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धर्म की अनेक व्याख्याएं है । उन में से कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याओं का अब हम विचार करेंगे ।  
 
धर्म की अनेक व्याख्याएं है । उन में से कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याओं का अब हम विचार करेंगे ।  
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=== क)  धर्मो धारयते प्रजा: ===
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=== धर्मो धारयते प्रजा: ===
 
यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है । जिन बातों के करने और ना करने से समाज की धारणा होती है उन का नाम धर्म है । समाज की धारणा का अर्थ है समाज बने रहना, बलवान बनना, समाज जीवन में लचीलापन होना, समाज निरोग रहना और समाज जीवन मे तितिक्षा रहना । शरीर धर्म शब्द का प्रयोग हम कई बार करते है । इस का अर्थ है '''सर्वप्रथम''' शरीर बनाए रखने के लिये खाना पीना, आराम व्यायाम आदि के माध्यम से शरीर को बनाए रखना । '''दूसरा''' शरीर बलवान बनाना । जिसे आयुर्वेद में युक्त आहार विहार कहा है ऐसे व्यायाम, योग, योग्य आदतें योग्य पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से शरीर बलवान बनाना । '''तीसरा''' है शरीर को लचीला बनाना और बनाए रखना । इस के लिये आसन या विविध प्रकार के खेल का अनियमित अभ्यास करना । '''चौथा''' है निरोग रहना । योग्य आदतें आहार विहार और दिनचर्या और ॠतुचर्या के अनुसार आचरण से शरीर निरोगी रहता है । तितिक्षा अर्थात् दम यह '''पाँचवीं''' बात है । विपरीत परिस्थियों में भी अधिकतम काल तक शरीर स्वस्थ बनाए रखने का अर्थ है तितिक्षावान बनना । यह अभ्यास से, शरीर के बल के आधार पर और इच्छा शक्ति बढाने से होता है। यह सब हो इस हेतु जो भी करना पडता है बस वही शरीर धर्म माना जाता है।
 
यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है । जिन बातों के करने और ना करने से समाज की धारणा होती है उन का नाम धर्म है । समाज की धारणा का अर्थ है समाज बने रहना, बलवान बनना, समाज जीवन में लचीलापन होना, समाज निरोग रहना और समाज जीवन मे तितिक्षा रहना । शरीर धर्म शब्द का प्रयोग हम कई बार करते है । इस का अर्थ है '''सर्वप्रथम''' शरीर बनाए रखने के लिये खाना पीना, आराम व्यायाम आदि के माध्यम से शरीर को बनाए रखना । '''दूसरा''' शरीर बलवान बनाना । जिसे आयुर्वेद में युक्त आहार विहार कहा है ऐसे व्यायाम, योग, योग्य आदतें योग्य पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से शरीर बलवान बनाना । '''तीसरा''' है शरीर को लचीला बनाना और बनाए रखना । इस के लिये आसन या विविध प्रकार के खेल का अनियमित अभ्यास करना । '''चौथा''' है निरोग रहना । योग्य आदतें आहार विहार और दिनचर्या और ॠतुचर्या के अनुसार आचरण से शरीर निरोगी रहता है । तितिक्षा अर्थात् दम यह '''पाँचवीं''' बात है । विपरीत परिस्थियों में भी अधिकतम काल तक शरीर स्वस्थ बनाए रखने का अर्थ है तितिक्षावान बनना । यह अभ्यास से, शरीर के बल के आधार पर और इच्छा शक्ति बढाने से होता है। यह सब हो इस हेतु जो भी करना पडता है बस वही शरीर धर्म माना जाता है।
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समाज बने रहने से तात्पर्य है समाज सातत्य से । समाज अपनी विशिष्टताओं के साथ चिरंजीवी बने इस के लिये कुछ आवश्यक बातें समझना चाहिए । समाज बलवान बनता है संगठन से । परस्पर प्रेमभाव से । ऐसा संगठन बनाने के लिये और परस्पर प्रेमभाव निर्माण करने और बनाए रखने की व्यवस्था से । समाज निरोगी, लचीला और तितिक्षावन बनता है योग्य संस्कार और शिक्षा और सुयोग्य व्यवस्थाओं के कारण । इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस के लिये अधिजनन, पीढी-दर-पीढी संस्कार संक्रमण के लिये कुटुंब व्यवस्था, श्रेष्ठ, तेजस्वी और प्रभावी ऐसी गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था, चतुराश्रम व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदि का निर्माण और व्यवहार किया था । इन्ही के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों के निरंतर विदेशी बर्बर आक्रमणों के उपरांत भी हम आज अपनी अत्यंत श्रेष्ठ वेदकालीन परंपराओं से अब तक पूर्णत: टूटे नहीं हैं।
 
समाज बने रहने से तात्पर्य है समाज सातत्य से । समाज अपनी विशिष्टताओं के साथ चिरंजीवी बने इस के लिये कुछ आवश्यक बातें समझना चाहिए । समाज बलवान बनता है संगठन से । परस्पर प्रेमभाव से । ऐसा संगठन बनाने के लिये और परस्पर प्रेमभाव निर्माण करने और बनाए रखने की व्यवस्था से । समाज निरोगी, लचीला और तितिक्षावन बनता है योग्य संस्कार और शिक्षा और सुयोग्य व्यवस्थाओं के कारण । इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस के लिये अधिजनन, पीढी-दर-पीढी संस्कार संक्रमण के लिये कुटुंब व्यवस्था, श्रेष्ठ, तेजस्वी और प्रभावी ऐसी गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था, चतुराश्रम व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदि का निर्माण और व्यवहार किया था । इन्ही के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों के निरंतर विदेशी बर्बर आक्रमणों के उपरांत भी हम आज अपनी अत्यंत श्रेष्ठ वेदकालीन परंपराओं से अब तक पूर्णत: टूटे नहीं हैं।
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=== ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य ===
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=== धर्म का अर्थ है कर्तव्य ===
    
धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटक द्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य ।
 
धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटक द्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य ।
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'''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये ।  
 
'''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये ।  
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=== ग)  धर्म:  मानव और पशु में अंतर ===
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=== धर्म:  मानव और पशु में अंतर ===
 
आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशु में समान है । मानव की विशेषता इसी में है कि वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशु ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है:  
 
आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशु में समान है । मानव की विशेषता इसी में है कि वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशु ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है:  
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रामायण में बाली ने जब राम से पूछा कि आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्यों मारा ? राम ने बाली को याद दिलाया की उसका व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । पशु को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है ।  
 
रामायण में बाली ने जब राम से पूछा कि आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्यों मारा ? राम ने बाली को याद दिलाया की उसका व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । पशु को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है ।  
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=== घ ) दशलक्षण धर्म ===
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=== दशलक्षण धर्म ===
 
धर्म की मनुस्मृति में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है:  
 
धर्म की मनुस्मृति में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है:  
 
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: ।  
 
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: ।  
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स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।  
 
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।  
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=== छ)  धर्म का अर्थ कानून ===
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=== धर्म का अर्थ कानून ===
 
महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते है -  
 
महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते है -  
 
न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् ।  
 
न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् ।  
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