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=== कृष्ण अष्टमी ===
 
=== कृष्ण अष्टमी ===
आश्विन कृष्ण अष्टमी को अपने पुत्र की आयु बढ़ाने के लिए या जिसके पुत्र होकर मर जाते हैं, इस व्रत के करने से पुत्र जीवित और चिरायु होते हैं। अष्टमी को नित्यकार्य करने के पश्चात् सोने की प्रतिमा बनाकर सूर्य नारायण का पूर्वोक्त षोडशोपचार विधि से पूजन करें। एक समय बाजरा तथा चने के अन्न का भोजन करें, ब्रह्मचर्य से रहें, सारी रात जागरण करें, दूसरे दिन प्रात: समय उठकर, स्नानादि करके व्रत का आरम्भ करने के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। फिर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार पांच तथा सात वर्ष तक करने के पश्चात्  ईसका उद्यापन करें। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके पुत्र चिरायु होते हैं। व्रत कथा-एक समय धौम्य नामक ऋषि की पत्नी सुकेसी के छ: पुत्र हुए, परन्तु विवाह होते ही पुत्र की मृत्यु हो जाती। इस दशा में सुकेसी ने अपने प्राणों का त्याग करने का निश्चय किया। तब धौम्य ऋषि ने उसका धैर्य बंधाया और वह आप पुरी से भगवान कृष्ण के पास चले गये। वहां जाकर ऋषि ने कहा कि-"तुम्हें राज्य पर धिक्कार है, जिसमें स्त्रियों के पुत्रों की मृत्यु उसके माता-पिता के सामने होती है। यदि किसी का पुत्र अपने माता-पिता के सामने को प्राप्त हो जाये तो उस देश के राजा को अधर्मी समझना चाहिए। अन्यथा, धर्मात्मा राजा के राज्य में कभी भी पुत्र की मृत्यु माता-पिता के सामने नहीं हो सकती। तुमको राज्य करने का कोई अधिकार नहीं है।"
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आश्विन कृष्ण अष्टमी को अपने पुत्र की आयु बढ़ाने के लिए या जिसके पुत्र होकर मर जाते हैं, इस व्रत के करने से पुत्र जीवित और चिरायु होते हैं। अष्टमी को नित्यकार्य करने के पश्चात् सोने की प्रतिमा बनाकर सूर्य नारायण का पूर्वोक्त षोडशोपचार विधि से पूजन करें। एक समय बाजरा तथा चने के अन्न का भोजन करें, ब्रह्मचर्य से रहें, सारी रात जागरण करें, दूसरे दिन प्रात: समय उठकर, स्नानादि करके व्रत का आरम्भ करने के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। फिर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार पांच तथा सात वर्ष तक करने के पश्चात्  ईसका उद्यापन करें। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके पुत्र चिरायु होते हैं।  
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==== व्रत कथा- ====
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एक समय धौम्य नामक ऋषि की पत्नी सुकेसी के छ: पुत्र हुए, परन्तु विवाह होते ही पुत्र की मृत्यु हो जाती। इस दशा में सुकेसी ने अपने प्राणों का त्याग करने का निश्चय किया। तब धौम्य ऋषि ने उसका धैर्य बंधाया और वह आप पुरी से भगवान कृष्ण के पास चले गये। वहां जाकर ऋषि ने कहा कि-"तुम्हें राज्य पर धिक्कार है, जिसमें स्त्रियों के पुत्रों की मृत्यु उसके माता-पिता के सामने होती है। यदि किसी का पुत्र अपने माता-पिता के सामने को प्राप्त हो जाये तो उस देश के राजा को अधर्मी समझना चाहिए। अन्यथा, धर्मात्मा राजा के राज्य में कभी भी पुत्र की मृत्यु माता-पिता के सामने नहीं हो सकती। तुमको राज्य करने का कोई अधिकार नहीं है।"भगवान कृष्ण कहने लगे कि "हे ब्राह्मण! जीना अथवा मरना यह तो अपने कर्मों के अधीन है, इसमें किसी का कोई वश नहीं चलता, तुम्हारे पुत्रों का तुम्हारा इतना ही संयोग था।" तब धौम्य ऋषि कहने लगे कि-"यदि तुम मेरे पुत्र की रक्षा का वचन नहीं दोगे तो मैं और मेरी स्त्री यहीं पर अपने प्राण दे देंगे।" उनके वचनों को सुनकर श्रीकृष्णजी बोले-“हे ब्राह्मण! अब थोड़े ही दिनों में आश्विन कृष्ण अष्टमी आने वाली है,  उस दिन तुम भगवान सूर्य की प्रसन्नता के लिए, उनके पुत्र जीजि के नाम का सपत्नीक व्रत करो, इस व्रत के करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जायेंगे और तुम्हारा सातवां पुत्र जीवित रहकर चिरायु होगा। इस कार्य में तुम्हारी रक्षा मैं स्वयं करूंगा।
