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भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही आरम्भ हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
 
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही आरम्भ हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। फिर भी इस विषय पर लोगों को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। फिर भी इस विषय पर लोगोंं को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
    
नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। फिर भी अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
 
नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। फिर भी अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
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गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी लिखते है<ref>धर्मपालजी, भारतीय परंपरा (पुनरूत्थान ट्रस्ट द्वारा अनुवादित और प्रकाशित) पृष्ठ 14</ref>:
 
गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी लिखते है<ref>धर्मपालजी, भारतीय परंपरा (पुनरूत्थान ट्रस्ट द्वारा अनुवादित और प्रकाशित) पृष्ठ 14</ref>:
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यूरोपीय शिक्षा प्राप्त लोगों के विचार, मानस, व्यवहार, दृष्टिकोण सभी कुछ बदलने लगा। हमें गुलामी रास आने लग गई। दैन्य अखरना बंद हो गया। अंग्रेजों के दास बनने में ही हमें गौरव अनुभव होने लगा। जो भी यूरोपीय है वह विकसित है, श्रेष्ठ है और जो भी अपना है वह निकृष्ट है, हीन है, लज्जास्पद है, गया बीता है ऐसा हमें लगने लगा। यूरोपीय या यूरोप जैसा बनना ही हमारी आकांक्षा बन गई। भौतिक प्रगति की पश्चिमी चकाचौंध ने हमें भ्रम में डाल दिया है। हम पश्चिम की तन्त्रज्ञान में श्रेष्ठता को ही सबकुछ समझ बैठे हैं। इस लिये पश्चिमी तन्त्रज्ञान के साथ उन की जीवनदृष्टि को भी आत्मसात करते जा रहे हैं।  
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यूरोपीय शिक्षा प्राप्त लोगोंं के विचार, मानस, व्यवहार, दृष्टिकोण सभी कुछ बदलने लगा। हमें गुलामी रास आने लग गई। दैन्य अखरना बंद हो गया। अंग्रेजों के दास बनने में ही हमें गौरव अनुभव होने लगा। जो भी यूरोपीय है वह विकसित है, श्रेष्ठ है और जो भी अपना है वह निकृष्ट है, हीन है, लज्जास्पद है, गया बीता है ऐसा हमें लगने लगा। यूरोपीय या यूरोप जैसा बनना ही हमारी आकांक्षा बन गई। भौतिक प्रगति की पश्चिमी चकाचौंध ने हमें भ्रम में डाल दिया है। हम पश्चिम की तन्त्रज्ञान में श्रेष्ठता को ही सबकुछ समझ बैठे हैं। इस लिये पश्चिमी तन्त्रज्ञान के साथ उन की जीवनदृष्टि को भी आत्मसात करते जा रहे हैं।  
    
कुछ लोग दोनों में अन्तर है यह समझते हैं। ऐसे लोग पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित ज्ञानधारा को मुख्य धारा बनाकर भारतीय जीवनदृष्टि का उस के साथ समायोजन करने के प्रयास कर रहे हैं। किंतु पश्चिमी और भारतीय जीवनदृष्टि में जमीन आसमान का अन्तर है, इन का समायोजन नहीं हो सकता। इस कारण पश्चिमी जीवनदृष्टि हमारे विचार, व्यवहार और व्यवस्थाओं में सर्वव्याप्त हो गई है, हो रही है।
 
कुछ लोग दोनों में अन्तर है यह समझते हैं। ऐसे लोग पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित ज्ञानधारा को मुख्य धारा बनाकर भारतीय जीवनदृष्टि का उस के साथ समायोजन करने के प्रयास कर रहे हैं। किंतु पश्चिमी और भारतीय जीवनदृष्टि में जमीन आसमान का अन्तर है, इन का समायोजन नहीं हो सकता। इस कारण पश्चिमी जीवनदृष्टि हमारे विचार, व्यवहार और व्यवस्थाओं में सर्वव्याप्त हो गई है, हो रही है।
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स्वाधीनता के बाद शिक्षा के लक्ष्य निर्धारण में जो लोग थे उन्हें शायद ऐसा लगता था की प्राचीन भारत के पास भी कुछ श्रेष्ठ बातें थीं किंतु युरोप के वर्तमान से श्रेष्ठ नहीं। इस लिये हमारे प्राचीन भारतीय जो था उसे जब तक वर्तमान पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ समायोजित नहीं किया जाता हम शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ मानव का निर्माण नहीं कर सकेंगे। ऐसा मान कर उन्होंने पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ भारतीय ज्ञानधारा को समायोजित करने के प्रयास किये। जो गलती स्वाधीनता से पहले किये गये शिक्षा को भारतीय बनाने के प्रयासों में हुई थी वही गलती स्वाधीनता के बाद सरकारने और नए प्रयासों ने भी दोहराई दिखाई देती है। इस के फलस्वरूप सभी पाठयक्रमों का मूल और सार तो पश्चिमी विचार ही रहे। खाना तो पश्चिमी जंक फूड ही रहा। बस साथ में कुछ भारतीय चटनी आचार परोसने का प्रयास हुआ।
 
