Changes

Jump to navigation Jump to search
सुधार जारि
Line 20: Line 20:  
* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
 
* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
   −
इनमें से कुछ ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
+
इनमें से कुछ ग्रंथों में वर्णित कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
    
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
|+चौंसठ कलाऍं॥ Chatusshashti Kala (64 Arts)
+
|+कलाऍं ॥ Kala (Arts)
 
!क्र.सं.
 
!क्र.सं.
 
!ललितविस्तर <ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।</ref>
 
!ललितविस्तर <ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।</ref>
Line 657: Line 657:  
रघुवंश महाकाव्य में महाराज कुश की कलानिपुण अन्तःपुरिकाओं को सरयू नदी में इस कला का आनन्द लेते हुये वर्णित किया गया है। इस वारि-मृदंग ध्वनि का अभिनन्दन तटवर्ती मयूर अपनी केका ध्वनि से करते हैं। वस्तुतः जलप्रवाह में स्वयं ही एक नाद और छन्द होता है। जल के इस नाद को राग और लय में बाँध लेना ही मानवीय कौशल है जिसे प्राचीन भारत की नागरिकाओं ने जलक्रीड़ा के माध्यम से अधिगत किया था।
 
रघुवंश महाकाव्य में महाराज कुश की कलानिपुण अन्तःपुरिकाओं को सरयू नदी में इस कला का आनन्द लेते हुये वर्णित किया गया है। इस वारि-मृदंग ध्वनि का अभिनन्दन तटवर्ती मयूर अपनी केका ध्वनि से करते हैं। वस्तुतः जलप्रवाह में स्वयं ही एक नाद और छन्द होता है। जल के इस नाद को राग और लय में बाँध लेना ही मानवीय कौशल है जिसे प्राचीन भारत की नागरिकाओं ने जलक्रीड़ा के माध्यम से अधिगत किया था।
   −
(ii) उदकघात-‘उदकघात’ का अर्थ है-जल से आघात; अर्थात् मनोरंजन के लिये एक दूसरे पर जल के छींटे मारना। यह दो प्रकार से संभव है- हाथ से अथवा यन्त्र (पिचकारी) से। जलक्रीड़ा में सच्चा विनोद या मनोरंजन इसी क्रिया से होता है। मोती के समान स्थूल जलकणों से जब प्रहार किया जाता है, तब विलासिनियों को अपने टूटते हुये मुक्ताहारों का भी बोध नहीं रहता। जल से मोती की लड़ियों या चाँद की कतारों का बनना तभी संभव है जब निरन्तर एक लय में पानी उछाला जाये और यही इस विनोद का कलात्मक पक्ष है।
+
=== उदकघातः ॥ Udakaghata ===
 +
उदकघात-‘उदकघात’ का अर्थ है-जल से आघात; अर्थात् मनोरंजन के लिये एक दूसरे पर जल के छींटे मारना। यह दो प्रकार से संभव है- हाथ से अथवा यन्त्र (पिचकारी) से। जलक्रीड़ा में सच्चा विनोद या मनोरंजन इसी क्रिया से होता है। मोती के समान स्थूल जलकणों से जब प्रहार किया जाता है, तब विलासिनियों को अपने टूटते हुये मुक्ताहारों का भी बोध नहीं रहता। जल से मोती की लड़ियों या चाँद की कतारों का बनना तभी संभव है जब निरन्तर एक लय में पानी उछाला जाये और यही इस विनोद का कलात्मक पक्ष है।
    
इस कला का दूसरा रूप है- पिचकारी से जलाघात। महाकवि माघ के अनुसार इस कलात्मक विनोद के साधन हैं- स्वर्णरचित चमकते हुये शृंग, कस्तूरी-कुङ्कुमादि सुगन्धित द्रव्य, कुसुम्भी रंग के वस्त्र, मादक मदिरा और प्रिय का सान्निध्य। वर्तमान होली या फाग के रूप में यह कला आज भी जीवित है।
 
इस कला का दूसरा रूप है- पिचकारी से जलाघात। महाकवि माघ के अनुसार इस कलात्मक विनोद के साधन हैं- स्वर्णरचित चमकते हुये शृंग, कस्तूरी-कुङ्कुमादि सुगन्धित द्रव्य, कुसुम्भी रंग के वस्त्र, मादक मदिरा और प्रिय का सान्निध्य। वर्तमान होली या फाग के रूप में यह कला आज भी जीवित है।
  −
=== उदकघातः ॥ Udakaghata ===
      
=== चित्रायोगाः ॥ Chitrayoga ===
 
=== चित्रायोगाः ॥ Chitrayoga ===
 
मणि, मन्त्र, औषधियों के विचित्र प्रयोगों की विद्या या इनकी शक्ति से असंभव को भी संभव बना लेने की कला 'चित्रयोग' कही गई है। इस कला का बीज ऋग्वेद में एवं विकसित स्वरूप अथर्ववेद में प्राप्त होता है । ऋग्वेद में यज्ञों में प्रयुक्त हवि से असपत्न (शत्रुहीन) होने की कामना की गई है
 
मणि, मन्त्र, औषधियों के विचित्र प्रयोगों की विद्या या इनकी शक्ति से असंभव को भी संभव बना लेने की कला 'चित्रयोग' कही गई है। इस कला का बीज ऋग्वेद में एवं विकसित स्वरूप अथर्ववेद में प्राप्त होता है । ऋग्वेद में यज्ञों में प्रयुक्त हवि से असपत्न (शत्रुहीन) होने की कामना की गई है
   −
अभीवर्तेन हविषा येनेन्द्रो अभिवावृते । तेनास्मान् ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्तय ।। येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्नः किलाभुवम् ।। *
+
अभीवर्तेन हविषा येनेन्द्रो अभिवावृते । तेनास्मान् ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्तय ।। येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्नः किलाभुवम् ।।
 
  −
रघुवंश 16/62 2. अनवरतकरास्फालन-स्फुरत्फेनबिन्दुचन्द्रकितम् (कादम्बरी पृ. 182) शिशुपालवध 8/30 ऋग्वेद 10/174/1,4
      
अथर्ववेद में 'जगिड' मणि को कृत्या-नाशिनी, आरोग्यदायिनी और आयुष्यवर्धिनी कहा गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के औपनिषदिक अधिकरण में ऐसे अनेक अद्भुत योगों, भैषज्य और मन्त्र प्रयोगों का वर्णन है, जिनसे रूपपरिवर्तन, महीनों तक भूख न लगना, श्वेतीकरण, कुष्ठयोग, शरीर पर बिना पीड़ा के आग जला लेना, अंगारों के ऊपर चलना, मुँह से आग छोड़ना, जल में आग जलाना, घन अंधकार में भी वस्तुओं को देख पाना, अदृश्य हो जाना, पानी पर चलना आदि अद्भुत क्रियाओं को किया जा सकता है। 'प्रस्वापन' मंत्र की शक्ति से सभी को सुला देना, बन्द दरवाजे को खोल देना, आदि विस्मयजनक यौगिक क्रियायों का वर्णन भी हुआ है। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण में 'चित्रयोग' नामक प्रकरण में भी ऐसे अद्भुत प्रयोगों का निरूपण हुआ है।
 
अथर्ववेद में 'जगिड' मणि को कृत्या-नाशिनी, आरोग्यदायिनी और आयुष्यवर्धिनी कहा गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के औपनिषदिक अधिकरण में ऐसे अनेक अद्भुत योगों, भैषज्य और मन्त्र प्रयोगों का वर्णन है, जिनसे रूपपरिवर्तन, महीनों तक भूख न लगना, श्वेतीकरण, कुष्ठयोग, शरीर पर बिना पीड़ा के आग जला लेना, अंगारों के ऊपर चलना, मुँह से आग छोड़ना, जल में आग जलाना, घन अंधकार में भी वस्तुओं को देख पाना, अदृश्य हो जाना, पानी पर चलना आदि अद्भुत क्रियाओं को किया जा सकता है। 'प्रस्वापन' मंत्र की शक्ति से सभी को सुला देना, बन्द दरवाजे को खोल देना, आदि विस्मयजनक यौगिक क्रियायों का वर्णन भी हुआ है। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण में 'चित्रयोग' नामक प्रकरण में भी ऐसे अद्भुत प्रयोगों का निरूपण हुआ है।
Line 677: Line 674:  
ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।
 
ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।
   −
संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई 'प्रालम्ब' मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने
+
संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई 'प्रालम्ब' मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।
    +
इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।
   −
कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।
+
भरतमुनि के अनुसार संरचना की दृष्टि से माल्य पाँच प्रकार के होते हैं वेष्टिम, संघात्य, ग्रन्थिमत् एवं प्रलम्बित ‘माल्यग्रथन' एक सुन्दर हस्तशिल्प था जिसमें अन्य कलाओं की भाँति ही विदग्धता की अपेक्षा रहती थी। माल्यग्रथन की अनेक व्यक्तिगत शैलियाँ थीं। कुन्दमाला नाटक इसका सुन्दर उदाहरण है। माल्यग्रथनविकल्प जीवन के शृंगार की कला है। यह प्रेम की ऐसी मूक भाषा है, जिसे मानव ने कोमल पुष्पों के बहुवर्णी वैविध्य के माध्यम से मुखर किया है।
 
