हमारे हीनताबोध के पत्र पुष्प फल
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मानसिकता
१. हम अपने आपको आर्य मानते थे । आर्य का अर्थ है संस्कारों में श्रेष्ठ । जो प्रजा भौतिक स्तर से ऊपर उठकर उन्नत जीवन जीती है वह आर्य है । हम स्वयं तो आर्य थे ही, हम विश्व को भी आर्य बनाना चाहते थे । अतः हम सदा कहते थे, कृण्व॑ततों विश्वमार्यम्' अर्थात सम्पूर्ण विश्व को भी हम आर्य बनायें ।
२. परन्तु ब्रिटिश काल में हमारी आर्यभावना को ग्रहण लग गया । ब्रिटीशों ने अत्याचार, लूट और शिक्षा के माध्यम से हमें उनके अधीन कर दिया और हम आर्य प्रजा हीनताबोध से ग्रस्त हो गए । उसमें भी शिक्षा ही मुख्य साधन था । अत्याचारों का तो हम प्रतिकार कर लेते परन्तु शिक्षा के द्वारा बदला हुआ मानस आज भी हमें गुलामी से मुक्त नहीं होने देता है ।
३. ब्रिटिश शिक्षा के माध्यम से सबसे बड़ा आघात हमारी मानसिकता पर हुआ है । हीनताबोध हमारे मन में इतना गहरे तक पैठ गया है कि हम उसे पहचानने में भी यशस्वी नहीं हो रहे हैं । पहचान भी लेते हैं तो मानने से इनकार कर देते हैं । रोग जब शरीर में सर्वत्र व्याप्त हो गया होता है तब रोगी ऐसा ही करता है ।
४. ऐसे रोगी को कोई स्मरण भी करवाए कि तुम रोगी हो तो हम गुस्सा हो जाते हैं और कहने वाले पर नाराज होते हैं । ठीक वैसे ही कोई हमें हीनताबोध कि बात करता है तो हम उससे सहमत नहीं होते हैं और हम हीनताबोध से ग्रस्त नहीं हैं यह सिद्ध करने के लिए तर्क देने लगते हैं ।
५. थोड़ी भी विवेकबुद्धि बची है वे इस रोग को उसकी पूरी भीषणता के साथ देख सकते हैं । वे इसका उपचार करने का भी प्रयास करते हैं । अधिकांश तो वे उनके प्रयासों में यशस्वी नहीं होते हैं । तथापि वे अपने प्रयास रोक नहीं देते क्योंकि वे आशावान होते हैं । उन्हें लगता है कि हम अभी भी इस रोग से मुक्त हो सकते हैं ।
६. हीनताबोध का यह रोग हमारे छोटे बड़े सभी व्यवहारों में, व्यवस्थाओं में, आयोजनों में, रचनाओं में दिखाई देता है । वह विभिन्न रूप धारण कर सर्वत्र संचार करता है । उसके ये रूप अनेक बार आकर्षक भी होते हैं । हम उस आकर्षण के पाश से मुक्त होने में असमर्थ हो जाते हैं ।
आहारविहार
७. हमने अपनी वेषभूषा छोड़ कर अंग्रेजी वेषभूषा धारण कर ली है । सारे बड़े बड़े भव्य आयोजनों में सब कोट पेंट टाई पहने होते हैं । वह अपने देश के तापमान के लिए सुविधाजनक नहीं होता तो भी उसे पहने रहते हैं ।
८. विवाहासमारोहों में फैशन के नाम पर, विविधता के लिए, कार्यकर्ता के रूप में हम भारतीय वेश पहन लेते हैं परन्तु वह कभी कभार ही होता है । दैनंदिन वेश शर्ट और पेंट ही होता है । वह अब जैसे भारतीय वेश बन गया है ।
९. विद्यालयों में, कार्यालयों में, समारोहों में, यात्रा में, कारखानों में हम भारतीय वेश पहन कर नहीं जा सकते हैं । ऐसा नहीं है कि कोई कानून बना है और कोई हमें भारतीय वेश पहनने पर दृंडित करेगा । तो भी हम भारतीय वेश पहनना पसंद नहीं करते ।