स्वाधीनता के बाद शिक्षा के लक्ष्य निर्धारण में जो लोग थे उन्हें शायद ऐसा लगता था की प्राचीन भारत के पास भी कुछ श्रेष्ठ बातें थीं किंतु युरोप के वर्तमान से श्रेष्ठ नहीं। इस लिये हमारे प्राचीन भारतीय जो था उसे जब तक वर्तमान पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ समायोजित नहीं किया जाता हम शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ मानव का निर्माण नहीं कर सकेंगे। ऐसा मान कर उन्होंने पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ भारतीय ज्ञानधारा को समायोजित करने के प्रयास किये। जो गलती स्वाधीनता से पहले किये गये शिक्षा को भारतीय बनाने के प्रयासों में हुई थी वही गलती स्वाधीनता के बाद सरकारने और नए प्रयासों ने भी दोहराई दिखाई देती है। इस के फलस्वरूप सभी पाठयक्रमों का मूल और सार तो पश्चिमी विचार ही रहे। खाना तो पश्चिमी जंक फूड ही रहा। बस साथ में कुछ भारतीय चटनी आचार परोसने का प्रयास हुआ।
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इसी प्रकार विविधता या अनेकता में एकता के भारतीय तत्व को समझने में भी भूल हुई समझ में आती है। विविधता ढूँढते ढूँढते बात सांस्कृतिक विविधता तक खींची गई। फिर एकता किस बात में रही यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया। वास्तव में वेष, भोजन, भाषा, भूषणों जैसे अन्य सभी प्रकार की विविधता तो समझी जा सकती है, किंतु संस्कृति की विविधता होगी तो साथ में कैसे रह सकेंगे। इस बिंदू को ठीक से समझना होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने पश्चिमी देशों में किये कई भाषणों में कहा है कि 'आप के समाज में अपनी माँ को छोडकर आप अन्य सभी स्त्रियों को संभाव्य पत्नी (प्रॉस्पेक्टिव्ह वाईफ) के रूप में देखते है। भारत में हम अपनी पत्नी को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखते है (मातृवत् परदारेषू)।  ऐसी विपरीत मान्यता रखनेवाले दो कुटुम्ब इकठ्ठे नहीं रह सकते। इसी प्रकार समाज के एक गुट की मान्यता है कि मूर्ति में भी परमात्मा को देखा जा सकता है। और दूसरे वर्ग की मान्यता है ऐसी मूर्तियों को नष्ट करना (बुतशिकन अर्थात् मूर्तिभंजक) पुण्य की बात है, मूर्ति की पूजा करने वाले लोगों को कत्ल करने की। ऐसी विपरीत सांस्कृतिक मान्यता वाले दो समाज गुट इकठ्ठे नहीं रह सकते। इकठ्ठे रहे तो शांति नहीं रहेगी। इसलिये मिली-जुली संस्कृति या साझी संस्कृति की भाषा तो तब ही बोली जा सकती है जब माता छोडकर हर स्त्री में संभाव्य पत्नी को देखनेवाले और मूर्तिपूजकों को जीने का अधिकार नहीं है ऐसा कहने वाले मजहबी लोग अपने विचारों का त्याग करेंगे। किंतु इस प्रकार का कोई भी प्रयास शिक्षा के माध्यम से (कोअर एलिमेंण्ट्स् की पुस्तिका में भी) किया नहीं जा रहा है। यह जब तक नहीं होता तब तक साझी संस्कृति की बात करना बेमानी होगी।
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इसी प्रकार विविधता या अनेकता में एकता के भारतीय तत्व को समझने में भी भूल हुई समझ में आती है। विविधता ढूँढते ढूँढते बात सांस्कृतिक विविधता तक खींची गई। फिर एकता किस बात में रही यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया। वास्तव में वेष, भोजन, भाषा, भूषणों जैसे अन्य सभी प्रकार की विविधता तो समझी जा सकती है, किंतु संस्कृति की विविधता होगी तो साथ में कैसे रह सकेंगे। इस बिंदू को ठीक से समझना होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने पश्चिमी देशों में किये कई भाषणों में कहा है कि 'आप के समाज में अपनी माँ को छोडकर आप अन्य सभी स्त्रियों को संभाव्य पत्नी (प्रॉस्पेक्टिव्ह वाईफ) के रूप में देखते है। भारत में हम अपनी पत्नी को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखते है (मातृवत् परदारेषू)।  ऐसी विपरीत मान्यता रखनेवाले दो कुटुम्ब इकठ्ठे नहीं रह सकते। इसी प्रकार समाज के एक गुट की मान्यता है कि मूर्ति में भी परमात्मा को देखा जा सकता है। और दूसरे वर्ग की मान्यता है ऐसी मूर्तियों को नष्ट करना (बुतशिकन अर्थात् मूर्तिभंजक) पुण्य की बात है, मूर्ति की पूजा करने वाले लोगोंं को कत्ल करने की। ऐसी विपरीत सांस्कृतिक मान्यता वाले दो समाज गुट इकठ्ठे नहीं रह सकते। इकठ्ठे रहे तो शांति नहीं रहेगी। इसलिये मिली-जुली संस्कृति या साझी संस्कृति की भाषा तो तब ही बोली जा सकती है जब माता छोडकर हर स्त्री में संभाव्य पत्नी को देखनेवाले और मूर्तिपूजकों को जीने का अधिकार नहीं है ऐसा कहने वाले मजहबी लोग अपने विचारों का त्याग करेंगे। किंतु इस प्रकार का कोई भी प्रयास शिक्षा के माध्यम से (कोअर एलिमेंण्ट्स् की पुस्तिका में भी) किया नहीं जा रहा है। यह जब तक नहीं होता तब तक साझी संस्कृति की बात करना बेमानी होगी।
    
