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श्रीमद्भगवद्गीता यह शास्त्र है। इस शास्त्र में बताई सृष्टि निर्माण की बातों के सन्दर्भ में हम आगे देखेंगे। यहाँ और भी एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है।  
 
श्रीमद्भगवद्गीता यह शास्त्र है। इस शास्त्र में बताई सृष्टि निर्माण की बातों के सन्दर्भ में हम आगे देखेंगे। यहाँ और भी एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0">श्रीमद्भगवद्गीता, 16-23</ref>  <blockquote>य: शास्त्र विधिमुत्स्रुज्य वर्तते कामकारत:। न स: सिद्धिमवाप्नोती न सुखं न परान्गातिम्।।16-23।।</blockquote>अर्थ: जो शास्त्र से भिन्न, मनमाना व्यवहार करते हैं उन्हें न सिद्धि, न सुख और ना ही श्रेष्ठ जीवन की पाप्ति होती है।
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श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0">श्रीमद्भगवद्गीता, 16-23</ref>  <blockquote>य: शास्त्र विधिमुत्स्रुज्य वर्तते कामकारत:। न स: सिद्धिमवाप्नोती न सुखं न परान्गातिम्॥16-23॥</blockquote>अर्थ: जो शास्त्र से भिन्न, मनमाना व्यवहार करते हैं उन्हें न सिद्धि, न सुख और ना ही श्रेष्ठ जीवन की पाप्ति होती है।
    
== मान्यताओं की बुद्धियुक्तता ==
 
== मान्यताओं की बुद्धियुक्तता ==
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जीवन का आधार चेतना है, जड़ नहीं। ठहराव या जड़ता तो जीवन का अंत हैं। जड़ से चेतन बनते आज तक नहीं देखा गया। डार्विन का विकासवाद और मिलर की जीवनिर्माण की परिकल्पना के प्रकाश में किये गए ग्लास ट्यूब जैसे प्रयोगों का तो आधार ही मिथ्या होने से उसके निष्कर्ष भी विपरीत हैं। ग्लास ट्यूब प्रयोग में पक्के हवाबंद कांच की नली में मीथेन और फफूंद की प्रक्रिया से जीव निर्माण हुआ ऐसा देखा गया। इससे अनुमान लगाया गया कि जब वह नली पक्की हवाबंद है तो उसमें जीवात्मा जा नहीं सकता। निष्कर्ष यह निकाला गया कि जड़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं से ही जीव पैदा हो जाता है। वास्तव में जिनका ज्ञान केवल पंच महाभूतों तक ही सीमित है उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक है। लेकिन जो यह जानते हैं कि मन, बुद्धि हवा से बहुत सूक्ष्म होते हैं और जीवात्मा तो उनसे भी कहीं सूक्ष्म होता है उनके लिए इस प्रयोग का मिथ्यात्व समझना कठिन नहीं है। एक और भी बात है कि जब लोगों ने कांच के अन्दर कुछ होते देखा तो इसका अर्थ है कि प्रकाश की किरणें अन्दर बाहर आ-जा रहीं थीं। याने हवा से सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नली के अन्दर भी जा सकता है और बाहर भी आ सकता है। जीवात्मा ऐसे ही नली के अन्दर सहज ही प्रवेश कर सकता है।   
 
