्बद्ध विचारों के माध्यम से शिक्षा की यात्रा अन्यान्य विषयों का ज्ञान प्रकट करती हुई आगे बढ़ेगी। ऐसा कौशल्य रखने के लिए शिक्षक का प्रतिभाशाली होना आवश्यक होगा। तब ही तो समाज में वह सर्वोच्च सम्मान का पात्र होगा।
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१६ वर्ष से आगे की आयु में जब जीवन का समग्रता से विचार करने की नींव डल गयी है, किसी विशेष विषय के अध्ययन की शिक्षा चलेगी।  
 
१६ वर्ष से आगे की आयु में जब जीवन का समग्रता से विचार करने की नींव डल गयी है, किसी विशेष विषय के अध्ययन की शिक्षा चलेगी।  
    
== भारतीय दृष्टि में समाज का और व्यक्ति जीवन का लक्ष्य ==
 
== भारतीय दृष्टि में समाज का और व्यक्ति जीवन का लक्ष्य ==
किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामुहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।
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किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामुहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।  
भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।
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व्यक्ति के स्तरपर इस लक्ष्य को ‘मोक्ष’ कहते हैं। सामाजिक स्तरपर यह लक्ष्य ‘स्वतंत्रता” होता है। और सृष्टी के स्तरपर यह लक्ष्य ‘धर्माचरण’ का होता है।  
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भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।  
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व्यक्ति के स्तर पर इस लक्ष्य को ‘मोक्ष’ कहते हैं। सामाजिक स्तर पर यह लक्ष्य ‘स्वतंत्रता” होता है। और सृष्टी के स्तर पर यह लक्ष्य ‘धर्माचरण’ का होता है।  
    
== भारतीय दृष्टि से शिक्षा के लक्ष्य की विशेषताएं ==
 
== भारतीय दृष्टि से शिक्षा के लक्ष्य की विशेषताएं ==
 
भारतीय मनीषियों ने इस विषय पर गहराई से चिंतन किया है। उन्होंने यह भी जाना था की मानव जीवन का लक्ष्य और शिक्षा का लक्ष्य भिन्न नहीं हो सकता। मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण मानव ने किया है।  
 
