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उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
 
उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
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हमारे किसान अब कुछ पिछडे हुए नहीं रहे हैं। अत्याधुनिक जनुकीय तन्त्रज्ञान से निर्माण किये गए संकरित बीज, अत्याधुनिक रासायनिक खरपतवार, महंगी रासायनिक खाद, उत्तम से उत्तम रासायनिक कीटक नाशकों का उपयोग करना अब वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। फिर भी किसानों की यह स्थिति क्यों है?
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हमारे किसान अब कुछ पिछडे हुए नहीं रहे हैं। अत्याधुनिक जनुकीय तन्त्रज्ञान से निर्माण किये गए संकरित बीज, अत्याधुनिक रासायनिक खरपतवार, महंगी रासायनिक खाद, उत्तम से उत्तम रासायनिक कीटक नाशकों का उपयोग करना अब वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। तथापि किसानों की यह स्थिति क्यों है?
    
उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। अतः हम पुरे समाज के जीवन की जड़़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। अतः हम पुरे समाज के जीवन की जड़़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
 
== अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़़ पदार्थ से ही। आधुनिक विज्ञान भी इसे जड़़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
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वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़़ पदार्थ से ही। आधुनिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] भी इसे जड़़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। अतः बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। अतः बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।

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