  −
इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों
  −
 
  −
का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।
  −
 
  −
भरतमुनि के अनुसार संरचना की दृष्टि से माल्य पाँच प्रकार के होते हैं वेष्टिम, संघात्य, ग्रन्थिमत् एवं प्रलम्बित
  −
 
  −
‘माल्यग्रथन' एक सुन्दर हस्तशिल्प था जिसमें अन्य कलाओं की भाँति ही विदग्धता की अपेक्षा रहती थी। माल्यग्रथन की अनेक व्यक्तिगत शैलियाँ थीं। कुन्दमाला नाटक इसका सुन्दर उदाहरण है। माल्यग्रथनविकल्प जीवन के शृंगार की कला है। यह प्रेम की ऐसी मूक भाषा है, जिसे मानव ने कोमल पुष्पों के बहुवर्णी वैविध्य के माध्यम से मुखर किया है। शेखरकापीडयोजनम्
      
=== केशशेखरापीडयोजनम् ॥ Keshashekharapeeda yojana ===
 
=== केशशेखरापीडयोजनम् ॥ Keshashekharapeeda yojana ===
Line 716: Line 706:     
=== गन्धयुक्तिः ॥ Gandhayukti ===
 
=== गन्धयुक्तिः ॥ Gandhayukti ===
 +
गन्ध पृथ्वी का गुण है। प्रत्येक पार्थिव तत्त्व में यही गन्ध बसी हुई है। प्रकृति ने मानव को उपहार के रूप में पुष्प, चन्दन, केसर, कुकुम, अगुरु, कस्तूरी जैसे सुगंधित द्रव्य प्रदान किये हैं। निसर्ग के इन उपादानों का बहुविध संयोजन कर मानव ने गन्धयुक्ति की कला विकसित की है। कलाप्रेमी भारत के नागरक-नागरिकाओं को संभवतः सर्वाधिक प्रेम सुगन्धित द्रव्यों से रहा है। वाल्मीकि का साक्ष्य इसका प्रमाण है। अयोध्या के नागरिकों में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो सुगन्ध का उपयोग न करता हो । वस्तुतः प्राचीन भारत में गर्भाधान से लेकर, अन्त्येष्टि पर्यन्त मानव के सम्पूर्ण जीवन में सुगन्ध रची बसी थी।
 +
 +
मूलतः पाँच प्रक्रियाओं से गन्ध प्राप्त की जा सकती थी
 +
 +
(i)चूर्ण से; यथा- लोध्रचूर्ण, पारिजातचूर्ण आदि।
 +
 +
(ii) घर्षण से; यथा- चन्दन, अगुरुपंक आदि को पानी के साथ घिस कर प्राप्त किया जाता था।
 +
 +
(ii) दाहाकर्षण से–विभिन्न प्रकार की धूप, गुग्गुलु आदि को जलाकर सुगन्ध पाई जाती थी।
 +
 +
(iv) सम्मर्दन से-करवी, बिल्व, गन्धिनी, केतकी आदि के पत्र-पुष्पों के निष्पीडन से सुगन्धित रस निकाला जाता था।
 +
 +
(v) प्राणी के अंग से; यथा मृगनाभि से उत्पन्न कस्तूरी से।
 +
 +
बृहत्संहिता में निम्नलिखित हुआ है-गन्धोदक, गन्धद्रव्य, गन्धधूप, गन्धतेल, शिरःस्नान, स्नानचूर्ण, पटवास एवं मुखवास । वराहमिहिर के अनुसार गणित के प्रकार एवं प्रस्तार भेद से गन्धों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार सात सौ बीस तक हो सकती है। बकुल चम्पक, अतिमुक्तक, उत्पल आदि के समान कृत्रिम गन्ध भी बनाई जा सकती है।
 +
 +
सुगन्धित यौगिकों की निर्माण विधि एवं उपयोग का वर्णन
    
=== भूषणयोजनम् ॥ Bhushanayojana ===
 
=== भूषणयोजनम् ॥ Bhushanayojana ===
 +
शरीर के विभिन्न अंगों को भूषित करने वाले आभूषणों की योजना भी एक कला है। मानव के अत्यधिक अलंकरण- प्रेम, जीवन के प्रति कलात्मक दृष्टिकोण एवं प्राचीनभारत की भौतिक समृद्धि ने भूषण-योजन की कला को जन्म दिया है।
 +
 +
इस कला के दो रूप हैं- प्रथम विभिन्न अंगों में इस प्रकार आभूषणों की योजना करना कि वे सम्पूर्ण शरीर एवं उसके माध्यम से समग्र व्यक्तित्व को मण्डित करने वाले वन जायें । कला का यह रूप नेपथ्य - विधि का अंग है। द्वितीय प्रकार है कि आभूषणों में इस प्रकार मणि-मुक्ता रत्नादि की योजना करना कि वे स्वयं एक ललित कलासृष्टि बन जायें। अतः इस शिल्प का सम्बन्ध आभूषणरचना या निर्माण की कला से है। संस्कृत साहित्य में निम्नलिखित आभूषणों की योजना हुई हैं
 +
 +
(1) शिरोभूषण-मस्तकी, अर्द्धमुकुट, पट्टबन्ध, शिखापाश, चूड़ामणि, मुकुट, किरीट, चूड़ामणिमकरिका, चटुला तिलकमणि, आदि ।
 +
 +
(2) कर्णाभूषण-कुण्डक, शिखिपत्र, वेणीगुच्छ, मोचक, कर्णिका, कर्णवलय, पत्रकर्णिका, कुण्डल, कर्णमुद्रा, कर्णपूर, कर्णोत्कीलक तथा नानाविध रत्नजटित दन्तपत्र, अवतंस आदि।
 +
 +
(3) कण्ठाभूषण-मणिग्रीव, रुक्म, हार, मुक्ताहार, एकावली, हारयष्टि, ताराहार, शेषहार, महाहार, मुक्ताकलाप, प्रालम्बहार रत्नावली, कण्ठसूत्र आदि ।
 +
 +
(4) कराभूषण - अंगद, वलय, कांचनवलय, शिंजावलय, दोलावलय, कटक, कङ्कण, केयूर, अंगुलीयक आदि ।
 +
 +
(5) कटि एवं श्रोणि- देश के आभरण-शृंखला, कटिसूत्र, कांची, क्वणितकनककांची, मेखला, रशना, मुक्ताजाल, तलक और कलाप ।
 +
 +
(6) पादाभूषण-नूपुर, शिञ्जितनूपुर, मणिनूपुर, मंजीर, पादहंसक, किङ्किणीका, घण्टिका, रत्नजालक, कटक, पैरों की अंगुलियों में अंगुलीय और अंगुष्ठ में तिलक।
    
=== इन्द्रजालम् ॥ Indrajala ===
 
=== इन्द्रजालम् ॥ Indrajala ===
 +
मनोरंजनात्मक कलाओं में प्रमुख है- इन्द्रजाल या जादू का खेल । इसके मूल में निहित है चमत्कार या अलौकिकता का तत्त्व । यह कला विस्मयजनक आनन्द द्वारा मानव का मनोरंजन करती है। 'इन्द्रजाल' का शाब्दिक अर्थ है - 'इन्द्र का जाल' या 'इन्द्रियों की शक्ति को बांध लेने वाला जाल' । यह शब्द वैदिक आर्यों के महान् देवता इन्द्र के नाम से प्रचलित हुआ है जो अपनी माया शक्ति से असंख्य रूपों को धारण कर सकते हैं? शक्तिशाली इन्द्र का यह जाल भी महान् है।
 +
 +
बृहद्धि जालं बृहतः शक्रस्य वाजिनीवतः' जिसे फैलाकर वे अनेक चमत्कारपूर्ण मायावी कार्य करते हैं ।
 +
 +
जादूगर या ऐन्द्रजालिक का मायाजाल भी दर्शकों की दृष्टि को आच्छन्न कर असत्य दृश्यों की सृष्टि करता है। संस्कृत साहित्य में इस कला के संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी 'दशकुमारचरित' में प्राप्त होती है। इस कला में सर्वप्रथम सामाजिकों के मन को बाँधने के लिये उच्च स्वर में वाद्य बजाये जाते हैं, फिर गायिकाओं द्वारा मधुर गीत गाया जाता है, तत्पश्चात् ऐन्द्रजालिक मयूरपिच्छ को घुमाते हुये दर्शकों की दृष्टि को बाँधता है।
    
=== कौचुमारयोगाः ॥ Kauchumarayoga ===
 
=== कौचुमारयोगाः ॥ Kauchumarayoga ===
 +
कुचुमार द्वारा कथित वाजीकरण, सुभगंकरण आदि औपनिषदिक (रहस्यमय गुप्त) योग इस कला के अन्तर्गत आते हैं। मानव कितना भी सभ्य या सुसंस्कृत क्यों न हो जाये, आज भी ऐसी क्रियाओं पर विश्वास रखनेवाले एवं इनका प्रयोग करने वाले लोग मिल जाते हैं। कौचुमार योग का बीज हम ऋग्वेद में पाते हैं। इन्द्रपत्नी इन्द्राणी सपत्नी-बाधन और पति-वशीकरण के लिये औषधि का प्रयोग करती हैं। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण के सुभगंकरण, वशीकरण, वृष्ययोग, नष्टरागप्रत्यायन, औपरिष्टक आदि प्रकरणों में इन गुप्त योगों का सविस्तार निरूपण हुआ है। ‘वृष्य योग’ में बल-वीर्य, राग और रतिक्षमतावर्धक कुछ नुस्खे दिये गये हैं। भास के नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में 'अविधवाकरण' एवं 'सपत्नीमर्दन' नामक औषधियों का उल्लेख है जिन्हें कौतुकमाला (विवाहमाला) के साथ गूँथा जाता था।
    