भारतीय मनीषियों ने इस विषय पर गहराई से चिंतन किया है। उन्होंने यह भी जाना था की मानव जीवन का लक्ष्य और शिक्षा का लक्ष्य भिन्न नहीं हो सकता। मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण मानव ने किया है।  
मानव जीवन का लक्ष्य भी हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर निर्धारित किया है। ऐसे लक्ष्य को निर्धारित करने के निकष निम्न हो सकते है। वह लक्ष्य -
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1. सामान्य मानव समझ सके ऐसा है।
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मानव जीवन का लक्ष्य भी हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर निर्धारित किया है। ऐसे लक्ष्य को निर्धारित करने के निकष निम्न हो सकते है। वह लक्ष्य:
2. सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो।
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# सामान्य मानव समझ सके ऐसा है।  
3. सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो।
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# सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो। 3. सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो। 4. अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधारपर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो। 5. जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो। इन निकषों के आधारपर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है। - मैं सदासुखी रहूं - मैं अमर हो जाऊं - मैं सर्वज्ञानी बन जाऊं - मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं हो - मेरा नियंत्रण सभी पर चले यह पाँच बातें केवल परमात्मा के पास ही होतीं है इन की चाहत रखने का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति की चाहत रखना। अर्थात् ' मोक्ष ' की प्राप्ति की चाहत रखना। इसी को अलग अलग शब्दों में व्य्क्त किया जाता है। जैसे जन्म मृत्यू के बंधन से मुक्ति पाना, चराचर के साथ आत्मीयता की भावना का विकास (व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत विकास करना (पं. दीनदयालजी द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव की कल्पना), परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना (सात्म्य प्राप्त करना), अपने में अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण (स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा की व्याख्या) करना आदि।   जीवन के इस लक्ष्य को भारत का अनपढ से अनपढ ग्रामीण आदमी भी जानता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही जीता था। अपनी इच्छाओं (काम पुरुषार्थ) को और उन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु किये गये प्रयासों और साधनों को (अर्थ पुरूषार्थ) धर्म के अनुकूल रखते हुए त्रिवर्ग का पालन करते हुए, आप भी सुखी और समृध्द बनते हुए समाज को भी सुखी और समृध्द बनाते हुए मोक्ष की दिशा में बढता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले जैसे ॠषि-मुनि हुए, राजा-महाराजा हुए उसी प्रकार सामान्य मोची भी हुए, दर्जी भी हुए, वैष्य वाणी भी हुए, चोखा मेळा जैसे महार भी हुए। यह सब अपने जन्मजात गुणों के अनुसार अपने विहित स्वकर्म करते हुए, समाज के हित में योगदान देते हुए ही परमात्मपद को प्राप्त हुए थे। यह ऐसा लक्ष्य है कि जिसे प्राप्त करने के बाद प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसी लिये शिक्षा की व्याख्या की गई थी - सा विद्या या विमुक्तये । मुक्ति दिलाने के लिये शिक्षा होती है। अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य भी चराचर से एकात्मता की भावना का विकास ही है। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के कारण ' सर्वे भवन्तु सुखिन: ' के अनुरूप और अनुकूल व्यवहार होता है। और समाज के सभी लोग जब ऐसा व्यवहार करते है तब सभी के सुखी बनने की स्थिति निर्माण होती है। इस से श्रेष्ठ लक्ष्य और क्या हो सकता है ?  
4. अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधारपर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो।
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5. जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो।
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इन निकषों के आधारपर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे।
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विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है।
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- मैं सदासुखी रहूं - मैं अमर हो जाऊं - मैं सर्वज्ञानी बन जाऊं
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- मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं हो - मेरा नियंत्रण सभी पर चले
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यह पाँच बातें केवल परमात्मा के पास ही होतीं है इन की चाहत रखने का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति की चाहत रखना। अर्थात् ' मोक्ष ' की प्राप्ति की चाहत रखना। इसी को अलग अलग शब्दों में व्य्क्त किया जाता है। जैसे जन्म मृत्यू के बंधन से मुक्ति पाना, चराचर के साथ आत्मीयता की भावना का विकास (व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत विकास करना (पं. दीनदयालजी द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव की कल्पना), परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना (सात्म्य प्राप्त करना), अपने में अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण (स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा की व्याख्या) करना आदि।
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जीवन के इस लक्ष्य को भारत का अनपढ से अनपढ ग्रामीण आदमी भी जानता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही जीता था। अपनी इच्छाओं (काम पुरुषार्थ) को और उन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु किये गये प्रयासों और साधनों को (अर्थ पुरूषार्थ) धर्म के अनुकूल रखते हुए त्रिवर्ग का पालन करते हुए, आप भी सुखी और समृध्द बनते हुए समाज को भी सुखी और समृध्द बनाते हुए मोक्ष की दिशा में बढता था।
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इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले जैसे ॠषि-मुनि हुए, राजा-महाराजा हुए उसी प्रकार सामान्य मोची भी हुए, दर्जी भी हुए, वैष्य वाणी भी हुए, चोखा मेळा जैसे महार भी हुए। यह सब अपने जन्मजात गुणों के अनुसार अपने विहित स्वकर्म करते हुए, समाज के हित में योगदान देते हुए ही परमात्मपद को प्राप्त हुए थे। यह ऐसा लक्ष्य है कि जिसे प्राप्त करने के बाद प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता।  
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इसी लिये शिक्षा की व्याख्या की गई थी - सा विद्या या विमुक्तये । मुक्ति दिलाने के लिये शिक्षा होती है। अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य भी चराचर से एकात्मता की भावना का विकास ही है। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के कारण ' सर्वे भवन्तु सुखिन: ' के अनुरूप और अनुकूल व्यवहार होता है। और समाज के सभी लोग जब ऐसा व्यवहार करते है तब सभी के सुखी बनने की स्थिति निर्माण होती है। इस से श्रेष्ठ लक्ष्य और क्या हो सकता है ?  
      
== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
 
== वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य ==
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