१०, यदि हम कहीं भारतीय वेश पहनकर जाते हैं तो अलग दिखाई देते हैं । लोग हमें या तो पिछड़ा मानते हैं या किसी विशेष संस्था का कार्यकर्ता । अपने ही देश में हम अपना वेश पहनकर पराये से लगने लगे हैं ।
११, शिक्षित लोग तो ग्रामीण वेश पहनते ही नहीं हैं। ग्रामीण होने का अर्थ ही पिछड़ा होना हो गया है जबकि देश की सच्ची समृद्धि तो ग्रामों के कारण से है। गाँव जीवन के लिए मूल रूप से आवश्यक सामग्री के उत्पादन केंद्र हैं ।
१२. विद्यालय में पढ़ने के लिए जाना है तो गणवेश पहनना होता है, परन्तु गणवेश भारतीय आकारप्रकार का नहीं होता है । कोई चरवाहे का, कोई कृषक का, कोई पुजारी का पुत्र अपनी जाती का वेश पहनकर महाविद्यालय में या कार्यालय में पढ़ने या काम करने के लिए जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता । बिना कानून के ही यह बात सब स्वीकार कर लेते हैं ।
१३. जैसे जैसे समय बीत रहा है वेश का यह अंग्रेजीकरण बढ़ता ही जा रहा है । प्रारंभ में लड़कियां अंग्रेजी वेश नहीं पहनती थीं । अब वे भी पहनने लगी हैं । अब तो वे पुरुषों का अंग्रेजी वेश पहनने लगी हैं । वेश के साथ साथ उन्होंने भारतीय अलंकारों का भी त्याग किया है । इसीको आधुनिकता माना जाता है ।
१४. इस अंग्रेजी वेश का प्रारम्भ अंग्रेजी शिक्षा के साथ ही हुआ है यह स्मरण में रखने से हीनताबोध के अनुभव के लिए शिक्षा की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है यह बात ध्यान में आएगी । अंग्रेजी विद्यालय में जाने के लिए भारतीय वेश नहीं चलेगा ऐसा विधान बनाया गया था । कानून के साथ साथ वेश के माध्यम से भी प्रभावित करने का यह उपाय था ।
१५. घरों की व्यवस्थाओं में अंग्रेजियत सर्वाधिक दिखाई देती है । भवन बनाने की सामग्री, साजोसामान की, सजावट की, सुविधाओं की रचना में सर्वत्र अंग्रेजियत दिखाई देती है ।
१६. हमारा घर अब शयनखंडों की पहचान वाला बन गया है। विज्ञापनों में दो, तीन, चार शयनखंडों का ही उल्लेख होता है । भारतीय घरों की पहचान शयनखंड नहीं थी । उल्टे दिन में शयनखंड में बिस्तर पर सोना ही निषिद्ध माना जाता था । प्रात:काल स्नान करने के बाद बिस्तर का स्पर्श भी नहीं किया जाता था । केवल रोगी ही दिन में बिस्तर पर सोता था । दिन में बिस्तर बिछाकर सोने वाला द्रिद्री माना जाता था ।
१७. भोजन बनाने की और करने की पद्धति बदल गई है । भोजन नीचे बैठ कर बनाने की पद्धति को छोड़कर हमने खड़े खडे भोजन बनाना अपना लिया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से वह उचित नहीं है, थकान भी हो जाती है तो भी हमें सुविधा लगने लगी है । खड़े खड़े भोजन बनाने से घुटनों का दर्द जल्दी हो जाता है, मानसिक स्थिरता कम होती है तो भी हमें खड़े खड़े भोजन बनाना ही पसन्द है । बैठकर भोजन बनाने वाले पिछड़े माने जाते हैं । अब हमारे शरीर और मन को अभ्यास हो गया है । यह रोग से अभ्यस्त हो जाने जैसा ही है क्योंकि अभ्यस्त हो जाने से नुकसान नहीं होता है ऐसा नहीं है ।
