Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)

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कला भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण भाग हुआ करता है। शिक्षामें कलाओंकी शिक्षा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो मानव जीवन को सुन्दर, प्राञ्जल एवं परिष्कृत बनाने में सर्वाधिक सहायक हैं। कला एक विशेष साधना है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी उपलब्धियों को सुन्दरतम रूप में दूसरों तक सम्प्रेषित कर सकने में समर्थ होता है। कलाओंके ज्ञान होने मात्र से ही मानव अनुशासित जीवन जीने में अपनी भूमिका निभा पाता है। विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में गुरुकुल में इनका ज्ञान प्राप्त करते हैं। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला कहा जाता है।

परिचय॥ Introduction

भारतवर्ष ने हमेशा ज्ञान को बहुत महत्व दिया है। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षाका क्षेत्र बहुत विस्तृत था। कलाओंमें शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण नीतिग्रन्थ आदि में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। भारतके ज्ञान परंपरा की बात करते हुए कपिल कपूर कहते हैं- ''भारत की ज्ञान परंपरा गंगा नदी के प्रवाह की तरह प्राचीन और अबाधित है''।[1]शुक्राचार्यजी के नीतिसार नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में सुन्दर प्रकार से सीमित शब्दों में विवरण प्राप्त होता है। उनके अनुसार कलाऍं अनन्त हैं उन सभी का परिगणनन भी क्लिष्ट है परन्तु उनमें 64 कलाऍं प्रमुख हैं। सभी मनुष्योंका स्वभाव एकसा नहीं होता, किसी की प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है, उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।

प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह कला-कौशल लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।

कला की परिभाषा॥ Definition of Kala

जीवन में आनन्द का संचार कर मानवीय जीवन को उन्नत बनाती है। मानव जीवन में हुये परिवर्तन एवं विकास के मूल कारण को ही भारतीय विचारकों ने जिस अभिधान से पुकारा है, वह 'कला' है। आचार्यजनों ने कला की परिभाषा इस प्रकार की है-

कम् आनन्दं लाति इति कला।(समी० शा०)[2]

'कं' संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आनन्द और प्रकाश और 'ला' धातु का अर्थ है लाना। अतः वह क्रिया या शक्ति जो आनन्द और प्रकाश लाती हो उसे कला कहा गया है।

कला किसी भी देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं शिल्पशास्त्रीय उपलब्धियों का प्रतीक होती है। भारतीय चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कलासाधन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसका इतिहास भी अत्यन्त समृद्ध रहा है।

विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas

अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि से प्रारंभ होकर प्रस्तुत काल पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय की परम्परा पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी विश्व की प्राचीनतम परम्परा मानी जाती है। विद्या की उपयोगिता जीवन में पग-पग पर अनुभूत की जाती है इसके विना जीवन किसी काम का नहीं रह पाता है। यह सर्व मान्य सिद्धान्त है।

विद्या शब्द की निष्पत्ति विद् धातु में क्यप् और टाप् प्रत्यय के योग से विद्या शब्द निष्पन्न होता है।

जिसका अर्थ ज्ञान, अवगम और शिक्षा माना जाता है। महर्षि भर्तृहरि ने मनुष्य के गोपनीय धन में विद्या का प्रमुख स्थान दिया है-

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ।

प्राचीन भारत में विद्या का जो रूप था वह अत्यन्त सारगर्भित और व्यापक था।

अष्टादश विद्याओं में शामिल हैं-

अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।(याज्ञवल्क्य स्मृति)

आयुर्वेदो   धनुर्वेदो  गांधर्वश्चैव    ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।। (ऋग् ०भा०भूमि०)[3](विष्णु पुराण)

  • चतुर्वेदाः- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेद होते हैं।
  • चत्वारः उपवेदः - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।
  • चत्वारि उपाङ्गानि- पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।
  • षड्वेदाङ्गानि- शिक्षा, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, कल्प और निरुक्त ये छः अङ्ग होते हैं।

यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।

वेदों में कलाऐं

कलाओं का प्रयोजन॥ Purpose of arts

कला का महत्त्व॥ Importance of art

कला का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान में वृद्धि, सदाचार में प्रवृत्ति एवं जीविकोपार्जन में सहायता मिले। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय कला का प्रयोग दैनिक जीवन में कितना व्याप्त रहा है। श्री कृष्णचन्द्र जी को सभी कलाओं की शिक्षा दी गई थी एवं वे सभी कलाओं में प्रवीण थे जैसा कि श्री मद्भागवत जी में भी कहा गया है-

अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।(भाग०महापु०)[4]

केवल चौंसठ दिन रात में ही संयम शिरोमणि दोनों भाइयों ने गुरूजी के एक बार कहने मात्र से चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

अर्जुन नृत्य कला नल भीम आदि पाक कला में निपुण थे। परशुराम द्रोणाचार्य आदि धनुर्वेद में कुशल थे। इससे ज्ञात होता है कि गुरुकुलों में सभी को प्रायः सभी कलाओं की शिक्षा दी जाती रही होगी। परन्तु सभी का स्वभाव साम्य नहीं होता जैसा कि देखा भी जाता है किसी कि प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।(कल्या० शिक्षा०)[5]

राजर्षि भर्तृहरिने ने भी कलाओं का जीवन में महत्त्व बतलाते हुए कहा है कि -

साहित्य सङ्गीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः।

अर्थात् जिस व्यक्ति में कोई कला नहीं है, वह व्यक्ति निश्चित ही पशुरूप है। पशुओं में भी सींग और पूँछ से हीन अर्थात् विकृत एवं अपूर्ण पशुतुल्य कहा गया है।

प्रभुभिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता। कलावान् मान्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना॥

अर्थात् संसार में ज्ञानी लोग कला का ही आदर करते हैं, कुलीनता की नहीं। जैसा कि अनेक देवताओं के होते हुए भी भगवान् शंकर कलावान् चन्द्रमा को ही शिर पर धारण करते हैं।

बौद्ध ग्रन्थ- ललितविस्तर में 64 कलाओंकी सूची एक सूची प्राप्त होती है। कहा जाता है कि बोधिसत्व को गोपा से विवाह करने के लिये कलाओं के ज्ञान की परीक्षा देनी पडी थी।[6]

वंशागत कला॥ Traditional Arts

वंशागत कला के सीखने में अल्प प्रयत्न के द्वारा भी सुगमता पूर्वक पारंगत हुआ जा सकता है। बालकपन से ही उसके वंश-परम्पराकी कलाके संस्कार उसके अन्दर पूर्व से ही जो समाहित रहते हैं गुरुकुल आदि में विद्या अध्ययन करते समय उन कलाओं में उसे शीघ्र ही नैपुण्य प्राप्त हो जाता है एवं गुरुजन आदि भी तदनुकूल कला का ज्ञान भी प्रदत्त करते हैं। सभी विद्याओं में सामन्य प्रवेश उचित है किन्तु वंशागत कला में अरुचि दिखा कर अन्य ओर प्रयत्न करना यह अनुचित पद्धति है। जैसाकि महाभारत आदि में धनुर्धरों के पुत्रों का धनुर्विद्या में निपुण होना एवं यह वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है एक लकडी का कार्य करने वाले का पुत्र जितने जल्दी पिता के कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है उतना अन्य जन नहीं। वर्तमान शिक्षा पद्धति से लोगों को वंशागत कला के कार्यों के प्रति घृणा तथा अरुचि उत्पन्न होती जा रही है जिसके द्वारा पिता दादाजी आदि के पैतृक व्यवसाय नष्ट हो रहे हैं। जैसाकि शुक्राचार्य जी लिखते हैं—

यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥(शु० नीति.4.4.100)[7]

जो मानव जिस-जिस कला में निपुण हैं उन्हैं अपनी उसी नैपुण्य युक्त कला में अभ्यास करने से दक्षता प्राप्त होती है।

