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भारत वर्ष में ऋतुओं के अनुसार दिनचर्या में बदलाव होता रहता है। भारत वर्षं में ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल मे प्रातः एवं सायंकाल का समय व्यावहारिक जगत् मेँ प्रायशः एक घण्टा बढ़ जाता है या एक घण्टा घट जाता हे। अधेरा ओर प्रकाश का फैलाव प्रातःसायं काल को व्यावहारिक जगत् में थोडा-सा अन्तरित कर देता है।
 
भारत वर्ष में ऋतुओं के अनुसार दिनचर्या में बदलाव होता रहता है। भारत वर्षं में ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल मे प्रातः एवं सायंकाल का समय व्यावहारिक जगत् मेँ प्रायशः एक घण्टा बढ़ जाता है या एक घण्टा घट जाता हे। अधेरा ओर प्रकाश का फैलाव प्रातःसायं काल को व्यावहारिक जगत् में थोडा-सा अन्तरित कर देता है।
 
==परिभाषा==
 
==परिभाषा==
प्रातः काल उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से दिनचर्या कहते हैं। आयुर्वेद एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में दिनचर्या की परिभाषा इस प्रकार की गई है-<blockquote>'''प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या। (इन्दू)''' '''दिने-दिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या, चरणचर्या।(अ०हृ०सू०)'''</blockquote>'''अर्थ-''' '''अर्थ-''' प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।
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प्रातः काल उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से दिनचर्या कहते हैं। आयुर्वेद एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में दिनचर्या की परिभाषा इस प्रकार की गई है-<blockquote>प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या। (इन्दू) दिने-दिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या, चरणचर्या।(अ०हृ०सू०)</blockquote>'''अर्थ-''' प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।
    
दिनचर्याके समानार्थी शब्द- आह्निक, दैनिक कर्म एवं नित्यकर्म आदि।
 
दिनचर्याके समानार्थी शब्द- आह्निक, दैनिक कर्म एवं नित्यकर्म आदि।
====दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण====
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==धार्मिक दिनचर्या से लाभ==
इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
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सम्पूर्ण मानव जीवन स्वस्थ रहे, उसे कोई भी विकार न हों, इस दृष्टि से दिनचर्या पर विचार किया जाता है। दिनचर्या प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, तो उन कृत्यों से मानव को कष्ट नहीं वरन् लाभ ही होता है। कोई व्यक्ति दिनभर में क्या आहार-विहार करता है, कौन-कौन से कृत्य करता है, इस पर उसका स्वास्थ्य निर्भर करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दिनचर्या महत्त्वपूर्ण है। पशु-पक्षी भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं। इसलिए प्रकृति के नियमों के अनुसार (धर्म द्वारा बताए अनुसार) आचरण करना आवश्यक है। <blockquote>ब्राह्ममुहूर्ते उत्तिष्ठेत्‌। कुर्यान्‌ मूत्रं पुरीषं च। शौचं कुर्याद्‌ अतद्धितः। दन्तस्य धावनं कुयात्‌।
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प्रातः स्नानं समाचरेत्‌। तर्पयेत्‌ तीर्थदेवताः। ततश्च वाससी शुद्धे। उत्तरीय सदा धार्यम्‌।
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ततश्च तिलकं कुर्यात्‌। प्राणायामं ततः कृत्वा संध्या-वन्दनमाचरेत्‌॥ विष्णुपूजनमाचरेत्‌॥
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अतिथिंश्च प्रपूजयेत्‌। ततो भूतबलिं कुर्यात्‌। ततश्च भोजनं कुर्यात्‌ प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।
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शोधयेन्मुखहस्तौ च। ततस्ताम्बूलभक्षणम्‌। व्यवहारं ततः कुर्याद्‌ बहिर्गत्वा यथासुखम्‌॥
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वेदाभ्यासेन तौ नयेत्‌। गोधूलौ धर्मं चिन्तयेत्‌। कृतपादादिशौचस्तुभुक्त्वा सायं ततो गृही॥
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आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?
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यामद्वयंशयानो हि ब्रह्मभूयाय कल्यते॥प्राक्शिराः शयनं कुर्यात्‌।  न कदाचिदुदक्‌ शिराः॥
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धनके लिये क्या करना है ?
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दक्षिणशिराः वा। रात्रिसूक्तं जपेत्स्मृत्वा। वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रे रक्षां कृत्वा स्वपेत्‌ ततः॥
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शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?
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नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णुं समाधिस्थं स्वपेन्निशि। माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च।
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यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
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ऋतुकालाभिगामीस्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌।
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
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शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥<ref>डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० ५८।</ref></blockquote>'''अर्थ-''' ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं-
==धार्मिक दिनचर्या के विषयविभाग॥ Guidelines on different aspects of Dinacharya==
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सम्पूर्ण मानव जीवन स्वस्थ रहे, उसे कोई भी विकार न हों, इस दृष्टि से दिनचर्या पर विचार किया जाता है। दिनचर्या प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, तो उन कृत्यों से मानव को कष्ट नहीं वरन् लाभ ही होता है। कोई व्यक्ति दिनभर में क्या आहार-विहार करता है, कौन-कौन से कृत्य करता है, इस पर उसका स्वास्थ्य निर्भर करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दिनचर्या महत्त्वपूर्ण है। पशु-पक्षी भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं। इसलिए प्रकृति के नियमों के अनुसार (धर्म द्वारा बताए अनुसार) आचरण करना आवश्यक है। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं-  
      
