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→‎कृष्ण अष्टमी: लेख संपादित किया
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बहुत समय पहले की बात है कि हिमालय नामक एक राजा के गौरी तथा पार्वती नाम की दो पुत्रियां थीं। एक दिन हिमालय ने उन दोनों को पूछा-"तुम दोनों किसके भाग्य का खाती हो?" इस पर पार्वती बोली-"मैं तो अपने भाग्य का खाती गौरी ने कहा-"मैं तो आपके ही भाग्य का खाती हूं।" यह सुनकर राजा ने पुरोहित को बुलाकर गौरी के लिए राजकुमार और पार्वती के लिए भिखारी वर ढूंढें। पुरोहित राजआज्ञा से वर खोजने निकल पड़ा। शिव रूप में भिखारी को देखकर पुरोहित ने पार्वतीजी का विवाह उस भिखारी से तय कर दिया और गौरी का विवाह सुन्दर राजकुमार से तय कर दिया। कुछ दिनों के उपरान्त गौरी की बारात का स्वागत खूब धूम-धाम से किया गया। साथ ही बहुत-सा दहेज भी दिया, परन्तु जब पार्वती की बारात आई तो राजा ने उनका कोई सत्कार नहीं किया, केवल कन्यादान देकर पार्वती को विदा कर दिया। शिवजी पार्वती को लेकर कैलाश पर्वत पर आ गए। पार्वती जहां पार्वती जहां कदम रखती वहीं की घास जल जाती। यह देखकर शिवजी ने पण्डितों से इसका कारण पूछा। पण्डितों ने सोच-विचार कर कहा-"पार्वती व इनकी भाभियां आशा भगौति का व्रत करती थीं। इनकी भाभियों ने मायके जाकर उजमन व्रत किया, किन्तु पार्वती ने उजमन नहीं किया। यदि पार्वतीजी भी अपने घर जाकर व्रत तथा उजमन करें तो सब दोष दूर हो जायेगा।"
 
बहुत समय पहले की बात है कि हिमालय नामक एक राजा के गौरी तथा पार्वती नाम की दो पुत्रियां थीं। एक दिन हिमालय ने उन दोनों को पूछा-"तुम दोनों किसके भाग्य का खाती हो?" इस पर पार्वती बोली-"मैं तो अपने भाग्य का खाती गौरी ने कहा-"मैं तो आपके ही भाग्य का खाती हूं।" यह सुनकर राजा ने पुरोहित को बुलाकर गौरी के लिए राजकुमार और पार्वती के लिए भिखारी वर ढूंढें। पुरोहित राजआज्ञा से वर खोजने निकल पड़ा। शिव रूप में भिखारी को देखकर पुरोहित ने पार्वतीजी का विवाह उस भिखारी से तय कर दिया और गौरी का विवाह सुन्दर राजकुमार से तय कर दिया। कुछ दिनों के उपरान्त गौरी की बारात का स्वागत खूब धूम-धाम से किया गया। साथ ही बहुत-सा दहेज भी दिया, परन्तु जब पार्वती की बारात आई तो राजा ने उनका कोई सत्कार नहीं किया, केवल कन्यादान देकर पार्वती को विदा कर दिया। शिवजी पार्वती को लेकर कैलाश पर्वत पर आ गए। पार्वती जहां पार्वती जहां कदम रखती वहीं की घास जल जाती। यह देखकर शिवजी ने पण्डितों से इसका कारण पूछा। पण्डितों ने सोच-विचार कर कहा-"पार्वती व इनकी भाभियां आशा भगौति का व्रत करती थीं। इनकी भाभियों ने मायके जाकर उजमन व्रत किया, किन्तु पार्वती ने उजमन नहीं किया। यदि पार्वतीजी भी अपने घर जाकर व्रत तथा उजमन करें तो सब दोष दूर हो जायेगा।"
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इस प्रकार पण्डितों के बताने पर शिवजी और पार्वतीजो खूब कपड़े व गहने पहनकर पार्वतीजी के मायके जाने को तैयार हुए कुछ दूर जाने पर इन्होंने देखा कि एक रानी के बच्चा होने वाला था। वह बहुत कष्ट में थी। यह देखकर पार्वतीजी
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इस प्रकार पण्डितों के बताने पर शिवजी और पार्वतीजो खूब कपड़े व गहने पहनकर पार्वतीजी के मायके जाने को तैयार हुए कुछ दूर जाने पर इन्होंने देखा कि एक रानी के बच्चा होने वाला था। वह बहुत कष्ट में थी। यह देखकर पार्वतीजी शिवजी से बोली-“हे नाथ! बच्चा होने में बहुत कष्ट होता है अत: मेरी कोख बन्द कर दो।" शिवजी ने कहा-“तुम कोख बन्द करवाकर बहुत पछताओगी। ऐसा मत करवाओं |"  थोड़ी दूर चलकर देखा फिर घोड़ी के बच्चा हो रहा है, उसे भी बहुत कष्ट है। यह देखकर पार्वतीजी ने फिर शिवजी से कहा-“हे नाथ| आप मेरी कोख बन्द कर दें, तभी आगे चलूंगी।" जब बहुत समझाने पर भी पार्वतीजी ना मानीं तो उन्होंने निराश होकर पार्वतीजी की कोख बन्द कर दी। वे सजे-धजे आगे बढ़ गये। उधर गौरी ससुराल में बहुत दुःखीं थी। इधर जब पार्वती शिवजी के साथ अपने मायके पहुंची तो उनके माता-पिता एकाएक उन्हें पहचान न सके। जब पार्वतीजी ने अपना नाम बताया तो राजा-रानी बहुत खुश हुए। राजा को अपनी कही हुई पुरानी याद आ गयीं। उन्होंने पार्वती से पुनः पूछा-"तू किसके भाग्य का खाती है।
