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श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर हमेशा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
 
श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर हमेशा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
  

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