=== हस्तलाघवम् ॥ Hastalaghava ===
 
=== हस्तलाघवम् ॥ Hastalaghava ===
 +
हाथ की सफाई या फुर्ती से यन्त्र के समान हस्त-संचालन 'हस्तलाघव' कहा जाता है। सभी कार्यों में लघुहस्तताशिल्प एक विशिष्ट गुण है जिसकी अपेक्षा शिल्पी में की जाती है। इस कला में वे सभी क्रियायें आ जाती हैं जो विस्मयसृष्टि और जनानुरंजन के लिये की जाती हैं। इन्द्रजाल या जादू के खेल का यही प्राण तत्त्व है।
    
=== चित्रशाकापूपभक्ष्यविकारक्रिया ॥ Chitrashakapupabhakyavikara kriya ===
 
=== चित्रशाकापूपभक्ष्यविकारक्रिया ॥ Chitrashakapupabhakyavikara kriya ===
 +
नानाप्रकार के शाक, यूष (सूप, रसा) एवं भोज्य पदार्थ बनाने की कला या पाक-कला भी चतुःषष्टि कलाओं में परिगणित होती है। सृष्टिप्रक्रिया में अग्नि में सोम की निरन्तर आहुति दी जाती है। मनुष्य भी अपनी जठराग्नि में भक्ष्य और पेय की हवि देता है। इस हवि को ही 'आहार' कहा गया है। आहार की सामान्य संज्ञा 'अन्न' है। मानव ने सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदत्त नैसर्गिक अन्न को अपने कौशल से सुसंस्कृत कर 'पाककला' का विकास किया है।
 +
 +
ग्रहण की पद्धति के आधार पर आहार पाँच प्रकार के हो सकते हैं-भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य और पेय । संस्कृत साहित्य में इनका उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्राप्त । भरद्वाज मुनि के आश्रम में कुमार भरत और उनकी सेना के स्वागत में जो भोजन प्रस्तुत किया गया था उसमें ये पाँचों प्रकार के पदार्थ थे-भक्ष्यं भोज्यं च लेह्यं च विविधं बहु ।
 +
 +
कालिदास के अनुसार राजप्रासादों के महानस में इन पंचविध आहारों को बनाने की विपुल सामग्री और सुनियोजित तैयारी को देखकर ही विदूषक जैसे भोजनप्रिय आनन्दित हो उठते थे। जनश्रुति के अनुसार राजा नल पाककला में अत्यंत निपुण थे। उनका पाकदर्पण पाककला का एक संग्रहणीय ग्रंथ है जिसमें नानाप्रकार के यूष, सूप आदि बनाने की विधि का वर्णन हुआ है।
 +
 +
विवाह, राज्याभिषेक, उत्सव आदि के अवसर पर असंख्य प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाये जाते थे। दमयन्ती के विवाह में इतने प्रकार के भोजन बने थे कि बारातियों के लिये उन्हें जीमना (खाना) तो दूर, गिनना भी कठिन हो गया था । भोजन को परोसना भी एक कला मानी जाती थी। मनु के अनुसार परोसने वाले को प्रसन्नचित्त होकर एक-एक व्यंजन के गुणों की प्रशंसा करते हुये, सावधानी के साथ धीरे-धीरे भोजन कराना चाहिये। इस प्रकार परमब्रह्म के उपासक इस देश ने 'अन्नब्रह्म' साधना भी पूर्ण मनोयोग से की है।
    
=== पानकरसरागासवयोजनम् ॥ Panakarasaragasava yojana ===
 
=== पानकरसरागासवयोजनम् ॥ Panakarasaragasava yojana ===
 +
जल ही जीवन है। इस जीवन-रस से स्वयं को जीवन्त करने के साथ ही रसनेन्द्रिय की तृप्ति के लिये मानव ने विविध प्रकार के पानक रसों (पेय पदार्थों) को बनाने की कला विकसित की है। इसे ही वात्स्यायन ने पानकरसराग आसवयोजन कहा है।
 +
 +
यशोधर के अनुसार पेय दो प्रकार के होते हैं- (1) अग्निनिष्पाद्य (2) अनग्निनिष्पाद्य। ये भी दो प्रकार के हो सकते हैं-सन्धानकृत तथा असंधानकृत । संस्कृत साहित्य में-रसाल, सहकारभंग, तिन्तिका-पानक, प्रपाणक, आसव, पुष्पा सव, फलासव, मधु, कादम्बर मधु, द्राक्षामधु, मैरेय, शीथु, वारुणी आदि पेयों के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं।
 +
 +
गन्धमाल्य से सुसज्जित ऋतु के अनुकूल आकर्षक <nowiki>'पानभूमि' की रचना' और 'समापान''</nowiki> सामूहिक पानगोष्ठियों का आयोजन भी इस कला का एक अंग था।
    
=== सूचीवापकर्म ॥ Suchivapakarma ===
 
=== सूचीवापकर्म ॥ Suchivapakarma ===
 +
यशोधर के अनुसार सूची (सुई) का काम 'सूचीवान' कहा जाता है। इसके अन्तर्गत तीन क्रियायें आती हैं-
 +
 +
# सीवन - कंचुकादि वस्त्रों को सिलना ।
 +
# ऊतन-कटे-फटे वस्त्रों को इस प्रकार सिलना, रफू करना कि त्रुटि या दोष दिखाई न दे।
 +
# विरचन-कुथा (गलीचा) आस्तरण (बिछौना) आदि बनाना तथा दुइल, चोलक आदि वस्त्रों पर बेलबूटे काढ़ना ।
 +
 +
‘कसीदाकारी’ की कला वैदिक समाज से ही प्रचलित थी । इस कार्य में लगी हुई स्त्रियों को ‘पेशस्करी' कहा जाता था। ऋग्वेद में उषा और रात्रि की कल्पना ऐसी स्त्रियों के रूप में की गई है जो आकाशरूपी वस्त्र पर धागे से सुन्दर रूप की सृष्टि करती हैं। प्राचीन भारत में कढ़ाई में सोने के तारों के साथ माणिक्य, मूँगा, मरकत आदि रत्न पिरोकर भी पत्र-पुष्प-लता आदि की डिज़ाइन बनाई जाती थीं। बाणभट्ट ऐसी दो डिज़ाइनों का वर्णन करते हैं-
 +
 +
* (i) स्तबकित-पुष्पगुच्छ के समान डिजाइन।
 +
* (ii) उपचीयमान-सम्पूर्ण वस्त्र को भर देने वाली डिज़ाइन।
 +
 +
इसमें मोतियों को सीधी, तिरछी, आड़ी, लहरदार, कोणाकार आदि रेखाकृतियों में टाँका जाता था। कालिदास ऐसे रत्नखचित उत्तरीय और राजशेखर मणिखचित कञ्चुक का वर्णन करते हैं।
    
=== वीणाडमरुकसूत्रक्रीडा ॥ Veena damaruka sutra kreeda ===
 
=== वीणाडमरुकसूत्रक्रीडा ॥ Veena damaruka sutra kreeda ===
 +
वात्स्यायन के अनुसार वीणा और डमरुक वाद्य का वादन एक कला है। यद्यपि वाद्य कला के अन्तर्गत ही इस कला का भी अन्तर्भाव होता है, तथापि वाद्यों में तन्त्रीवाद्यों में भी वीणा के महत्व को प्रदर्शित करने के लिये वीणावादन को एक स्वतन्त्र कला माना गया है। यशोधर इसी तथ्य को रेखांकित करते हुये कहते हैं-<blockquote>वादित्रान्तर्गतत्वेऽपि तन्त्रीवाद्यं प्रधानम् । तत्रापि वीणावाद्यम् ॥</blockquote>वीणा को असमुद्रोत्पन्न रत्न माना गया है। देवी सरस्वती की कच्छपी वीणा, ब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मवीणा, रुद्रों से सम्बद्ध रुद्रवीणा, पिनाकपाणि से सम्बद्ध पिनाकीवीणा, देवर्षि नारद की महतीवीणा, तुम्बरु ऋषि की तुम्बरु वीणा, ऋषि स्वाति की विपंचीवीणा, विश्वावसु गन्धर्व की बृहती वीणा, किन्नरों की किन्नरी वीणा, रावण की रावणी अथवा रावणहस्ता आदि वीणा की प्राचीनता एवं महत्ता को प्रमाणित करते हैं ।
 +
 +
डमरुक वाद्य अवनद्ध वाद्य है। इसका स्वतन्त्र परिगणन भी संगीतसृष्टि में इसकी महत्ता को सूचित करने के लिये है। डमरु नटराज भगवान् शिव का वाद्य है। वर्णमाला की ध्वनियों की सृष्टि इसी वाद्य से हुई है। डमरु वाद्य से ही पाणिनि के 14 सूत्रों एवं संगीत के स्वरों की सृष्टि हुई है।
   −
=== प्रहेलिका ॥ Prahelika ===
+
=== प्रहेलिका ॥ Prahelika एवं प्रतिमाला ॥ Pratima ===
 +
प्रहेलिका अर्थात् पहेली बूझना और प्रतिमाला अर्थात् अन्त्याक्षरी, दोनों ही लोक प्रसिद्ध मनोविनोदात्मक क्रीडायें हैं। ऋग्वेद के सृष्टिविषयक दार्शनिक प्रश्नों को प्रहेलिका के माध्यम से भी प्रस्तुत किया गया है जिसे विभिन्न भाष्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बूझा है। दण्डी ने क्रीडागोष्ठियों, गुप्तभाषण, परिहास आदि के लिये प्रहेलिका को उपयोगी माना है।<blockquote>क्रीडागोष्ठीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः॥</blockquote>समागता, वंचिता, परुषा, संख्याता आदि इसके भेद-प्रभेद हैं। कादम्बरी में महाराज शूद्रक को अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती प्रहेलिका आदि काव्यक्रीडाओं से मनोरंजन करते हुये वर्णित किया गया है।
   −
=== प्रतिमा* Pratima ===
+
=== दुर्वचकयोगाः Durvachaka yog ===
 +
ऐसी पदावली जिसका उच्चारण और अर्थबोध दोनों ही कठिन हो, का प्रयोग एवं अर्थबोध भी एक कला है। इसका प्रयोजन भी मनोरंजन और प्रतिस्पर्धा है। आनन्द की भी सृष्टि करती थी। इस प्रकार के कवि कवित्वशक्ति के क्षीण होने पर भी विदग्धगोष्ठियों में बिहार के योग्य हो जाते हैं-
   −
=== दुर्वचकयोगाः ॥ Durvachaka yoga ===
+
=== कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमाः विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।। ===
    
=== पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana ===
 
=== पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana ===
 +
वाक्सौन्दर्य पर आश्रित वाचिक कलाओं में से एक है- पुस्तकवाचन अर्थात् पुस्तक बाँचने की कला। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला और शिल्प की महनीय विरासत को एक पीढ़ी से एक दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती हुई पुस्तकें हजारों वर्षों से ज्ञानवर्धन और आत्मिक आनन्द का स्रोत रही हैं। प्राचीन भारत में और आज भी रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, पुराण आदि के वाचन की लोकानुरंजिनी परम्परा रही है। इस कला में विशेष रूप से निपुण पुस्तक वाचक या कथा वाचक होते थे। बाणभट्ट की मित्रमण्डली में पुस्तकवाचक ‘सुदृष्टि’ भी था जो सरस्वती की नूपुर ध्वनि के समान, गमक नामक मधुर स्वर में, श्रोताओं को आकर्षित करता हुआ पुराण वाचन करता था । सरस गीतों के साथ वंशी आदि वाद्यों की संगत इस कलाप्रस्तुति को अत्यंत मनोरम और श्रुतिसुभग बना देती थी । वस्तुतः वाचन-कौशल द्वारा श्रव्य से ही दृश्य का भी आनन्द देने की कला है-पुस्तकवाचन कला ।
    
=== नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana ===
 
=== नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana ===
 +
जनमानस का समाराधन करने वाली कलाओं में से एक कला है- नाटक-आख्यायिका दर्शन। दर्शन शब्द यहाँ केवल प्रत्यक्ष दर्शन या अवलोकन का पर्याय नहीं अपितु चिन्तन-दृष्टि, समझ और परिज्ञान का भी वाचक है। अतः इस कला का अर्थ हुआ नाटक और आख्यायिका को देखने-परखने और रस-आस्वादन की कला ।
 +
 +
नाटक और आख्यायिका काव्यशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। नाट्य को दृश्य होने के कारण रूप कहा जाता है। संस्कृत वाङ्मय में इतिहासपुरुषों के जीवन को आख्यायिकाओं के माध्यम से संगृहीत किया गया है। आख्यानों के अभिनेय प्रसंगों का नटों द्वारा अभिनय भी किया जाता था। कृष्णलीला, हर-लीला, मदन-लीला आदि का भी अभिनय होता था। इस प्रकार यह कला कविहृदय के साथ संवाद स्थापित करने की और साहित्य के शिव तत्त्व से जीवन को मंगलमय बनाने की कला है ।
    
=== काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana ===
 
=== काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana ===
 +
समस्यापूर्ति या पादपूर्ति प्राचीन भारत की एक मनोरंजक काव्य-क्रीडा रही है जिसमें समस्या के रूप में दिये गये किसी एक पाद (चरण) के आधार पर शेष तीन चरणों की रचना करनी होती है। आशुकवि इस कला में विशेष निपुण होते थे। इस कला के माध्यम से काव्यरचना का अभ्यास, मनोरंजन और राजसभाओं में सम्मान की प्राप्ति होती थी। गोष्ठी समवायों में ऐसी काव्य समस्यायों की पूर्ति नागरकवृत्त का एक सहज अंग था
    
=== पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः ॥ Pattikavetravana vikalpa ===
 
=== पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः ॥ Pattikavetravana vikalpa ===
 +
बाँस की बारीक पट्टियों, सरकण्डे की तीलियों तथा बेंत से कलात्मक उपकरण बनाना भी एक कला है। यजुर्वेद में बेंत और बाँस का काम करने वाले स्त्री-पुरुष को विदलकारी तथा विदलकार कहा गया है। अर्थशास्त्र के अनुसार बेंत और बाँस से मोटी रस्सियाँ बनाई जाती थीं जिन्हें वरत्र कहा जाता था। इनका उपयोग कवच बनाने के लिये होता था। रामायण के अनुसार बाँस का काम करने वाले शिल्पी वंशकृत कहे जाते थे। सैन्ययात्रा आदि के प्रसंग में रथकार, इषुकार आदि शिल्पियों के साथ ये वंशकार भी चलते थे। सैन्य शिविर की रचना एवं शय्या- आसन आदि आवश्यक वस्तुओं को तत्काल तैयार करने में इनका नैपुण्य परिलक्षित होता था। संस्कृत साहित्य में इस कला से निर्मित इन वस्तुओं के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं - वेत्रासन, आसन्दी, वेत्रपट्टिका (शीतल पाटी), करण्डक, पिटारी, पिंजर, यष्टि, तितउ (चलनी), शरशलाका यन्त्र (सरकण्डों का पीढ़ा) आदि । वेत्र के सुन्दर आसन, आसन्दी, चटाइयाँ और पिटारियाँ राजभवनों तक पहुँचती थीं।
    
=== तर्कूकर्माणि ॥ Tarkukarma ===
 
=== तर्कूकर्माणि ॥ Tarkukarma ===
    
=== तक्षणम् ॥ Takshana ===
 
=== तक्षणम् ॥ Takshana ===
 +
तक्षू (काटना या छीलना ) धातु से निष्पन्न तक्षण शब्द का अर्थ है-लकड़ी को काट-छील कर आसन, रथ आदि बनाने की कला, जिसे वर्धकीकर्म, दारुकर्म तथा काष्ठविधि भी कहा गया है। वैदिक सन्दर्भों में तक्षणकार्य करने वाले शिल्पी की संज्ञा तक्षा थी। साहित्य में तक्षणशिल्प के निम्न उदाहरण प्राप्त होते हैं-अष्टास्र यूप, स्तम्भ, शयन, तल्प, पर्यङ्क, सिंहासन, पीठ, पीठिका, शिबिका, रथ
 +
 +
एवं नौका । प्राचीन भारत में इस कला ने एक व्यवस्थित व्यवसाय या उद्योग का रूप ले लिया था। सभी प्रकार के काष्ठकर्म के लिये लकड़ी का चयन अत्यंत सावधानी से किया जाता था। काष्ठचयन से लेकर उपकरणनिर्माण तक निर्दोषता तथा शुभ-अशुभ का विशेष ध्यान रखा जाता था। एक कुशल शिल्पी के रूप में स्थपति का यह कर्तव्य माना जाता था कि वह ऐसी कलाकृति का सर्जन करें जो-सुश्लिष्ट, दृढ, स्थिर, निर्दोष और सुन्दर वर्ण (पॉलिश) से आकर्षक हो।<blockquote>सुश्लिष्टां तामतः कुर्यान्निर्दोषां वर्णनशालिनीम् । दृढां स्थिरां च स्थपतिः पत्युः कामविवृद्धये ।।</blockquote>
    
=== वास्तुविद्या ॥ Vastuvidya ===
 
=== वास्तुविद्या ॥ Vastuvidya ===
 +
वास्तुविद्या या भवननिर्माण कला का विस्तृत वर्णन विश्वकर्मा-वास्तुशास्त्र आदि शिल्पग्रंथों की विषयवस्तु के वर्णन प्रसंग में किया जा चुका है। स्थापत्य के आठ अंग माने गये थे-
 +
 +
# (i) वास्तुपुरुष-विकल्पना
 +
# (ii) पुरविनिवेश
 +
# (iii) प्रासाद-निवेश
 +
# (iv) ध्वजोच्छ्रय
 +
# (v) नृपति वेश्म
 +
# (vi) चातुर्वर्ण्य-गृह-विभाग
 +
# (vii) यज्ञशालानिर्माण
 +
# (viii) राजशिविरनिवेश (दुर्गकर्म)।
 +
 +
इन अष्टांगों का ज्ञाता ही राजस्थपति पद का अधिकारी होता था।
    