'''ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta'''
 
'''ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta'''
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'''शयनविधि॥ Shayana Vidhi'''
 
'''शयनविधि॥ Shayana Vidhi'''
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== दिनचर्या के विभाग ==
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== धार्मिक दिनचर्या के विषय विभाग ==
<blockquote>'''ब्राह्ममुहूर्ते उत्तिष्ठेत्‌। कुर्यान्‌ मूत्रं पुरीषं च। शौचं कुर्याद्‌ अतद्धितः। दन्तस्य धावनं कुयात्‌।'''
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====ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta====
 
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'''प्रातः स्नानं समाचरेत्‌। तर्पयेत्‌ तीर्थदेवताः। ततश्च वाससी शुद्धे। उत्तरीय सदा धार्यम्‌।'''
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'''ततश्च तिलकं कुर्यात्‌। प्राणायामं ततः कृत्वा संध्या-वन्दनमाचरेत्‌॥ विष्णुपूजनमाचरेत्‌॥'''
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'''अतिथिंश्च प्रपूजयेत्‌। ततो भूतबलिं कुर्यात्‌। ततश्च भोजनं कुर्यात्‌ प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।'''
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'''शोधयेन्मुखहस्तौ च। ततस्ताम्बूलभक्षणम्‌। व्यवहारं ततः कुर्याद्‌ बहिर्गत्वा यथासुखम्‌॥'''
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'''वेदाभ्यासेन तौ नयेत्‌। गोधूलौ धर्मं चिन्तयेत्‌। कृतपादादिशौचस्तुभुक्त्वा सायं ततो गृही॥'''
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'''यामद्वयंशयानो हि ब्रह्मभूयाय कल्यते॥प्राक्शिराः शयनं कुर्यात्‌।  न कदाचिदुदक्‌ शिराः॥'''
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'''दक्षिणशिराः वा। रात्रिसूक्तं जपेत्स्मृत्वा। वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रे रक्षां कृत्वा स्वपेत्‌ ततः॥'''
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'''नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णुं समाधिस्थं स्वपेन्निशि। माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च।'''
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'''ऋतुकालाभिगामीस्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌।'''
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'''शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥'''<ref>डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० ५८।</ref></blockquote>'''अर्थ-''' ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये।
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=== ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta ===
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{{Main|Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)}}
 
{{Main|Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)}}
 
ब्राह्ममुहूर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये।<blockquote>रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः। स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने॥</blockquote>'''अनु-''' रात के पिछले प्रहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है। जागने के लिये यही समय उचित है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।
 
ब्राह्ममुहूर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये।<blockquote>रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः। स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने॥</blockquote>'''अनु-''' रात के पिछले प्रहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है। जागने के लिये यही समय उचित है। अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।
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=== करदर्शन॥ Kar Darshana ===
 
=== करदर्शन॥ Kar Darshana ===
 
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।</blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है। केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी हस्त है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
 
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।</blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है। केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी हस्त है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
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=== भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana ===
 
=== भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana ===
 
प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
 
प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
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शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।
 
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।
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=== मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana ===
 
=== मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana ===
 
प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
 
प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
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अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी। तस्याः संकल्पमात्रेण जीवन्मुक्तो न संशयः॥(नित्यकर्मपूजाप्रकाशमें_अंगिरा)
 
अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी। तस्याः संकल्पमात्रेण जीवन्मुक्तो न संशयः॥(नित्यकर्मपूजाप्रकाशमें_अंगिरा)
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=== उषा काल॥ Ushakala ===
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=== शौचाचार॥ Shouchara ===
 
=== शौचाचार॥ Shouchara ===
      
शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए। शौच में मुख्यतः दो भेद हैं- बाह्य शौच और आभ्यन्तर शौच।<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ०१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः। आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्दु)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
 
शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए। शौच में मुख्यतः दो भेद हैं- बाह्य शौच और आभ्यन्तर शौच।<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ०१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः। आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्दु)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
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दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है। सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है।
 
दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है। सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है।
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=== '''व्यायाम॥ Vyayama''' ===
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==='''व्यायाम॥ Vyayama'''===
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=== '''तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga''' ===
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==='''तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga'''===
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=== '''क्षौर॥ Kshaura''' ===
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==='''क्षौर॥ Kshaura'''===
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=== '''स्नान॥ Snana''' ===
+
==='''स्नान॥ Snana'''===
 
प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।
 
प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।
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=== संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya ===
 
=== संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya ===
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== शयनविधि॥ Shayana Vidhi ==
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=== शयनविधि॥ Shayana Vidhi ===
 
रात्रि मे सोने से पहले रात्रिसूक्त का पाठ करके सोना चाहिए। इस पाठ को करने वाला व्यक्ति दुःस्वप्न, अनिद्रा, निद्राभंग, भय, निर्जन शयन भय, भूत-परेत आदि भय, आकस्मिक उपद्रव आदि से सर्वथा सुरक्षित रहता हे। रात्रि में सोने के बाद उसे सर्पं आदि विषधर नहीं काट पाते। अग्नि, विषाक्त वायु आदि से भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता हे। अतः प्राचीन भारत में रात्रिसूक्त का पाठ करके ही सोया जाता था। विशेष रूप से जँ रात्रि भय उपस्थित हो वहां इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा से वचने के लिए भी इसका पाठ करके सोना चाहिए।
 
रात्रि मे सोने से पहले रात्रिसूक्त का पाठ करके सोना चाहिए। इस पाठ को करने वाला व्यक्ति दुःस्वप्न, अनिद्रा, निद्राभंग, भय, निर्जन शयन भय, भूत-परेत आदि भय, आकस्मिक उपद्रव आदि से सर्वथा सुरक्षित रहता हे। रात्रि में सोने के बाद उसे सर्पं आदि विषधर नहीं काट पाते। अग्नि, विषाक्त वायु आदि से भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता हे। अतः प्राचीन भारत में रात्रिसूक्त का पाठ करके ही सोया जाता था। विशेष रूप से जँ रात्रि भय उपस्थित हो वहां इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा से वचने के लिए भी इसका पाठ करके सोना चाहिए।
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==दिनचर्या कब, कितनी ?==
 
==दिनचर्या कब, कितनी ?==
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दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -<blockquote>'''मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्‌॥''' (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)</blockquote>प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-<blockquote>'''स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥''' (ब्रह्माण्डपुराण)</blockquote>
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दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -<blockquote>मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्‌॥ (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)</blockquote>प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-<blockquote>स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥ (ब्रह्माण्डपुराण)</blockquote>
    
====दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या====
 
====दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या====
इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।<ref>श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।</ref>
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इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।<ref name=":0">श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।</ref>
==धार्मिक दिनचर्या का महत्व==
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==== दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण ====
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इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
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आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?
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धनके लिये क्या करना है ?
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शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?
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यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
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== धार्मिक दिनचर्या का महत्व ==
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व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-<blockquote>'''अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात्‌ सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)'''</blockquote>अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -<blockquote>'''सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्‌। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)'''</blockquote>उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान्‌ बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
 
व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-<blockquote>'''अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात्‌ सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)'''</blockquote>अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -<blockquote>'''सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्‌। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)'''</blockquote>उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान्‌ बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
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==== विद्यार्थी की दिनचर्या ====
 
==== विद्यार्थी की दिनचर्या ====
समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।
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समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।<blockquote>शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
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ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए-<blockquote>शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥</blockquote>सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए-<blockquote>सत्येन ब्रहमचर्येण व्यायामेनाथ विद्यया। देशभक्त्याऽऽत्मत्यागेन सम्मानार्हो सदा भव॥</blockquote>
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सत्येन ब्रहमचर्येण व्यायामेनाथ विद्यया। देशभक्त्याऽऽत्मत्यागेन सम्मानार्हो सदा भव॥</blockquote>
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ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए। सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए।
 
== श्रीरामजी की दिनचर्या ==
 
== श्रीरामजी की दिनचर्या ==
 
प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं।  श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।<blockquote>प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥</blockquote>
 
प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं।  श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।<blockquote>प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥</blockquote>
    
== ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या ==
 
== ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या ==
मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।
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मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।<ref name=":0" />
 
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|+ऊर्जाचक्रानुसार दिनचर्या की आवश्यकता
 
|+ऊर्जाचक्रानुसार दिनचर्या की आवश्यकता
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