१८. उसी प्रकार डाइनिंग टेबल पर बैठकर भोजन करना प्रगति की निशानी मानी जाती है । पैसे वाले के घर में डाइनिंग टैबल न हो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । अब तो लोग नीचे बैठ भी नहीं सकते । लोग घुटनों के दर्द का कारण बताते हैं परन्तु घुटनों का दर्द कारण नहीं परिणाम है ।
१९. बच्चोंं ने जन्म से ही नीचे बैठना सीखा ही नहीं होता है । उन्होंने किसीको नीचे बैठे हुए देखा ही नहीं होता है अतः पालथी क्या होती है यह वे जानते ही नहीं हैं । घुटने चलते चलते भूमि पर बैठ तो जाते ही हैं परन्तु बहुत जल्दी यह आदत भूल जाते हैं और पालथी लगाकर बैठना होता है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ।
२०. कार्यालयों में काम करने के लिए नीचे बैठना होता है ऐसी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । लिखना, संगणक पर काम करना, बैठक करना आदि काम टेबल कुर्सी के बिना नहीं हो सकते । उसी प्रकार विद्यालयों में बेंच और डेस्क तथा टेबल और कुर्सी अनिवार्य माने जाते हैं । छोटे बच्चोंं के प्लेस्कूल में भी टेबल और कुर्सी प्रगति की निशानी मानी जाती है ।
२१. इस प्रकार की व्यवस्था में घर इतने भीड़ वाले हो जाते हैं कि मुक्तता से चलना फिरना भी नहीं होता है । घर छोटे पड़ने लगते हैं । अनेक प्रकार के काम करने में और व्यवस्था बिठाने में कठिनाई होती है ।
२२. शरीरविज्ञान के अनुसार पालथी लगाकर बैठना आरोग्य के लिए अच्छा होता है । अनेक मानसिक और बौद्धिक कार्य नीचे बैठकर ही किए जा सकते हैं । ध्यान करना, प्राणायाम करना, 3कार का उच्चारण करना, मंत्रपाठ करना, उपदेश करना, पढ़ाना, गाना, खाना, उपदेश सुनना, भाषण करना नीचे बैठकर आराम से स्थिरतापूर्वक करने के काम हैं । नीचे बैठकर ही वे अच्छे होते हैं । खड़े होकर करने से उनकी गुणवत्ता और परिणामकारकता कम हो जाती है । यह सब हम भूल गए हैं और कोई कहता है तो जल्दी मानने को मन नहीं करता । बुद्धि से समझ लिया तो भी मन नहीं मानता ।
२३. ऐसा एक बहुत बड़ा हीनताबोध का लक्षण है अंग्रेजी भाषा का प्रभाव । इसके चलते हमने अपनी विवेकबुद्धि पूर्ण रूप से खो दी है । हमें लगता है कि अंग्रेजी भाषा के बिना हमारा विकास हो ही नहीं सकता । इस भाषा के बिना हमारा जीना ही जैसे दूभर हो जाएगा ।
२४. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इतने अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे शासकीय पत्रव्यवहार की भाषा अंग्रेजी है । प्रशासन के उच्च अधिकारियों को निर्देश दिया जाता है कि वे जिस प्रान्त में काम कर रहे हैं वहाँ कि प्रांतीय भाषा सीखें और उसमें व्यवहार करें परन्तु वे अंग्रेजी को छोड़कर बहुत कम व्यवहार करते हैं । उनके व्यवहार से अंग्रेजी नहीं जानने वाले लोगोंं को हीनताबोध का अनुभव होता है ।
