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श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर हमेशा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
 
श्रेष्ठ या कनिष्ठ है या अर्वाचीन केवल अर्वाचीन होने से ही श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। पिछडे का पिछडापन दूर कर हमेशा प्रगत बनना ही चाहिये या पुराणपंथी ही न रहकर आधुनिक बनना भी स्वाभाविक है । परन्तु ये सारे विशेषण अपने आप में स्वीकार्य या त्याज्य नहीं बन जाते हैं । महाकवि कालिदास अपने नाटक “मालविकायिमित्रमू में कहते हैं -
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इस प्रकार के तर्क लगते तो हैं न्यायपूर्ण और स्वाभाविक । साथ ही उसमें तटस्थता का भी पुट लगा हुआ लगता है। परन्तु विश्व का इतिहास, विभिन्न संस्कृतियों का इतिहास, प्रकृति की रचना इस तर्क की पुष्टि नहीं करते । वास्तविकता की कसौटी पर यह तर्क नहीं, तकभिस ही सिद्ध होता है ।
 
इस प्रकार के तर्क लगते तो हैं न्यायपूर्ण और स्वाभाविक । साथ ही उसमें तटस्थता का भी पुट लगा हुआ लगता है। परन्तु विश्व का इतिहास, विभिन्न संस्कृतियों का इतिहास, प्रकृति की रचना इस तर्क की पुष्टि नहीं करते । वास्तविकता की कसौटी पर यह तर्क नहीं, तकभिस ही सिद्ध होता है ।
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यह कसौटी क्या है ?
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=== यह कसौटी क्या है ? ===
    
कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है या त्याज्य यह उसके यूरोपीय या भारतीय होने से तय नहीं होता । न यह उसका समर्थन करने वालों की संख्या के आधार पर तय होता है । न सत्ता और बल के आधार पर तय होता है । यह तय
 
कौनसा प्रतिमान स्वीकार्य है या त्याज्य यह उसके यूरोपीय या भारतीय होने से तय नहीं होता । न यह उसका समर्थन करने वालों की संख्या के आधार पर तय होता है । न सत्ता और बल के आधार पर तय होता है । यह तय
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