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४३. विश्व की अनेक भाषायें अंग्रेजीपरस्ती के कारण नष्ट होने पर तुली हैं ऐसी शिकायत करने वाले अपने बच्चों को अँग्रेजी ही पढ़ाते हैं । भारत में भी संस्कृत को जर्मन, फ्रेंच जैसी भाषाओं के साथ वैकल्पिक भाषा का स्थान दिया जाता है ।
 
४३. विश्व की अनेक भाषायें अंग्रेजीपरस्ती के कारण नष्ट होने पर तुली हैं ऐसी शिकायत करने वाले अपने बच्चों को अँग्रेजी ही पढ़ाते हैं । भारत में भी संस्कृत को जर्मन, फ्रेंच जैसी भाषाओं के साथ वैकल्पिक भाषा का स्थान दिया जाता है ।
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४४. धर्मपालजी ने एक मजेदार किस्सा बताया है । शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलतर्सिह कोठारी ने अपना अनुभव बताया है कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए आवास बन रहे थे तब अंग्रेज़ कुलपति आवासों में पाश्चात्य पद्धति के शौचालयों के आग्रही थे, भारतीय
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४४. धर्मपालजी ने एक मजेदार किस्सा बताया है । शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलतर्सिह कोठारी ने अपना अनुभव बताया है कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए आवास बन रहे थे तब अंग्रेज़ कुलपति आवासों में पाश्चात्य पद्धति के शौचालयों के आग्रही थे, भारतीय पद्धति के नहीं । आज अब पाश्चात्य पद्धति के शौचालय हमारी आवश्यकता बन गई है । मानस परिवर्तन कैसे होता है इसका यह उदाहरण है ।
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=== पाश्रात्य मापदण्ड ===
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४५. भारत के शास्त्रों के लिए पाश्चात्य विद्वानों के प्रमाणों को वरीयता दी जाती है । साथ ही पाश्चात्य सिद्धांतों का विरोध नहीं होता है परन्तु भारतीय सिद्धांतों के लिए सहज स्वीकृति नहीं होती । शास्त्रीय पद्धति से दोनों सिद्धांतों का विश्लेषण और परीक्षण समान रूप से होना चाहिए परन्तु दोनों को समान नहीं माना जाता है । पाश्चात्य पर स्वीकृति की मुहर बिना परीक्षण के लग जाती है जबकि भारतीय पर नहीं । उस पर यदि कोई पाश्चात्य विद्वान मुहर लगा दे तो फिर परीक्षण की आवश्यकता भी नहीं होती । 
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४६. वैश्विक मापदंड के नाते भारत कहता है कोई भी सिद्धान्त या व्यवहार सर्वे भवन्तु सुखिना: के मापदंड पर खरा उतरना चाहिए। परन्तु पाश्चात्य जगत विश्वकल्याण का नहीं परन्तु विश्व का स्वयं के लिए कैसे और कितना उपयोग हो सकता है इसके आधार पर वैश्विकता का मूल्यांकन करता है । यह नीरा स्वार्थ है। तो भी हम पाश्चात्य जगत को भारत से अधिक विकसित मानते हैं । 
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४७. विद्यालयों और महाविद्यालयों की समाजशास्त्र की पुस्तकों में भारतीय समाजन्यवस्थाको पुराणपंथी, दक़ियानूसी, अंधश्रद्धायुक्त बताया है और पश्चिम के समाजजीवन की संकल्पनाओं के अनुसार उस व्यवस्था में कानून बनाकर “सुधार किए गए हैं । इन सुधारों का आँख मूंदकर स्वीकार किया गया और एक भी प्रश्नचचिक्न नहीं लगाया गया यह हीनताबोध का लक्षण नहीं तो और क्या है । 
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४८. अर्थव्यवस्था में अनेकविध प्रकार के भ्रष्टाचारों का समर्थन करने वाले देश कितने ही असंस्कृत हों तो भी केवल समृद्ध हैं इडलिए विकसित कहे जाते हैं और उनकी व्याख्या के अनुसार भारत विकासशील देश है इसका स्वीकार भारत का बौद्धिक विश्व करता है यह भी हीनताबोध का ही लक्षण है । 
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४९. गोरा व्यक्ति देखा नहीं कि उसके साथ बात करने के लिए, उसके साथ फोटो खिंचाने के लिए उत्सुक यूवक और युवतियाँ किस कारण से ऐसा करते हैं इसका उत्तर वे स्वयं भी कदाचित नहीं दे पाएंगे । 
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५०. ये कुछ उदाहरण हैं हमारा हीनताबोध हजार रूप धारण कर सर्वत्र व्याप्त है । इससे मुक्त होना हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि इसके चलते हमारा सारा पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाता है |
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