२५. उच्च पदवियों की परीक्षायें कानून से तो प्रांतीय भाषाओं में संचालित होती हैं परन्तु उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाता । उन्हें अग्रिमता भी नहीं दी जाती । एक ओर तो हिन्दी को आधिकारिक स्थान दिया जाता है परन्तु दूसरी ओर अंग्रेजी नहीं आने पर व्यावहारिक कठिनाइयों का अनुभव होता है ।
२६. एक ओर तो हिन्दी का महत्त्व बढ़ाने की बात की जाती है दूसरी ओर प्राथमिक विद्यालयों में भी अंग्रेजी की शिक्षा आरम्भ की जाती है । एक पीढ़ी पूर्व आठवीं कक्षा में अंग्रेजी की पढ़ाई आरम्भ होती थी, आज कक्षा एक से ही अंग्रेजी पढ़ाया जाता है। भले ही वह शिक्षाशास्त्र के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हो तो भी ऐसा किया जाता है ।
२७. केवल विषय ही नहीं तो माध्यम भी अंग्रेजी भाषा का हो इसका आग्रह बढ़ रहा है। गलियों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय आरम्भ हो रहे हैं । प्रादेशिक भाषा के विद्यालय बन्द हो रहे हैं । पढेलिखे लोगोंं को अंग्रेजी इतनी अनिवार्य लगती है कि वे किसी भी प्रकार का तर्क सुनने के लिए तैयार ही नहीं है ।
२८. प्राथमिक विद्यालयों से ही ऐसी मान्यता प्रचलित की जाती है कि गणित और विज्ञान जैसे विषय तो अंग्रेजी में ही पढे जाते हैं । अतः एक सेमी अंग्रेजी कि पद्धति चली है जिसमें ये दो विषय अंग्रेजी में पढ़ाये जाते हैं और शेष विषय प्रादेशिक भाषा में । इन शेष विषयों का शिक्षा की दृष्टि से भी कोई मूल्य नहीं होता ।
२९. कहीं सरकारी दफ्तर में जाओ और प्रादेशिक भाषा में बात करो तो अपनी स्वाभाविक उदासीनता से बाबू कोई उत्तर ही नहीं देता या काम नहीं करता परन्तु यदि अंग्रेजी में बात करो तो तुरन्त प्रभाव होता है । अंग्रेजी ठीक से आती हो या न हो अंग्रेजी सम्मान करने योग्य भाषा है ।
३०. छात्र अपने विषय के अध्ययन के लिए अंग्रेजी लेखकों की सन्दर्भ पुस्तकें वरीयतापूर्वक पसन्द करते हैं । उन्हें लगता है कि भारतीय विद्वानों में इतनी विद्रत्ता नहीं होती जितनी यूरोपीय विद्वानों में होती है ।
३१. अंग्रेजी भाषा आती हो या नहीं मातृभाषा में बात करते समय भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने में लोग गौरव का अनुभव करते हैं । मातृभाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग तो गौरव का विषय है परन्तु अंग्रेजी में मातृभाषा का प्रयोग भाषा को अशुद्ध करना है ।
३२. अंग्रेजी भाषा का यह दुष्प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया है कि भारतीय भाषाओं के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । एक ओर तो मातृभाषा का आग्रह बढ़ाना और दूसरी ओर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ाना ऐसी दोहरी नीति से हम न इधर के रहते हैं न उधर के । न अंग्रेजी आती है न मातृभाषा । भाषा अच्छी न आने से बौद्धिक और भावात्मक कितनी हानि होती है इसका भान भी नहीं होता ।