=== रूप्यरत्नपरीक्षा  ॥ Roopya ratna pariksha ===
 
=== रूप्यरत्नपरीक्षा  ॥ Roopya ratna pariksha ===
 +
कोशग्रंथों में रूप्य शब्द का प्रयोग रजत और स्वर्ण दोनों के लिये हुआ है। वज्र (हीरा), मुक्ता, प्रवाल (मूँगा), गोमेद, इन्द्रनील (नीलम), वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज), मरकत और माणिक्य महारत्न कहे गये हैं। रजत और स्वर्ण का उपयोग मुद्राओं के अतिरिक्त आभूषण, पात्र, छत्रदण्ड, तलवार की मूँठ, भवन-तोरण, प्रासाद- शिखर, सिंहासन, पादपीठ, पर्यङ्कपाद आदि की रचना के लिये होता था। रत्नों का सर्वाधिक उपयोग आभूषणों के रूप में होता था। राजकोश में संग्रह से पूर्व रूप्य एव रत्नों की भलीभाँति परीक्षा कर ली जाती थी। भूषा के अतिरिक्त ग्रहदोष, शान्ति, अनिष्टनिवारण, इष्टप्राप्ति आदि के लिये भी शुभ-अशुभ रत्नों की परीक्षा के बाद ही रत्न धारण किये जाते थे। रत्न श्रेष्ठता, गुणातिशयता और बहुमूल्यता का प्रतीक था। इस श्रेष्ठता को जाँचने की कला ही रूप्यरत्न-परीक्षा कही गई है।
 +
 +
प्रथमदृष्ट्या रजत और स्वर्ण की शुद्धता की परीक्षा उज्ज्वल वर्ण तथा स्निग्ध-कोमल स्पर्श से होती थी। अन्य परीक्षणें में कसौटी पर कसना तथा अग्नि में तपाना प्रमुख था । रत्नों की परीक्षा उनके गुण-दोषों के आधार पर की जाती थी, जिनका विस्तृत वर्णन अर्थशास्त्र, बृहत्संहिता, राजनिघण्टु आदि ग्रंथों में हुआ है।
    
=== धातुवादः  ॥ Dhatuvada ===
 
=== धातुवादः  ॥ Dhatuvada ===
 +
स्वर्ण, रजत, ताम्र, रीति (पीतल), काँस्य, त्रपु ( रांगा), सीस (सीसा) और कालायस (लोहा) आदि धातुओं को खनि से निकालकर, शुद्ध करने, गलाने, मिलाने तथा इनसे विविध प्रकार के उपकरण, रसायन आदि बनाने का शिल्प 'धातुवाद' है। इस शिल्प के ज्ञाता को 'धातुवादविद्' कहा जाता था। धातुशोधन की प्रक्रिया वैदिक मन्त्रों से ही ज्ञात थी। कच्ची धातु को गलाकर लोहा, सोना आदि निकालने की प्रक्रिया का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में हुआ है
 +
 +
तस्मादश्मनोऽयो धमन्ति अयसो हिरण्यम् ।'
 +
 +
कर्मार (लुहार) धातुओं को गलाने के लिये धौंकनी का प्रयोग करता था। परवर्ती युग में ‘धातुवाद’ का शिल्प अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँचा था। भू-गर्भ में निहित धातुओं का मानवीय हित और समृद्धि के लिये उपयोग का यह शिल्प था।
    
=== मणिरागज्ञानम्  ॥ Maniraga jnana ===
 
=== मणिरागज्ञानम्  ॥ Maniraga jnana ===
 +
मणिराग (मणियों को रंगने) एवं उनके आकर अर्थात् स्रोत (उत्पत्तिस्थान) का ज्ञान भी प्राचीन भारत में एक कला मानी थी। अपने चिरस्थायी चमकदार रंग एवं प्रभामण्डल के कारण मणियाँ अनादिकाल से ही मानव को आकर्षित करती रही हैं। चूडामणि से लेकर नूपुर-मणि तक आभूषणों में इनका उपयोग हुआ है। मन्दिरों और राजभवनों को भी मणियों ने अपने रश्मिजाल से उद्भासित किया है। मणि शब्द का अभिप्राय उन बहुमूल्य चमकदार पत्थरों से है जो अन्धकार में प्रकाश बिखेरते हैं। कोशग्रंथों में मणि और रत्न को पर्यायवाची माना गया है तथा मुक्ता एवं प्रवाल को भी मणि कहा गया है। मणियों के अपने विशिष्ट रंग हैं। पद्म के समान लाल रंग की मणि पद्मराग कही जाती है। शुक, वंश-पत्र, कदली और शिरीष पुष्प के समान आभा वाली हरित वर्ण मणि की संज्ञा मरकत है। अतः मणि-राग का अभिप्राय स्फटिक या काचमणि को नाना रंगों में रंगकर पद्मराग आदि बहुमूल्य मणियों के समान वर्णशोभा को उत्पन्न करना है। मणि को रंगने की प्रक्रिया विज्ञान का अंग थी तो उनमें वर्णों की सुन्दर योजना कला का अंग। इसका प्रयोजन शोभा, भूषा और धन की प्राप्ति थी।
 +
 +
इस कला का द्वितीय पक्ष मणियों के आकर का ज्ञान था। कौटिल्य ने मणियों के तीन आकरों का उल्लेख किया है-खनि, स्रोत (जलप्रवाह) एवं प्रकीर्ण। महाकवि कालिदास ने 'न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्' कहकर रत्न की बहुमूल्यता के साथ उसकी दुर्लभता को भी सूचित किया है। प्राचीन भारत ने इस शिल्प को एक व्यवसाय के रूप में विकसित किया था।
    
=== आकरज्ञानम् ॥ Akara jnana ===
 
=== आकरज्ञानम् ॥ Akara jnana ===
    
=== वृक्षायुर्वेदयोगाः ॥ Vrkshayurveda yoga ===
 
=== वृक्षायुर्वेदयोगाः ॥ Vrkshayurveda yoga ===
 +
मानव ने प्रकृति की जिस हरी-भरी गोद में जन्म लिया है; वनस्पति जगत के जिस अबदान से वह पुष्ट हुआ है; निसर्ग की जिस पावन सुन्दरता ने उसे मन की उदात्तता और विश्रान्ति दी है-उसी निसर्ग को अपने समीप बसा लेने की, आत्मीय बना लेने की कला है-वृक्षायुर्वेदयोग ।
 +
 +
आयुर्वेद का अर्थ है-आयु को देने वाला वेद या शास्त्र। वृक्षायुर्वेद वृक्षों को दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला शास्त्र है। अतः यह वृक्षों के रोपण, पोषण, चिकित्सा एवं दोहद आदि के द्वारा मनचाहे फल, फूलों की समृद्धि को प्राप्त करने की कला है। इस कला का उद्देश्य है-मनोरम उद्यान या उपवन की रचना ।'
 +
 +
प्राचीन भारत में उद्यान, नगरनिवेश एवं भवन-वास्तु के अनिवार्य अंग माने गये थे। वराह के अनुसार उद्यानों से युक्त नगरों में देवता सर्वदा निवास करते हैं-<blockquote>रमन्ते देवता नित्यं पुरेषूद्यानवत्सु च॥</blockquote>इस कला के अन्तर्गत निम्न विषयों का निरूपण हुआ है-उपवनयोग्य भूमि का चयन, वृक्षरोपण के लिये भूमि तैयार करना, मांगलिक वृक्षों का प्रथम रोपण, पादप-संरोपण, पादप-सिंचन, वृक्ष-चिकित्सा, बीजोपचार, वृक्षदोहद, कतिपय अलौकिक प्रयोग आदि। वस्तुतः वृक्षायुर्वेदयोग विज्ञान और कला, प्रयोग और चमत्कार का रोचक समन्वय है।
    
=== मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः ॥ Mesha kukkutalavaka yuddhavidhi ===
 
=== मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः ॥ Mesha kukkutalavaka yuddhavidhi ===
 +
यह प्राचीन भारत की एक मनोरंजक कला है जिसका अर्थ है- भेड़, मुर्गा और तीतर लड़ाने की कला। वात्स्यायन इसे कलाक्रीड़ा या कलात्मक विनोद कहते हैं। पशु-पक्षियों को लड़ाकर उनके युद्ध, घात-प्रतिघात, हार और जीत से उत्तेजना प्राप्त करने की प्रवृत्ति मानव में चिरन्तन से रही है। चीन-तुर्किस्तान की चंगबाजी और रोमन पशु-युद्ध का उन्माद विश्वप्रसिद्ध रहा है। प्राचीन भारत में इन क्रीडाओं के लिये हाथी, घोड़े आदि के साथ मेढ़े एवं शुक-सारिकाओं के साथ तीतर-लाव आदि पक्षी भी पाले जाते थे। राजभवनों के द्वितीय प्रकोष्ठ में इन पशुओं को तथा छठें प्रकोष्ठ में पक्षियों को रखा जाता था।
 +
 +
मृच्छकटिक में वसन्तसेना के भवन में ऐसे पशुओं की खातिरदारी एवं शिक्षा देखी जा सकती है जहाँ एक मल्ल के समान मेष की गर्दन पर मालिश की जा रही है, लावक पक्षियों को युद्ध का अभ्यास कराया जा रहा है। कादम्बरी में उज्जयिनी के राजकुल में हम ऐसा ही पक्षि-युद्ध देखते हैं। दशकुमारचरित में हाट में होने वाले कुक्कुट-युद्ध का एक रोचक वर्णन प्राप्त होता है।
 +
 +
ये युद्ध पण या बाजी लगाकर लड़े जाते थे। अतः इन्हें प्राणि-द्यूत संजीवद्यूत और समाहूवय भी कहा गया है।
 +
 +
यह शास्त्र और कौशल द्वारा पशु-पक्षियों को साधकर उनके युद्ध से उत्तेजना, जोश और वीर रस का आनन्द प्राप्त करने की कला है।
    