मिली-जुली संस्कृति के प्रयोग में जो सहिष्णु और श्रेष्ठ संस्कृति के अनुयायी है, उस समाज गुट को हानि होती रहेगी। या तो ऐसा समाज नष्ट हो जाएगा या फिर एक सीमा से आगे वह भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए असहिष्णु गटों के विरोध में खडा हो जाएगा। जैसा आज हिंदू समाज में होता दिखाई दे रहा है।
 
मिली-जुली संस्कृति के प्रयोग में जो सहिष्णु और श्रेष्ठ संस्कृति के अनुयायी है, उस समाज गुट को हानि होती रहेगी। या तो ऐसा समाज नष्ट हो जाएगा या फिर एक सीमा से आगे वह भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए असहिष्णु गटों के विरोध में खडा हो जाएगा। जैसा आज हिंदू समाज में होता दिखाई दे रहा है।
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वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
 
वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगों के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगोंं के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
    
पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
 
पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
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## दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)। स्त्री, प्रकृति या पर्यावरण, अन्य पुरूष, अन्य समाज,  अन्य देश, सारी दुनिया इन से मैं यदि बलवान हूं तो इन का शोषण करना मेरा अधिकार है।
 
## दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)। स्त्री, प्रकृति या पर्यावरण, अन्य पुरूष, अन्य समाज,  अन्य देश, सारी दुनिया इन से मैं यदि बलवान हूं तो इन का शोषण करना मेरा अधिकार है।
 
## अमर्याद व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनलिमिटेड इंडिविज्युअल लिबर्टि)। बलवान अपना स्वार्थ साध सके इस लिये अमर्याद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आवश्यक है।
 
## अमर्याद व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनलिमिटेड इंडिविज्युअल लिबर्टि)। बलवान अपना स्वार्थ साध सके इस लिये अमर्याद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आवश्यक है।
# जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगों से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगों से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
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# जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगोंं से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पडेगा। बलवान लोगोंं से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पडेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
 
# अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
 
# अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
 
# भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग) सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा आरम्भ हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।
 
# भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग) सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा आरम्भ हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड से बनीं है। चेतना तो उस जड का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। शायद वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।

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