३३. हमारे आहारविहार पर अंग्रेजी का प्रभाव इतना अधिक है कि इसका क्या करें यह भी समझ में नहीं आता । उदाहरण के लिए हमारे विवाहसमारोहों में जो भोजन पद्धति है उसमें पराकोटी की असंस्कारिता का प्रदर्शन होता है । इतने अधिक भोजन पदार्थ, खड़े होकर भोजन, प्रारम्भ में गरम पेय और अन्त में आइसक्रीम की पद्धति सीधा अंग्रेजी पद्धति का अनुकरण है । वैभव का इतना खर्चीला और असुन्दर प्रदर्शन विवाह को मंगल और शुभ प्रसंग नहीं रहने देता है ।
३४. विवाहसंस्कार से भी स्वागत समारोह का महत्त्व अधिक हो गया है । इतना ही नहीं तो संस्कार केवल कर्मकाण्ड है, अधिकृतता तो न्यायालय में विवाह का पंजीकरण करवाने से ही होती है ।
३५. जिन्हें अँग्रेजी नहीं आती वे अपने आपको बहुत fea मानते हैं । जो जो बिना अंग्रेज़ी पढ़े डॉक्टर आदि बन गए हैं उन्हें भी अँग्रेजी नहीं पढे होने का दुःख रहता है । वास्तव में उन्हें डोकटरी करने में कोई कठिनाई होती है ऐसा तो नहीं है परंतु अँग्रेजी बोलने वाले डॉक्टरों को देखकर दुःख होता है ।
३६. किसी आदर्शवश जिन मातापिताओं ने अपने बच्चोंं को मातृभाषा माध्यम में पढ़ाया है उनके बच्चे बड़े होकर हीनताबोध से ग्रस्त हो जाते हैं और मातापिता को कोसते हैं । ऐसे उदाहरण देखके नए मातापिता अपने बच्चोंं को मातृभाषा माध्यम में पढ़ाने का साहस नहीं करते । इस प्रकार अँग्रेजी बढ़ता ही जाता है ।
३७. जो मातृभाषा के आदर के लिए मातृभाषा में ही व्यवहार करते हैं वे भी बताना नहीं चूकते कि उन्हें अँग्रेजी नहीं आती है ऐसा नहीं है । हर बार अँग्रेजी आती है यह तो बताना ही पड़ता है । इसे सिद्ध करने के लिए अँग्रेजी बोलकर भी दिखाते हैं । इससे तो अँग्रेजी सीधे सीधे बोलना अधिक अच्छा है ।
३८. जो लोग मातृभाषा का आग्रह रखते हैं वे भी कहते रहते हैं कि हमें अँग्रेजी से दुश्मनी नहीं है, अँग्रेजी भी अच्छी भाषा है, कोई भी भाषा अपने आपमें बुरी नहीं होती अतः अँग्रेजी माध्यम नहीं चाहिए, अँग्रेजी भाषा तो अच्छी तरह सिखनी ही चाहिए । किसी न किसी प्रकार अँग्रेजी का महत्त्व तो स्वीकार करना पड़ता है ।
३९. सिनेमा के क्षेत्र में हॉलीवुड का महत्त्व बॉलीवुड कि अपेक्षा अधिक है । वहाँ कला कि गुणवत्ता बॉलीवुड से अधिक है अतः ही केवल ऐसा नहीं है । वह हॉलीवुड है यह एक कारण है और वहाँ पैसे अधिक हैं यह दूसरा कारण है । पैसे कुछ कम भी हों तो भी हॉलीवुड का महत्त्व हॉलीवुड है इसीलिए अधिक है ।
४०. योग को जब पाश्चात्य जगत में मान्यता प्राप्त हुई तब हम कहने लगे कि अब तो पश्चिम भी योग का स्वीकार करने लगा अर्थात योग का महत्त्व अब सिद्ध हुआ । भारतीय विद्याओं को पश्चिम का ठप्पा लगाना आवश्यक होता है ।
४१. भारतीय शास्त्रीय संगीत विश्व में सर्वश्रेष्ठ है तो भी उसका मर्म समझे बिना पाश्चात्य और भारतीय शास्त्रीय संगीत का फ्यूझन करने कि एक फैशन चली है । यह भारतीय विद्याओं को पश्चिम के मापदण्डों से तौलना है |
४२. मुझे संस्कृत नहीं आती यह कहने में किसीको लज्जा का अनुभव नहीं होता परंतु मुझे अँग्रेजी नहीं आती ऐसा कहने में लज्जा का अनुभव होता है । संस्कृत ही क्यों मातृभाषा नहीं आती यह कहने में भी लज्जा का अनुभव नहीं होता ।