=== शुकसारिकाप्रलापनम्  ॥ Shuka sarika pralapana ===
 
=== शुकसारिकाप्रलापनम्  ॥ Shuka sarika pralapana ===
 +
आकाशचारी विहग और इस धरती पर बसने वाले मानव के स्नेह संबंध से जो कला विकसित हुई है। उसे शुकसारिका-प्रलापन अर्थात् तोता-मैना को पढ़ाने की कला कहा गया है। नाना प्रकार के पक्षियों में से तोता-मैना इस प्रकार के पक्षी हैं जिनमें मनुष्य समान ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता पाई जाती है। प्राचीन काल से आज तक भारतीय घरों में जिन पक्षियों को पाला जाता है, उनमें से प्रमुख हैं-शुक और उसकी संगिनी सारिका। प्राचीन भारत के इन वानिपुण पक्षियों ने राजभवनों, गणिकावाटों और नागरकों के गृहों के साथ ही गुरुकुलों और आश्रमों की शोभा भी बढ़ाई थी। उज्जयिनी के राजभवनों में निशा का अवसान शुक्र-सारिकाओं के मंगलगीतों से होता था। बौद्धभिक्षु दिवाकरमित्र के आश्रम में शुक्र-सारिकायें धर्मदेशना करते थे तो मीमांसक मण्डनमिश्र के घर में स्वतःप्रमाण और परतःप्रमाण पर शास्त्रार्थ शुक-सारिकाओं की इस योग्यता के तीन कारण माने गये थे -
 +
 +
# (i) पूर्व जन्मों के संचित संस्कार
 +
# (ii) पुरुष का प्रयत्न और शिक्षा
 +
# (iii) निरन्तर श्रवण
 +
 +
पोषित शुकों को विधिवत् शिक्षा दी जाती थी। नागरिक मध्याह्न भोजन के बाद अपने शयनगृह में आराम करता हुआ इन्हें बोलना सिखाता था। कन्यान्तःपुरों में इन्हें उपदेश दिया जाता था । मानव के पक्षीप्रेम और इन विहगों की विशिष्ट योग्यता से यह मनोरम कला विकसित हुई थी ।
    
=== उत्सादनम्  ॥ Utsadana ===
 
=== उत्सादनम्  ॥ Utsadana ===
 +
मानव को सुन्दर, स्वस्थ और आकर्षक बनाये रखनेवाली कलाओं में से एक कला है - मर्दनकला (मालिश या मसाज की कला )। यशोधर के अनुसार वात्स्यायन-प्रोक्त ये तीनों क्रियायें मर्दन के ही प्रकार हैं। पैर से किया जाने वाला मर्दन उत्सादन है। हाथ से तेल आदि से शिर का मर्दन केशमर्दन है। शेष अंगों का मर्दन संवाहन है। आयुर्वेद में इन तीनों के ही विशिष्ट गुण कहे गये हैं। साहित्य में संवाहन का वर्णन एक सुकुमार कला के रूप में हुआ है। भास के चारुदत्त नाटक में गणिका वसन्तसेना इस कला की प्रशंसा करते हुये कहती हैं- सुकुमारकला शिक्षितार्येण। शिक्षिता पद का प्रयोग यह सूचित करता है कि इस कला की विधिवत् शिक्षा प्राप्त की जाती थी। इस कला में निपुण व्यक्ति को संवाहक या अंगमर्दक कहा जाता था। इस कला के कई मनोरम चित्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। महाराज दुष्यन्त अस्वस्थ शकुन्तला को सुख देने के लिये उसके पद्मताम्र चरणों को अपने अंक में रखकर दबाना चाहते हैं ।
 +
 +
महाराज शूद्रक शय्या पर बैठे हैं। भूमितल पर बैठी हुई प्रतिहारी नवनलिनदलकोमल करसम्पुट से उनके चरणों को दबा रही है। आयुर्वेद में संवाहन के निम्नलिखित लाभ बताये गये हैं -<blockquote>प्रीतिनिद्राकरं वृष्यं कफवात श्रमापहम् । संवाहनं मांसरक्तत्वक्प्रसादकरं मतम् ।।</blockquote>यही कारण है कि सभी वर्ग के स्त्री-पुरुष यहाँ तक कि राजकुमार भी इस कला को सीखते थे। युवतियाँ इस कला से अपने प्रेमियों को वश में कर लेती थी' तो पुरुष अपनी प्रेयसियों को प्रसन्न । सुन्दर रूप-रस और गन्ध से मिलने वाले आनन्द के समान सुन्दर स्पर्श का भी एक आनन्द है और इसी आनन्द को देती है - संवाहनकला।
    
=== केशमार्जनकौशलम्  ॥ Keshamarjana kaushala ===
 
=== केशमार्जनकौशलम्  ॥ Keshamarjana kaushala ===
    
=== अक्षरमुष्टिकाकथनम् ॥ Aksharamushtika kathana ===
 
=== अक्षरमुष्टिकाकथनम् ॥ Aksharamushtika kathana ===
 +
मनुष्य ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम 'भाषा' का मनोरञ्जन के लिये प्रयोग करते हुये अपने बुद्धिचातुर्य और कल्पना- कौशल से जिन कलाओं को विकसित किया है, उनमें से एक है- अक्षरमुष्टिका कथन' अर्थात् सङ्केताक्षरों का अर्थ बताने की कला। अक्षरमुष्टिका की व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है-
 +
 +
# प्रथम अक्षरमुष्टिका अर्थात् अक्षरों की मुट्ठी। इसमें पदों को अक्षरों की मुट्ठी में बन्द कर दिया जाता है। अक्षरों के माध्यम से उनका अनुमान करते हुये उन पदों को बताना होता है।
 +
# द्वितीय-अक्षरमुष्टिका अर्थात् 'अक्षरों को बताने वाली मुट्ठी'। इसमें मुट्ठी खोलना, • अंगुली उठाना आदि हस्त संकेतों से अक्षरों को जानकर उनसे पद बनाकर उनका अर्थ • बताना होता है। इष्टमित्रों की गोष्ठियों और कविसमवायों में इस प्रकार की क्रीड़ाओं द्वारा मनोविनोद के साथ ही बुद्धि की धार को तेज किया जाता था।
    
=== म्लेच्छितकविकल्पाः॥ Mlecchitaka vikalpa ===
 
=== म्लेच्छितकविकल्पाः॥ Mlecchitaka vikalpa ===
 +
भाषाबोध के ही एक कौशल का प्रकार है-'म्लेच्छितविकल्प' अर्थात् गुप्तभाषा का ज्ञान यशोधर के अनुसार साधु शब्दों की अक्षरविन्यास के कारण अस्पष्टता म्लेच्छित कही। जाती है, इसके विकल्प या प्रकारों को <nowiki>''</nowiki>लेच्छित-विकल्प' कहते हैं। यह उच्चारण या लेखन में अस्पष्टता के द्वारा अपनी बात को रहस्यमय या गुप्त बनाने की कला है। ऐसी भाषा को समझना और उसका स्वयं प्रयोग करना दोनों ही इस कला के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार की भाषा का प्रयोग विशेष रूप से गुप्तचरों की संस्था के लिये होता था। कौटिल्य इसके लिखित रूप को 'गूढलेख' या 'संज्ञालिपि' कहते हैं। इसे कूटभाषा भी कहा जा सकता है। -
    
=== देशभाषाज्ञानम्  ॥ Deshabhasha jnana ===
 
=== देशभाषाज्ञानम्  ॥ Deshabhasha jnana ===
 +
देश - भाषाओं का ज्ञान भी एक कला है। संस्कृत में देशभाषा शब्द का प्रयोग जातिभाषा, लोकभाषा या क्षेत्रीय बोलियों के अर्थ में हुआ है। भरतमुनि ने नाट्यप्रयोग के सन्दर्भ में भाषाओं के चार प्रकारों की चर्चा की है- (i) अतिभाषा (ii) आर्यभाषा (ii) जातिभाषा तथा (iv) योन्यन्तरी भाषा। इनमें से जातिभाषा को ही देशभाषा कहा गया है। प्राचीन भारत में सात देश-भाषायें मुख्य मानी गई थीं मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, बालीका और दाक्षिणात्या।3
 +
 +
प्राचीन भारत के नागरक, राजकुमार, राजकुमारियाँ, गणिकायें, कवि और अभिनेता देशभाषाओं की विधिवत् शिक्षा प्राप्त करते थे। बाणभट्ट ने उज्जयिनी के प्रधान पुरुषों को 'शिक्षित-अशेष-देशभाषा' तथा 'सर्वलिपिज्ञ' कहा है। राजकुमार चन्द्रापीड ने भी सभी भाषाओं और लिपियों में कौशल अर्जित किया था। अथर्ववेद के ऋषि ने नाना भाषा-भाषी लोगों के लिये पृथिवी के रूप में जिस ‘एकघर’ की आराधना की थी-जनं बिभ्रती बहुधा विवासं नानाथर्माणं पृथिवी यथौकसम्' उसी घर के स्वप्न को साकार करने की कला है-देशभाषाविज्ञान।
    
=== पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् ॥ Pushpashakatika nimitta jnana ===
 
=== पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् ॥ Pushpashakatika nimitta jnana ===
 +
पुष्पशकटिका
 +
 +
छोटी गाड़ी या खिलौनागाड़ी को 'शकटिका' कहा जाता है। शकटिका को पुष्पों से सजाना या शकटिका बनाना भी एक कला थी। किन्तु इस कला के विशेष सन्दर्भ प्राप्त नहीं हैं।
 +
 +
=== निमित्तज्ञानम् ===
 +
मनुष्य ने अपने सूक्ष्म प्रकृतिनिरीक्षण और सुदीर्घ अनुभव से जिन कलाओं को
 +
 +
विकसित किया है, उनमें से एक है-निमित्तज्ञान अर्थात् शकुन-अपशकुन के विचार की कला। मानव के अदृष्ट या नियति के सूचक ग्रहनक्षत्रों की गति, प्राकृतिक परिदृश्य आदि अनेक तत्त्वों में से कुछ संकेत ऐसे हैं जो आसन्न (तुरन्त या निकट भविष्य में घटने वाली) घटनाओं, शुभ और अशुभ की सूचना देते हैं, इन्हें ही निमित्त कहा गया है। फल के आधार पर समस्त निमित्तों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-1. शुभ एवं 2. अशुभनिमित्त। इन निमित्तों में प्राकृतिक परिदृश्य (पवन की अनुकूलता दिशाओं की निर्मलता, फल-पुष्प समृद्धि), पशु-पक्षियों की गतिविधियाँ एवं ध्वनि, अङ्गस्पन्दन, स्वप्न आदि आते हैं। बाणभट्ट के अनुसार-जैसे वृक्ष का विकार भूगर्भ में छिपे धन का, सब ओर छिटकता हुआ प्रकाश श्रेष्ठ मणि का, लाली सूर्योदय का तथा तेज हवा का झोंका वर्षा के आगमन का सूचक होता है उसी प्रकार निमित्त शुभ-अशुभ के सूचक होते हैं। प्रकृति और जीव-जगत् के इङ्गित को समझकर अनिष्ट के निवारण, इष्ट की प्राप्ति तथा अवश्यम्भावी मंगल-अमङ्गल के लिये स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने की कला थी-निमित्तज्ञान ।
    
=== यन्त्रमातृका ॥ Yantramatrka ===
 
=== यन्त्रमातृका ॥ Yantramatrka ===
 +
यंत्र-रचना की विद्या या कला यंत्रमातृका कही जाती है। यन्त्र शब्द की निष्पत्ति यम् धातु से हुई है। भूतों की स्वैच्छिक गति को जिस उपकरण में नियन्त्रित कर दिया जाता है; उसे यन्त्र कहते हैं। यन्त्र के बीज चार हैं-भूमि, जल, वायु और अग्नि। इनका आश्रय होने के कारण आकाश भी बीज या उपादान होता है। जल, वायु और अग्नि यंत्र में शक्ति या ऊर्जा के रूप में प्रयुक्त होते हैं । भौम या पार्थिव तत्त्वों से यन्त्र के विविध अंगों की रचना होती है।
 +
 +
संचालन या गति की दृष्टि से यन्त्र चार प्रकार के होते हैं-(i) स्वयंवाहक (Automatic), (ii) सकृत्प्रेर्य (प्रथमवार प्रेरित किये गये), (iii) अन्तरितवाय (मध्य-मध्य में प्रेरित), (iv) अदूरवाय (दूर से संचालित (Remote controlled), उपयोग की दृष्टि से यन्त्र मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं-(i) यानयन्त्र (ii) उदक यन्त्र (iii) संग्रामयन्त्र (iv) गृययन्त्र ।
 +
 +
यन्त्र के निम्नलिखित गुण माने गये हैं- यथावबीजसंयोग, सौश्लिष्ट्य, श्लक्ष्णता, अलक्षता, निर्वहण, लघुत्व, शब्दहीनता, अशैथिल्य, अस्खलद्गति, अभीष्टकारित्व, लयतालानुगामिता, सम्यक् संवृत्ति, अनुल्बणत्व, तादूरूप्य (मूल के सदृश रूप), दृढता, मसृणता एवं चिरकालसहत्व ।। ये गुण ही यन्त्रविज्ञान को एक कला के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
    
=== धारणमातृका ॥ Dharanamatrka ===
 
=== धारणमातृका ॥ Dharanamatrka ===
 +
शास्त्रों के अवबोध एवं स्मरणशक्ति को बढाने वाली विद्याओं का ज्ञान, उनसे अलोकसामान्य धारणाशक्ति की प्राप्ति एवं जीवन में प्रयोग भी एक कला मानी गई है। यशोधर ने धारणशक्ति को बढाने वाली विद्या के पाँच अंग कहे हैं-वस्तु कोशस्तथा द्रव्यं लक्षणं केतुरेव च ।
    
=== सम्पाट्यम् ॥ Sampatya ===
 
=== सम्पाट्यम् ॥ Sampatya ===
 +
वाचिक कलाओं में से एक है- सम्पाठ्य अर्थात् भली भाँति पढ़ने की कला। यशोधर ने इसे- किसी पढ़े हुये श्लोक को सुनकर ज्यों का त्यों दोहराने या मिलकर पढने की कला कहा है। पाठ्य के साथ जुड़ा हुआ सम् उपसर्ग- भली भाँति और साथ इन दोनों ही अर्थों का बोधक है। प्राचीन भारत में जब मुद्रित ग्रंथ नहीं थे, तब ज्ञान की धारा इस सम्पाठ्य की कला से ही आगे बढ़ी है। वेदों की श्रुति संज्ञा इस कला से ही सार्थक हुई है।
 +
 +
इस कला की प्राचीनता का एक रोचक साक्ष्य हम ऋग्वेद के मण्डूक सूक्त में पाते हैं। सम्पाठ्य का सबसे सुन्दर उदाहरण - काव्यपाठ है। राजशेखर के अनुसार कवि जैसे-तैसे काव्यरचना तो कर लेता है किन्तु काव्यपाठ करना वही जानता है, जिसे सरस्वती सिद्ध होती है पढने में लावण्य-ये पाठक के गुण कहे गये हैं। ललित स्वर से, काकुयुक्त, सुस्पष्ट, अर्थ के अनुसार विराम देते हुये कलमधुर ध्वनि से एक-एक अक्षर को स्पष्ट रूप से पढ़ना प्रशंसनीय कहा गया है। वस्तुतः - पाठसौन्दर्य नैकजन्मविनिर्मितम् है।
    
=== मानसीकाव्यक्रिया ॥ Manasikavya kriya ===
 
=== मानसीकाव्यक्रिया ॥ Manasikavya kriya ===
 +
यशोधर के अनुसार इस कला के दो रूप हैं। प्रथम-केवल लिखित व्यंजनों अथवा पद्म, उत्पलादि आकृतियों से श्लोक की रचना करना; द्वितीय प्रकार चित्रकाव्य खड्गबन्ध, मुरजबन्ध आदि में देखा जा सकता है। मानसी काव्य क्रिया में ही काव्यार्थ की कल्पना है। इसका प्रयोजन मनोरंजन और प्रतिस्पर्द्धा है।
    
=== क्रियाविकल्पाः ॥ Kriyavikalpa ===
 
=== क्रियाविकल्पाः ॥ Kriyavikalpa ===
    
=== छलितकयोगाः ॥ Chalitayoga ===
 
=== छलितकयोगाः ॥ Chalitayoga ===
 +
छलितकयोगा
 +
 +
परातिसंधान (दूसरों को छलने की) विद्या छलितक योग कही जाती है। कूटनीति अथवा राजनीति का यह एक आवश्यक अंग है। इसमें रूपपरिवर्तन, वेशपरिवर्तन आदि उपाय आते हैं। कौटिल्य ने इस कला का उपयोग विशेष रूप से गुप्तचरों के लिये किया है। शूर्पणखा का रूपपरिवर्तन इसी कला का उदाहरण है।
    
=== अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् ॥ Abhidhanakosh chanda jnana ===
 
=== अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् ॥ Abhidhanakosh chanda jnana ===
 +
शब्दकोष और छन्दों का ज्ञान भी कला मानी गई है। इस नामरूपात्मक जगत् के असंख्य रूपों और उनकी क्रियायों को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नामों से कहा गया है। इन नामों या पदों के संग्रह तथा इनका अर्थ बताने वाले शास्त्र को ही अभिधानकोश कहते हैं। व्याकरणशास्त्र केवल शब्द का अनुशासन करता है, जबकि अभिधानकोश शब्द और अर्थ दोनों का। अतः यह व्याकरण का सर्वस्व एवं विद्यास्थान है। इस कला का प्राचीनतम उदाहरण निघण्टु नामक वैदिक पदकोश है। अभिधानकोशज्ञान की कला मनुष्य को कवि, मनीषी और वाग्मी बनाने का साधन है।
 +
 +
छन्द कला सृष्टि का मूल है, क्योंकि शिल्प के लिये आवश्यक है- सौन्दर्य, जो लय, संतुलन, अनुपात और सुसंगति से ही साध्य होता है। शिल्पी के मन में रूप का एक ऐसा सजीव छन्द सृजित होता है जो विश्व-व्यापी समष्टिछन्द से मिलकर शब्द, नाद, रेखा, वर्ण, गति और अभिनय से अभिव्यक्त होकर गीत, नृत्य, चित्र आदि कला बन जाता है। विद्या या कला के रूप में छन्द की गणना षड्वेदांगों में होती है। वेदों की स्थिति ओर गति दोनों का कारण ही पादभूत छन्द हैं। छन्दश्शास्त्र का प्राचीन अभिधान छन्दोविचिति है। आचार्य पिङ्गल द्वारा प्रणीत छन्दस्सूत्र इस विद्या का मान्य प्रामाणिक ग्रंथ है। छन्द - विद्या के आद्य प्रवर्तक भगवान् शिव हैं। ऋग्वेद में गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् आदि छन्दों को अग्नि, सविता, सोम आदि देवों से संबद्ध किया गया है। न केवल काव्यसृष्टि अपितु जीवन को सुन्दर, कलामय बनाने के लिये भी छन्दोज्ञान आवश्यक है। काव्यकरण विधि अर्थात् अलंकारशास्त्र या काव्यशास्त्र को क्रिया-कल्प कहा जाता है। भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा अतिप्राचीन है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से लेकर भामह, वामन, दण्डी, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, राजशेखर, कुन्तक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्यों ने काव्यशास्त्र के साथ ही कला के विविध पक्षों-कलासृष्टि, कला-प्रयोजन, कला-आस्वाद, कला-समीक्षा आदि की भी चर्चा की है। अतः क्रियाकल्प का ज्ञान भी एक कला है।
    
=== वस्त्रगोपनानि ॥ Vastragopana ===
 
=== वस्त्रगोपनानि ॥ Vastragopana ===
 +
वेश या वस्त्रों का प्रयोजन जहाँ शीत-ताप आदि से शरीर की रक्षा है वहीं अप्रकाश्य का गोपन और त्रुटित का संवरण भी है। वस्त्र से गोपनानि की कला कुत्सित और अश्लील के संगोपनपूर्वक रूप के उन्मीलन की कला है।
    
=== द्यूतविशेषः ॥ Dyutavishesha ===
 
=== द्यूतविशेषः ॥ Dyutavishesha ===
 +
द्यूतविशेषा-आकर्षक्रीडा
 +
 +
अक्षक्रीड़ा या द्यूतक्रीड़ा और पाशकक्रीड़ा(पासे का खेल) प्राचीन भारत के व्यसनात्मक विनोद रहे हैं। इनकी निन्दा भी हुई है और दुर्निवार आकर्षण शक्ति का वर्णन भी। प्राचीन युग में बहेरे का फल अक्ष रूप में व्यवहृत होता था। शारि-फलक (dice board) को इरिण कहा जाता था। महाभारत के सभापर्व के अन्तर्गत द्यूत पर्व और अनुद्यूत पर्व में पाशकक्रीड़ा के दुष्परिणामों को बताया गया है। व्यसन के रूप में यह क्रीडा हानिकारक होते हुये भी एक विशुद्ध कीड़ा के रूप में मनोविनोद का साधन रही है। विवाह के अवसर पर वधू की सखियाँ वर को द्यूतक्रीडा में नाना प्रकार के पण रखकर छकाने का उपाय करती थीं। स्त्री-पुरुषों के प्रेमद्यूतों में हारना भी जीतने का आनन्द देता था।
    
=== आकर्षणक्रीडा ॥ Akarshana kreeda ===
 
=== आकर्षणक्रीडा ॥ Akarshana kreeda ===
    
=== बालकक्रीडनकानि ॥ Balaka kreedanaka ===
 
=== बालकक्रीडनकानि ॥ Balaka kreedanaka ===
 +
बच्चों को प्रसन्न करने के लिये बालक्रीडाओं का ज्ञान एवं बालक्रीडनकों की रचना एक कला मानी गई है। क्रीडारस से आनन्द प्राप्त करने की प्रवृत्ति चिरन्तन है। अतः यह कला भी मनोविनोद के लिये है। संस्कृत साहित्य में नानाप्रकार की बालक्रीडाओं का वर्णन हुआ है- यथा कन्दुकक्रीड़ा, पुत्रिका-क्रीड़ा, सैकतवेदिका-रचना, नदियों के बालुकामय तट पर मणियों को छिपाने और ढूँढ़ने का खेल आदि।
 +
 +
नगाधिराज-तनया पार्वती, अपनी सखियों के साथ इन बालक्रीडाओं का आनन्द लेते हुये वर्णित हुई हैं। मगधराजकन्या पद्मावती का प्रिय खेल कन्दुकक्रीड़ा है तो अलकापुरी की यक्षकन्याओं का मणियों को छिपाने ढूँढ़ने का खेल । कन्दुकक्रीड़ा की कला का चरमपरिपाक राजकुमारी कन्दुकावती के कन्दुकनृत्य में देखा जाता है।
    
=== वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vainaayiki vidya jnana ===
 
=== वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vainaayiki vidya jnana ===
 +
वैनयिकीनां विद्यानां ज्ञानम्
 +
 +
यह वैनयिकीविद्या - अर्थात् विनय का आधान करने वाली विद्याओं के ज्ञान से स्व एवं पर को विनीत बनाने की कला है । विनय एक ऐसा आंतरिक गुण है जो न केवल मनुष्य के वैदुष्य को शोभित करता है अपितु सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही उद्भासित करता हुआ जीवन-पथ को सुगम बना देता है। इस विद्या के अन्तर्गत नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र आता है। कौटिल्य विनय का हेतु इन्द्रियजय को मानते हैं -<blockquote>विद्याविनयहेतुरिन्द्रियजयः।</blockquote>विद्या-वृद्धों का नित्यसंयोग भी विनय की वृद्धि करता है। विद्याविनीत राजा ही प्रजा को विनीत करता हुआ लोकमंगल का साधक होता है।<blockquote>विद्याविनीतो राजा हि प्रजानां विनये रतः। अनन्यां पृथिवीं भुङ्क्ते सर्वभूतहिते रतः॥</blockquote>इस कला के अन्तर्गत हस्तिशिक्षा, अश्वशिक्षा आदि का ज्ञान भी परिगणित होता है जिसके द्वारा इन पशुओं को नियंत्रित किया जाता है। कौटिल्य ने विद्याध्ययन काल में दिन का पूर्वभाग इन विद्याओं की शिक्षा के लिये नियत किया है।
    
=== वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vaijayiki vidya jnana ===
 
=== वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vaijayiki vidya jnana ===
 +
सभी कलाएँ, शिल्प और शास्त्र जीवन-संग्राम में मानव को विजयी बनाने के लिये हैं, तथापि यशोधर ने इन विद्याओं को दो प्रकार का माना है (1) दैवी और (2) मानुषी। अपराजिता आदि दैवी विद्यायें हैं। संग्रामविद्या, युद्धकौशल और शस्त्रविद्या मानुषी विद्यायें हैं। इनका ज्ञान भी एक कला है। विक्रमोर्वशीय के एक सन्दर्भ के अनुसार देवगुरु बृहस्पति के द्वारा अपराजिता विद्या की शिक्षा उर्वशी को दी गई थी। विश्वामित्र ने बला और अतिबला नामक दिव्य विद्याओं की शिक्षा श्रीराम को प्रदान की थी।
    
=== वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम्  ॥ Vaitaliki vidya jnana ===
 
=== वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम्  ॥ Vaitaliki vidya jnana ===
 +
व्यायामिकीनां विद्यानां ज्ञानम्
 +
 +
मृगया, मल्लविद्या आदि व्यायामिकी विद्याओं आदि का ज्ञान भी एक कला है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इस विद्या का ज्ञान आवश्यक है। मृगया की प्रशंसा करते हुये महाकवि कालिदास कहते हैं-<blockquote>मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः। उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग् विनोदः कुतः ।।</blockquote>कादम्बरी में स्नान से पूर्व महाराज शूद्रक द्वारा व्यामामशाला में व्यायाम किये जाने वर्णन हुआ है। इस प्रकार स्वास्थ्य और सौन्दर्य, आत्मोत्कर्ष और विजय, इन सभी उपर्युक्त तीन विद्याओं से साधा जाता था। परमानन्द की उपलब्धि को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाली भारतीय संस्कृति चतुःषष्टि कलाओं के माध्यम से दैनन्दिन जीवन में भी आनन्द की उपासना करती रही है, क्योंकि महाशिव की आद्याशक्ति महामाया इस जगत् को प्रपञ्चित करती हैं, सदानन्द ही जिनका आहार है। ललितास्तवराज में कहा गया है-<blockquote>क्रीडा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः शिवः । आहारस्ते सदानन्दो वासस्ते हृदये सताम् ।।</blockquote>
    
== निष्कर्ष॥ Discussion ==
 
== निष्कर्ष॥ Discussion ==
746

edits

Navigation menu