जीवन का आधार चेतना है, जड़ नहीं। ठहराव या जड़ता तो जीवन का अंत हैं। जड़ से चेतन बनते आज तक नहीं देखा गया। डार्विन का विकासवाद और मिलर की जीवनिर्माण की परिकल्पना के प्रकाश में किये गए ग्लास ट्यूब जैसे प्रयोगों का तो आधार ही मिथ्या होने से उसके निष्कर्ष भी विपरीत हैं। ग्लास ट्यूब प्रयोग में पक्के हवाबंद कांच की नली में मीथेन और फफूंद की प्रक्रिया से जीव निर्माण हुआ ऐसा देखा गया। इससे अनुमान लगाया गया कि जब वह नली पक्की हवाबंद है तो उसमें जीवात्मा जा नहीं सकता। निष्कर्ष यह निकाला गया कि जड़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं से ही जीव पैदा हो जाता है। वास्तव में जिनका ज्ञान केवल पंच महाभूतों तक ही सीमित है उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक है। लेकिन जो यह जानते हैं कि मन, बुद्धि हवा से बहुत सूक्ष्म होते हैं और जीवात्मा तो उनसे भी कहीं सूक्ष्म होता है उनके लिए इस प्रयोग का मिथ्यात्व समझना कठिन नहीं है। एक और भी बात है कि जब लोगों ने कांच के अन्दर कुछ होते देखा तो इसका अर्थ है कि प्रकाश की किरणें अन्दर बाहर आ-जा रहीं थीं। याने हवा से सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नली के अन्दर भी जा सकता है और बाहर भी आ सकता है। जीवात्मा ऐसे ही नली के अन्दर सहज ही प्रवेश कर सकता है।   
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श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0" />- <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहू इन्द्रियेभ्य परं मन। मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धे परस्तस्तु स:।।3-42।।</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों के सूक्ष्मरूप जो इन्द्रिय हैं उनसे मन सूक्ष्म है। मनसे बुद्धि और आत्मतत्व याने जीवात्मा तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म होता है।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0" />- <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहू इन्द्रियेभ्य परं मन। मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धे परस्तस्तु स:॥3-42॥</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों के सूक्ष्मरूप जो इन्द्रिय हैं उनसे मन सूक्ष्म है। मनसे बुद्धि और आत्मतत्व याने जीवात्मा तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म होता है।  
    
== सृष्टि निर्माण काल ==
 
== सृष्टि निर्माण काल ==
 
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 8-17</ref><ref>श्रीमद्भगवद्गीता 8-18</ref>:  
 
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 8-17</ref><ref>श्रीमद्भगवद्गीता 8-18</ref>:  
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सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:। रात्रिं युगसहस्त्रान्तान् ते अहोरात्रविदो जना:।। 8-17।।  
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सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:। रात्रिं युगसहस्त्रान्तान् ते अहोरात्रविदो जना:8-17॥  
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अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभावंत्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंजके।। 8-18 ।।
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अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभावंत्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंजके॥ 8-18
    
अर्थ : ब्रह्माजी का एक दिन भी और एक रात भी एक हजार चतुर्युगों की होती है। ब्रह्माजी के दिन के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में से ही चराचर के सभी अस्तित्व उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माजी की रात्रि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में ही विलीन हो जाते हैं। इस एक चक्र के काल को कल्प कहते हैं। आगे हम जानते हैं कि एक चतुर्युग ४३,३२,००० वर्ष का होता है। इसमें समझने की बात इतनी ही है कि सृष्टि का निर्माण एक अति प्राचीन घटना है। ब्रह्माजी के दिन के साथ ही कालगणना शुरू होती है और ब्रह्माजी की रात के साथ समाप्त होती है। वर्तमान में २७वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। कलियुग के ५१०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं।  
 
अर्थ : ब्रह्माजी का एक दिन भी और एक रात भी एक हजार चतुर्युगों की होती है। ब्रह्माजी के दिन के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में से ही चराचर के सभी अस्तित्व उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माजी की रात्रि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में ही विलीन हो जाते हैं। इस एक चक्र के काल को कल्प कहते हैं। आगे हम जानते हैं कि एक चतुर्युग ४३,३२,००० वर्ष का होता है। इसमें समझने की बात इतनी ही है कि सृष्टि का निर्माण एक अति प्राचीन घटना है। ब्रह्माजी के दिन के साथ ही कालगणना शुरू होती है और ब्रह्माजी की रात के साथ समाप्त होती है। वर्तमान में २७वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। कलियुग के ५१०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं।  
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छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। इसलिए इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।  
 
छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। इसलिए इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।  
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'''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद १०-१२९-</ref> <ref>ऋग्वेद १०-१२९-3</ref>:
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'''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद 10-129-1</ref> <ref>ऋग्वेद 10-129-3</ref>:
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नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।। ऋग्वेद 10-129-1।।
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नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्॥ ऋग्वेद 10-129-1॥
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तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ।। ऋग्वेद 10-129-3।।
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तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ऋग्वेद 10-129-3॥
    
अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है।
 
अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है।
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'''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य -६१</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref>:
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'''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य 1-61</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref><ref>सांख्य 1-127</ref>:
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सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। सांख्य 1-61 ।।
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सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति: सांख्य 1-61
    
परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई। तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे। परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए।  
 
परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई। तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे। परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए।  
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लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् ।। सांख्य 1-128 ।।
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लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् सांख्य 1-123 ॥
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प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् ।। संख्या 1-127 ।।
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प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् ॥ सांख्य 1-127
    
अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे।  
 
अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे।  
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'''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है:
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'''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा।  
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सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।। (भ.गी. -)
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 9-7</ref>:<blockquote>सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (भ.गी. 9-7) ॥ </blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व  मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ।
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अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-4</ref> <ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-5</ref>:<blockquote>भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ 7-4॥</blockquote>अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है:
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आगे कहा है:<blockquote>अपरेयामितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि में पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ 7-5॥</blockquote>अर्थ: यह अष्टधा प्रकृति परमात्मा की अपरा याने अचेतन (चेतना अक्रिय) प्रकृति है। इससे भिन्न दूसरी जिसके द्वारा सारे संसार की धारणा होती है वह परमात्मा की जीवरूप (आत्मा) परा याने चेतन प्रकृति है।
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भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। (७-४)
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आगे और कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-40</ref> <blockquote>न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तंयदेभि:स्यात्त्रिभिर्गु गुणे:॥ 18-40 ॥</blockquote>अर्थ : पृथ्वी पर, आकाश में या देवों में इसी तरह अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी नहीं है जिसमें प्रकृति से बने सत्व, रज और तम न हों।
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अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है।  
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इसे उपर्युक्त 7-4 से मिलकर देखने से यह समझ में आता है कि बुद्धि का गुण सत्व, मन का गुण राजसी और अहंकार का गुण तम है।
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आगे कहा है:
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'''ब्रह्मसूत्र''' में भिन्न भिन्न जीवजातियों के निर्माण के सन्दर्भ में कहा है<ref>ब्रह्मसूत्र 3-1-27</ref>:<blockquote>योने: शरीरम्॥ ३-१-२७ ॥</blockquote>अर्थ: योनि से शरीर बनता है। अर्थात् जीव का शरीर स्त्री के उत्पत्ति स्थान (योनि) के अनुसार बनता है। अन्य जीव के पुरूष कण (स्पर्म) के अनुसार नहीं। किसी भिन्न जाति के जीव के पुरूष कण अन्य जाति की स्त्री की योनि में जाने से जीव निर्माण नहीं होता। भिन्न या विपरीत योनि शुक्र को ग्रहण नहीं करती।
 
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अपरेयामितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि में पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (भ.गी. ७-५)
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अर्थ: यह अष्टधा प्रकृति परमात्मा की अपरा याने अचेतन (चेतना अक्रिय) प्रकृति है। इससे भिन्न दूसरी जिसके द्वारा सारे संसार की धारणा होती है वह परमात्मा की जीवरूप (आत्मा) परा याने चेतन प्रकृति है।
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आगे और कहा है – न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तंयदेभि:स्यात्त्रिभिर्गु गुणे:।। (भ.गी. १८-४०)
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अर्थ : पृथ्वी पर, आकाश में या देवों में इसी तरह अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी नहीं है जिसमें प्रकृति से बने सत्व, रज और तम न हों।
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इसे उपर्युक्त ७-४ से मिलकर देखने से यह समझ में आता है कि बुद्धि का गुण सत्व, मन का गुण राजसी और अहंकार का गुण तम है।
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'''ब्रह्मसूत्र''' में भिन्न भिन्न जीवजातियों के निर्माण के सन्दर्भ में कहा है:
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योने: शरीरम्।  (ब्रह्मसूत्र ३-१-२७)
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अर्थ: योनि से शरीर बनता है। अर्थात् जीव का शरीर स्त्री के उत्पत्ति स्थान (योनि) के अनुसार बनता है। अन्य जीव के पुरूष कण (स्पर्म) के अनुसार नहीं। किसी भिन्न जाति के जीव के पुरूष कण अन्य जाति की स्त्री की योनि में जाने से जीव निर्माण नहीं होता। भिन्न या विपरीत योनि शुक्र को ग्रहण नहीं करती।
      
== भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम ==
 
== भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम ==
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चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे ।
 
चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे ।
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एक और बात यह है कि जीव जगत में भी आज जो पशू, पक्षी, प्राणि आदि जिस रूप में हैं उसी रूप में परमात्मा ने उन्हें अपने में से ही उत्पन्न किया। यह प्रक्रिया (कुल १४ में से) सातवें मन्वंतर तक चली। पूर्व में श्रीमद्भगवद्गीता के ७ वें अध्याय के श्लोक ६ में हमने जाना है कि सभी अस्तित्व याने सभी भूतमात्र का निर्माण इन्हीं परमात्मा की परा याने चेतन और अपरा याने अचेतन प्रकृति से ही हुआ है। परमात्मा ने ही इन अस्तित्वों को बनाया है। आज जो जीव जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उन को परमात्मा ने वैसा ही निर्माण किया है। इस विषय में कहा है:
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एक और बात यह है कि जीव जगत में भी आज जो पशू, पक्षी, प्राणि आदि जिस रूप में हैं उसी रूप में परमात्मा ने उन्हें अपने में से ही उत्पन्न किया। यह प्रक्रिया (कुल १४ में से) सातवें मन्वंतर तक चली। पूर्व में श्रीमद्भगवद्गीता के ७ वें अध्याय के श्लोक ६ में हमने जाना है कि सभी अस्तित्व याने सभी भूतमात्र का निर्माण इन्हीं परमात्मा की परा याने चेतन और अपरा याने अचेतन प्रकृति से ही हुआ है। परमात्मा ने ही इन अस्तित्वों को बनाया है। आज जो जीव जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उन को परमात्मा ने वैसा ही निर्माण किया है।  
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सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। (भ.गी. १४-४)
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इस विषय में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 14-4</ref>:<blockquote>सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥ १४-४ ॥</blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! भिन्न भिन्न प्रकार की जातियों में जितने भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सब का गर्भ धारण करनेवाली प्रकृति है और बीज स्थापना करनेवाला पिता मैं हूँ।  
 
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अर्थ : हे अर्जुन ! भिन्न भिन्न प्रकार की जातियों में जितने भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सब का गर्भ धारण करनेवाली प्रकृति है और बीज स्थापना करनेवाला पिता मैं हूँ।  
      
== जड़ और जीव याने चेतन ==
 
== जड़ और जीव याने चेतन ==
 
सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। इसलिए यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़ है। जड़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है।
 
सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। इसलिए यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़ है। जड़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है।
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श्रीमद्भगवद्गीता में १५-७ में कहा है: ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:
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श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>:<blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥</blockquote>जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है<ref>ब्रह्मसूत्र 2-2-4</ref>: <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 ॥</blockquote>अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले।  
 
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जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है: व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ (ब्रह्मसूत्र 2-2-4)
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अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले।  
      
इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
 
इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
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जड़ और चेतन में चेतना के स्तर का अंतर है और इस स्तर के कारण आने वाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रीयता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टी जैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धि की शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है।  
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जड़ और चेतन में चेतना के स्तर का अंतर है और इस स्तर के कारण आने वाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रियता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टी जैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धि की शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है।  
    
जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं ।  
 
जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं ।  
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चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं। वे हैं:
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चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं। वे हैं<ref>न्याय दर्शन 1-1-10</ref>:<blockquote>इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति॥ 1-1-10 ॥</blockquote>अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना।
 
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इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति।
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अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना।
      
== मानव और मानव समाज का निर्माण ==
 
== मानव और मानव समाज का निर्माण ==
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक।।१०।।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-10</ref> <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक॥3-10॥</blockquote>अर्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो।
 
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अर्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो।
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यह है समाज निर्माण की भारतीय मान्यता। वर्तमान व्यक्ति- केंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टि में है। आगे कहा है:
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देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व:। परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।११।।
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यह है समाज निर्माण की भारतीय मान्यता। वर्तमान व्यक्ति- केंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टि में है।
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अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टि करो। और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें। इसा प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक दूसरे की परस्पर उन्नति करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
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आगे कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-11</ref>:<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व:। परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥3-11॥</blockquote>अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टि करो। और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें। इसा प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक दूसरे की परस्पर उन्नति करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
    
यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की भारतीय दृष्टि। वर्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टि में है। परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है।  
 
यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की भारतीय दृष्टि। वर्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टि में है। परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है।  
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==References==
 
==References==
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<references />अन्य स्रोत:
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<references responsive="0" />अन्य स्रोत:
    
१. श्रीमद्भगवद्गीता
 
१. श्रीमद्भगवद्गीता
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