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सातवें पुत्र के होते ही धौम्य ऋषि ने सपत्नीक इस व्रत को किया और सूर्य भगवान से पुत्र के चिरायु होने की प्रार्थना की। ब्राह्मण की प्रार्थना और व्रत के प्रभाव से, सूर्य के रथ की गति रुक गई और उन्होंने अपनी माला में से एक पुष्प निकालकर ऋषि की पत्नी पर गिरा दिया और उनका रथ आगे बढ़ गया। कुछ काल व्यतीत होने पर ब्राह्मण के पुत्र के प्राणों को हरने यमराज आया तो ब्राह्माणी उसे देखकर चिल्लाई और धौम्य ऋषि ने उसी समय भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की, तब भगवान श्रीकृष्ण उसी समय आकर ब्राह्मणी से कहने लगा कि तुम किसी प्रकार का भय मत करो, सूर्य का दिया हुआ पुष्प पुत्र के शरीर से स्पर्श कर दो और उस पुष्प को यमराज पर फेंक दो, यमराज स्वयं ही भस्म हो जायेगा। ब्राह्मण ने ऐसा ही करना चाहा परन्तु जब वह पुष्प यमराज को मारने लगा तो यमराज भाग खड़ा हुआ। ब्राह्मण ने पुष्प उठाकर यमराज की तरफ फेंका तो यमराज के लगते ही यमराज काला स्याह शनिश्चर के रूप सा हो गया। भगवान ने ब्राह्मण के पुत्र को अभयदान दिया, तब शनिश्चर को पीपल के वृक्ष पर रहने का स्थान दिया।
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इस प्रकार से सूर्य-पुत्र जीजि के इस प्रकार से सूर्य-पुत्र जीजि के व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण के पुत्र के प्राण बच गये और ब्राह्मण और ब्राह्मणी पुत्र-शोक के दुःख से मुक्त हो गये। अतः जो कोई सूर्य-पुत्र जीजि के व्रत को करता है, उसके पुत्र और पौत्र चिरायु को प्राप्त होते हैं। जो कोई इस कथा को सुनता या पढ़ता है उसे भी कभी पुत्र-शोक प्राप्त नहीं होता।
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=== आशा भगौति का व्रत ===
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यह व्रत मुख्यत: स्त्रियों के लिए होता है। इसके करने से अन्न, धन, सुख, सौभाग्य की वृद्धि होती है। कन्या को मनचाहे सुयोग्य वर की प्राप्ति होती है। निर्धन को धन एवं निपुत्र को पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने वाले सूर्योदय से पूर्व स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। आठ कोनों को गोबर-मिट्टी से चौका देकर आशा भगौति की कथा सुने। फिर आठ कोनों पर आठ-आठ दूब, 8-8 पैसे, 8-8 चीटकी, 1-1 सुहाली और 1-1 फल चढ़ायें। 8-8 रोली की, 8-8 काजल की बिन्दी रखें। आठों कोनों पर 1-1 दीपक जलायें। इस प्रकार नित्यप्रति 8 रोज तक पूजन करें। कहानी सुनें। आठवें रोज 1-1 सुहाग पिटारी आठों कोनों पर चढ़ायें और इसी रोज व्रत भी रखते हैं। व्रत वाले आठों दिन 7 सुहाली का बायना काढ़कर सासुजी को चरण छूकर देना चाहिए। स्वयं भी आठ सुहाली तथा फल एक समय खाकर व्रत रखें। इस प्रकार यह व्रत 8 वर्ष तक करें। नवें वर्ष में उजमन करें। उपरोक्त विधि के अनुसार आशा भगौती का पूजन करना चाहिए। इसके लिए आठ सुहाग पिटारी मंगवायें। जिनमें सुहाग की सभी वस्तुएं हों, फिर आठ सुहाग पिटारी आठों कोनों पर चढ़ाकर एक सुहाग पिटारी सासुजी के चरण छूकर दें। आगे सुहाग पिटारियों में एक-एक सुहाली भी रख दें। इसके बाद आठ सुहागिन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर प्रत्येक को एक-एक सुहाग पिटारी और दक्षिणा दें। आशा भगौति का पूजन करें, उसके बाद उनके व्रत की कहानी सुननी चाहिए।
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==== व्रत कथा- ====
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बहुत समय पहले की बात है कि हिमालय नामक एक राजा के गौरी तथा पार्वती नाम की दो पुत्रियां थीं। एक दिन हिमालय ने उन दोनों को पूछा-"तुम दोनों किसके भाग्य का खाती हो?" इस पर पार्वती बोली-"मैं तो अपने भाग्य का खाती गौरी ने कहा-"मैं तो आपके ही भाग्य का खाती हूं।" यह सुनकर राजा ने पुरोहित को बुलाकर गौरी के लिए राजकुमार और पार्वती के लिए भिखारी वर ढूंढें। पुरोहित राजआज्ञा से वर खोजने निकल पड़ा। शिव रूप में भिखारी को देखकर पुरोहित ने पार्वतीजी का विवाह उस भिखारी से तय कर दिया और गौरी का विवाह सुन्दर राजकुमार से तय कर दिया। कुछ दिनों के उपरान्त गौरी की बारात का स्वागत खूब धूम-धाम से किया गया। साथ ही बहुत-सा दहेज भी दिया, परन्तु जब पार्वती की बारात आई तो राजा ने उनका कोई सत्कार नहीं किया, केवल कन्यादान देकर पार्वती को विदा कर दिया। शिवजी पार्वती को लेकर कैलाश पर्वत पर आ गए। पार्वती जहां पार्वती जहां कदम रखती वहीं की घास जल जाती। यह देखकर शिवजी ने पण्डितों से इसका कारण पूछा। पण्डितों ने सोच-विचार कर कहा-"पार्वती व इनकी भाभियां आशा भगौति का व्रत करती थीं। इनकी भाभियों ने मायके जाकर उजमन व्रत किया, किन्तु पार्वती ने उजमन नहीं किया। यदि पार्वतीजी भी अपने घर जाकर व्रत तथा उजमन करें तो सब दोष दूर हो जायेगा।"
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इस प्रकार पण्डितों के बताने पर शिवजी और पार्वतीजो खूब कपड़े व गहने पहनकर पार्वतीजी के मायके जाने को तैयार हुए कुछ दूर जाने पर इन्होंने देखा कि एक रानी के बच्चा होने वाला था। वह बहुत कष्ट में थी। यह देखकर पार्वतीजी
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