४३. विश्व की अनेक भाषायें अंग्रेजीपरस्ती के कारण नष्ट होने पर तुली हैं ऐसी शिकायत करने वाले अपने बच्चोंं को अँग्रेजी ही पढ़ाते हैं । भारत में भी संस्कृत को जर्मन, फ्रेंच जैसी भाषाओं के साथ वैकल्पिक भाषा का स्थान दिया जाता है ।
४४. धर्मपालजी ने एक मजेदार किस्सा बताया है । शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलतर्सिह कोठारी ने अपना अनुभव बताया है कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए आवास बन रहे थे तब अंग्रेज़ कुलपति आवासों में पाश्चात्य पद्धति के शौचालयों के आग्रही थे, भारतीय पद्धति के नहीं । आज अब पाश्चात्य पद्धति के शौचालय हमारी आवश्यकता बन गई है । मानस परिवर्तन कैसे होता है इसका यह उदाहरण है ।
पाश्रात्य मापदण्ड
४५. भारत के शास्त्रों के लिए पाश्चात्य विद्वानों के प्रमाणों को वरीयता दी जाती है । साथ ही पाश्चात्य सिद्धांतों का विरोध नहीं होता है परन्तु भारतीय सिद्धांतों के लिए सहज स्वीकृति नहीं होती । शास्त्रीय पद्धति से दोनों सिद्धांतों का विश्लेषण और परीक्षण समान रूप से होना चाहिए परन्तु दोनों को समान नहीं माना जाता है । पाश्चात्य पर स्वीकृति की मुहर बिना परीक्षण के लग जाती है जबकि भारतीय पर नहीं । उस पर यदि कोई पाश्चात्य विद्वान मुहर लगा दे तो फिर परीक्षण की आवश्यकता भी नहीं होती ।
४६. वैश्विक मापदंड के नाते भारत कहता है कोई भी सिद्धान्त या व्यवहार सर्वे भवन्तु सुखिना: के मापदंड पर खरा उतरना चाहिए। परन्तु पाश्चात्य जगत विश्वकल्याण का नहीं परन्तु विश्व का स्वयं के लिए कैसे और कितना उपयोग हो सकता है इसके आधार पर वैश्विकता का मूल्यांकन करता है । यह नीरा स्वार्थ है। तो भी हम पाश्चात्य जगत को भारत से अधिक विकसित मानते हैं ।
४७. विद्यालयों और महाविद्यालयों की समाजशास्त्र की पुस्तकों में भारतीय समाजन्यवस्थाको पुराणपंथी, दक़ियानूसी, अंधश्रद्धायुक्त बताया है और पश्चिम के समाजजीवन की संकल्पनाओं के अनुसार उस व्यवस्था में कानून बनाकर “सुधार किए गए हैं । इन सुधारों का आँख मूंदकर स्वीकार किया गया और एक भी प्रश्नचचिक्न नहीं लगाया गया यह हीनताबोध का लक्षण नहीं तो और क्या है ।
४८. अर्थव्यवस्था में अनेकविध प्रकार के भ्रष्टाचारों का समर्थन करने वाले देश कितने ही असंस्कृत हों तो भी केवल समृद्ध हैं इडलिए विकसित कहे जाते हैं और उनकी व्याख्या के अनुसार भारत विकासशील देश है इसका स्वीकार भारत का बौद्धिक विश्व करता है यह भी हीनताबोध का ही लक्षण है ।
४९. गोरा व्यक्ति देखा नहीं कि उसके साथ बात करने के लिए, उसके साथ फोटो खिंचाने के लिए उत्सुक यूवक और युवतियाँ किस कारण से ऐसा करते हैं इसका उत्तर वे स्वयं भी कदाचित नहीं दे पाएंगे ।
५०. ये कुछ उदाहरण हैं हमारा हीनताबोध हजार रूप धारण कर सर्वत्र व्याप्त है । इससे मुक्त होना हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि इसके चलते हमारा सारा पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाता है |