Line 42: |
Line 42: |
| '''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद 10-129-1</ref> <ref>ऋग्वेद 10-129-3</ref>: | | '''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद 10-129-1</ref> <ref>ऋग्वेद 10-129-3</ref>: |
| | | |
− | नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्॥ ऋग्वेद 10-129-1॥ | + | नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्॥ 10-129-1॥ |
| | | |
− | तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ॥ ऋग्वेद 10-129-3॥ | + | तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ॥ 10-129-3॥ |
| | | |
| अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है। | | अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है। |
Line 50: |
Line 50: |
| '''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य 1-61</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref><ref>सांख्य 1-127</ref>: | | '''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य 1-61</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref><ref>सांख्य 1-127</ref>: |
| | | |
− | सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति:॥ सांख्य 1-61 ॥ | + | सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति:॥ 1-61 ॥ |
| | | |
| परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई। तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे। परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए। | | परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई। तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे। परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए। |
| | | |
− | लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् ॥ सांख्य 1-123 ॥ | + | लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् ॥ 1-123 ॥ |
| | | |
− | प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् ॥ सांख्य 1-127 ॥ | + | प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् ॥ 1-127 ॥ |
| | | |
| अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे। | | अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया शुरू हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे। |
Line 62: |
Line 62: |
| '''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा। | | '''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा। |
| | | |
− | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 9-7</ref>:<blockquote>सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (भ.गी. 9-7) ॥ </blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ। | + | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 9-7</ref>:<blockquote>सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (9-7) ॥ </blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ। |
| | | |
| श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-4</ref> <ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-5</ref>:<blockquote>भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ 7-4॥</blockquote>अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है। | | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-4</ref> <ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7-5</ref>:<blockquote>भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ 7-4॥</blockquote>अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है। |