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पार्वतीजी ने कहा-"मैं तो अपने भाग्य का खाती हूं।" यह कहकर पार्वतीजी अपनी भाभियों के पास चली गयीं। वे आशा भगौति का व्रत उजमन कर रही थीं। पार्वतीजी के निवेदन पर शिवजी ने एक मुन्दड़ी भेजकर कहा-"इससे जो भी मांगोगी मिलता जायेगा।" पार्वतीजी के मांगते ही मुन्दड़ी ने समस्त सामानों का ढेर लगा दिया। इसके बाद सबने बड़ी धूमधाम से व्रत व उजमन किया। राजा के निवेदन करने पर शिवजी ने खूब मिष्ठान व स्वादिष्ट भोजन किया। यह देखकर लोग कहने लगे, "पार्वती भिखारी को दी गई थी लेकिन अपने भाग्य के कारण राज कर रही है।" शिवजी ने इतना भोजन किया कि भण्डारगृह में पतली सब्जी के सिवाय कुछ ना बचा। पीछे से पार्वतीजी वहो सब्जी खाकर व पानी पीकर शिवजी के साथ चल पड़ी। मार्ग में जब शिवजी ने पार्वती से भोजन के विषय में पूछा तो बोलीं-“हे नाथ! जो आपने खाया वही मैंने भी खाया।" शिवजी ने हँसकर कहा-"तुम तो सब्जी व पानी पीकर ही आई हो।"
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पार्वतीजी ने बात को गुप्त रखने का निवदेन किया। थोड़ी देर बाद जब आगे चले तो सूखी घास पर पैर पड़ते ही वह हरी हो गयी। आगे चलने पर घोड़ी के पास घोड़ी का बच्चा खेलता मिला। यह देखकर पार्वतीजी बोली-"स्वामी। मेरी कोख खोल दो।" शिवजी ने कहा-"मैंने तुम्हें पहले ही मना किया था। कोख बन्द मत कराओ। जब और आगे बढ़े तो उन्हें पूजन हेतु रानी यमुना जाती हुई मिलीं। पार्वतीजी के पूछने पर शिवजी ने उन्हें उस पीड़ा प्रसव पीड़ाग्रस्त रानी के विषय में याद दिलाया। अब तो पार्वतीजी हठ करने लगी। शिवजी ने मैल से गणेशजी बनाकर सब नेग चारकर पार्वतीजी से यमुना पूजन कराया।
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इसके बाद पार्वतीजी बोलीं-"मैं तो सुहाग बांदूंगी।" यह सुनकर सभी पार्वतीजी से सुहाग लेने आईं। ब्राह्मणी एवं वैश्य नारियां सुहाग लेने देर से पहुंची। शिवजी ने इन्हें भी सुहाग देने को कहा। पार्वतीजी ने कहा-"मैं सबको बांट चुकी हूं।" शिवजी के आग्रह करने पर उन्हें भी थोड़ा-थोड़ा सुहाग दे दिया। इस प्रकार किसी को निराश न होना पड़ा।" अत: हे पार्वतीजी! जैसे आपने उन सबको सुहाग दिया। वैसे ही हमें भी सुहाग देना। यह व्रत और उजमन कुमारी लड़कियों के लिए विशेष रूप से फलदायी है।
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=== महालक्ष्मी व्रत ===
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महालक्ष्मी व्रत राधा अष्टमी से आरम्भ होता है तथा आश्विनी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समाप्त होता है। इस दिन लक्ष्मीजी की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम लक्ष्मीजी की मूर्ति को स्नान कराके फिर नये-नये वस्त्र पहनाकर भोग लगायें तथा आचमन कराकर फूल, धूप, दीप, चन्दन इत्यादि से आरती करें एवं भोग को आरती के पश्चात् वितरण कर दें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने पर उसे अर्घ्य दें एवं आरती करें फिर स्वयं भोजन करें। इस व्रत के करने से धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख मिलता है। व्रत कथा-प्राचीन समय में किसी गांव में एक विद्वान, गरीब ब्राह्मण रहता था, जो नियम का बहुत पक्का था। एक जंगल में पुराना विष्णु भगवान का मन्दिर था। इसमें वह नित्यप्रति नियम से पूजा करने जाया करता था। उसकी पूजा को देखकर भगवान विष्णु उस पर प्रसन्न हुए तथा उसे दर्शन दिए। भगवान ने उसे धन देने का निश्चय कर लिया तथा उसे धन प्राप्त करने का तरीका बताया कि मन्दिर के सामने एक औरत कंडे थापने आती है, सुबह आकर उससे अपने घर रहने का आग्रह करना और तब तक न छोड़ना जब तक वह तुम्हारे घर रहने के लिए स्वीकार न कर ले। वह मेरी स्त्री लक्ष्मी है। उसके तुम्हारे घर आते ही सारे दु:ख दूर हो जायेंगे। इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और ब्राह्मण अपने घर चला गया। दूसरे दिन वह सुबह-सवेरे ही मन्दिर में जाकर उसने आंचल पकड़ लिया। उसने देखा कि वह एक ब्राह्मण है, उससे उन्होंने आंचल छोड़ने को कहा। ब्राह्मण बोला-"तुम मुझसे वादा करो कि तुम मेरे घर में वास करने आओगी।" इस प्रकार लक्ष्मीजी उस ब्राह्मण के घर वास करने लगों। अत: उसका घर धन-धान्य से भर गया। अतएव यह व्रत लक्ष्मीजी के नाम से ही जाना जाता है।
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