कला धर्म॥

जीवन में कला का औचित्य॥ Justification of art in life

संसार की सम्पूर्ण सभ्यताओं का आधार मनुष्य की सुख पाने की अभिलाषा है। मनुष्य की अभिलाषाओं का न तो कभी अंत ही है और न उसकी सुख की लालसा ही समाप्त होती है। कला कार्य करने की वह शैली है जिसमें हमें सुख या आनन्द मिलता है। कला के नाम से ललितकलाओं, संगीतकला, चित्रकला और काव्य कलाऐं आदि ये सब जीवन जीने की कला के अन्तर्गत हैं। जीवन जीने की कला में निपुण होना अर्थात् पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति होना। इसमें यह सब कलाऐं योग देती हैं। भारतीय जीवन विधान में कलाओं को आत्मसात करने के संस्कार बाल्यकाल से ही प्रदत्त किये जाते हैं।

कला एवं समाज॥

कलाकारों का महत्व॥

अर्थोपार्जन क्षेत्र में कला॥

कलाओं की प्राचीनता॥ Antiquity of Arts

समस्त कलाऐं संस्कृतशास्त्र में प्रारंभ से ही व्याप्त हैं किन्तु वर्तमान में उन्हैं नवीन एवं पाश्चात्य देशों से आविर्भाव हुआ है इस प्रकार माना जाता है। इस प्रकार की मान्यता के पीछे मुख्य हेतु है परम्परा से प्राप्त होने वाले ज्ञान का अभाव होना। कुछ कलाओं को उदाहृत किया जाता है जैसे कि-

ललितविस्तर में कही गयी विडिम्बित कला वर्तमान में Miniature अथवा Mimicry के नाम से जानी जाति है एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम् ये कला वर्तमान में Orchestra के नाम से व्याप्त है। इसीप्रकार कामसूत्र में नेपाथ्ययोगाः कला अन्तर्गत वधूनेपथ्यं एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम् कला वर्तमान में Beauty parlor के नाम से व्यवसाय के रूप में देखी जा सकती है।

शुक्रनीतिसार में वर्णित कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् कला Ladies tailor इस नाम से कार्यकरने वालों के द्वारा व्यवहार में प्रचलित है एवं कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् कला Imitation Jewelry कर्म में प्रयुक्त है। वात्स्यायनसूत्र उक्त विशेषकच्छेद्यम् कला body designing by Tattoes निर्माण के रूप में विश्व में व्याप्त है। क्रीडाओं (खेलों) में भी वाजिवाह्यालिक्रीडा Polo इस नाम से व्याप्त है। धरणीपात-भासुर-मारादियुद्धानि कला Freestyle wrestling कलाऐं इस प्रकार के रूपों में परिवर्तित होकर संसार में अर्थोपार्जन (रुपया एकत्रित करना) के साधन रूप में प्रयुक्त हैं।[8]

उद्धरण॥ References

  1. Kapoor Kapil and Singh Avadhesh Kumar, Bharat's Knowledge Systems, Vol.1, NewDelhi: D.K.Printworld, Pg.no.11
  2. श्री सीताराम चतुर्वेदी,समीक्षा शास्त्र, इलाहाबादः साधना सदन,सन् १९६६ पृ०२०६।
  3. पं० श्री जगन्नाथ पाठक,ऋग्वेदभाष्य भूमिका(हिन्दी व्यख्यायुक्त),सन् २०१५,वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन पृ० ५३।
  4. श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।
  5. पं०श्री दुर्गादत्त जी त्रिपाठी, प्राचीन शिक्षा में चौंसठ कलाऐं, शिक्षांक, सन् १९८८, गोरखपुर गीताप्रेस पृ०१२९।
  6. ललितविस्तर, शान्तिभिक्षु शास्त्री, शिल्पसन्दर्शन परिवर्त, सन् १९८४, लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पृ० २८२।
  7. श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः,अध्याय०४ प्रकरण०४ श्लोक०१००, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् पृ०३६९।
  8. आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड, भूमिका, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० १७।