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भारत के मनीषियों ने मनुष्य जीवन के उन्नयन के लिये व्यक्ति और समाज की समरसता और सामंजस्य बिठाते हुए चार आश्रमों की व्यवस्था दी । ये चार आश्रम हैं, ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम. और संन्यास्ताश्रम । इनकी विस्तार से चर्चा अन्यत्र की हुई है इसलिए यहाँ विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है । केवल इतना स्मरण कर लें कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ आश्रम है। घर में पन्द्रह से पाचीस वर्ष की आयु में सीखने के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ्यक्रम है। पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति विद्यालयों में होती है उससे अलग घर में अवश्य होती है परन्तु गंभीरता कम नहीं होती है, कुछ अधिक ही होती है। स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जुड़कर पति और पत्नी बनते हैं और उनका गृहस्थाश्रम शुरू होता है। विवाह से पूर्व दस वर्ष इसकी शिक्षा चलती है । आज इसे जरा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, परन्तु इससे उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता। उल्टे इसे महत्त्वपूर्ण मानने की आवश्यकता है इस मुद्दे से ही सीखना शुरू करना पड़ेगा । दस वर्षों में इस तैयारी के मुद्दे क्या क्‍या हैं इसका अब विचार करेंगे ।
 
भारत के मनीषियों ने मनुष्य जीवन के उन्नयन के लिये व्यक्ति और समाज की समरसता और सामंजस्य बिठाते हुए चार आश्रमों की व्यवस्था दी । ये चार आश्रम हैं, ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम. और संन्यास्ताश्रम । इनकी विस्तार से चर्चा अन्यत्र की हुई है इसलिए यहाँ विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है । केवल इतना स्मरण कर लें कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ आश्रम है। घर में पन्द्रह से पाचीस वर्ष की आयु में सीखने के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ्यक्रम है। पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति विद्यालयों में होती है उससे अलग घर में अवश्य होती है परन्तु गंभीरता कम नहीं होती है, कुछ अधिक ही होती है। स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जुड़कर पति और पत्नी बनते हैं और उनका गृहस्थाश्रम शुरू होता है। विवाह से पूर्व दस वर्ष इसकी शिक्षा चलती है । आज इसे जरा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, परन्तु इससे उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता। उल्टे इसे महत्त्वपूर्ण मानने की आवश्यकता है इस मुद्दे से ही सीखना शुरू करना पड़ेगा । दस वर्षों में इस तैयारी के मुद्दे क्या क्‍या हैं इसका अब विचार करेंगे ।
 
# हमारे कुल, गोत्र, पूर्वज, नाते, रिश्ते आदि का परिचय प्राप्त करना पहली आवश्यकता है । आज हम जो हैं उसमें उनका कितना अधिक योगदान है वह समझना चाहिए । हमारे वर्तमान रिश्तेदारों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने की कला अवगत करनी चाहिए । उनके साथ के सम्बन्धों में हमारे घर की क्या भूमिका है इसकी उचित समझ होना आवश्यक है । मधुर अर्थगम्भीरवाणी का प्रयोग आना चाहिए ।
 
# हमारे कुल, गोत्र, पूर्वज, नाते, रिश्ते आदि का परिचय प्राप्त करना पहली आवश्यकता है । आज हम जो हैं उसमें उनका कितना अधिक योगदान है वह समझना चाहिए । हमारे वर्तमान रिश्तेदारों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने की कला अवगत करनी चाहिए । उनके साथ के सम्बन्धों में हमारे घर की क्या भूमिका है इसकी उचित समझ होना आवश्यक है । मधुर अर्थगम्भीरवाणी का प्रयोग आना चाहिए ।
# घर कैसे चलता है, पति-पत्नी के और मातापिता और संतानों के सम्बन्ध कैसे बनते हैं और कैसे निभाए जाते हैं इसकी समझ विकसित होनी चाहिए । इसके लिये साथ साथ रहना ही नहीं तो साथ साथ जीना आवश्यक होता है। यह औपचारिक शिक्षा नहीं है। साथ जीते जीते बहुत कुछ सीखा जाता है। सीखने का मनोविज्ञान भी कहता है कि सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना ही है । इस शिक्षा के लिये समयसारिणी नहीं होती, न औपचारिक कक्षायें लगती हैं । फिर भी उत्तम सीखा जाता है । अनजाने में ही सीखा जाता है।
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# घर कैसे चलता है, पति-पत्नी के और मातापिता और संतानों के सम्बन्ध कैसे बनते हैं और कैसे निभाए जाते हैं इसकी समझ विकसित होनी चाहिए । इसके लिये साथ साथ रहना ही नहीं तो साथ साथ जीना आवश्यक होता है। यह औपचारिक शिक्षा नहीं है। साथ जीते जीते बहुत कुछ सीखा जाता है। सीखने का मनोविज्ञान भी कहता है कि सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना ही है । इस शिक्षा के लिये समयसारिणी नहीं होती, न औपचारिक कक्षायें लगती हैं । तथापि उत्तम सीखा जाता है । अनजाने में ही सीखा जाता है।
 
# काम करने की कुशलता, घर की प्रतिष्ठा सम्हालने की आवश्यकता, सबका मन और मान रखने की कुशलता, कम पैसे में अच्छे से अच्छा घर चलाने की समझ आदि सीखने की बातें हैं । स्वकेन्द्री न बनकर दूसरों के लिये कष्ट सहने में कितनी सार्थकता होती है इसका अनुभव होता है ।  
 
# काम करने की कुशलता, घर की प्रतिष्ठा सम्हालने की आवश्यकता, सबका मन और मान रखने की कुशलता, कम पैसे में अच्छे से अच्छा घर चलाने की समझ आदि सीखने की बातें हैं । स्वकेन्द्री न बनकर दूसरों के लिये कष्ट सहने में कितनी सार्थकता होती है इसका अनुभव होता है ।  
 
# हमारी कुल परंपरा, कुलरीति, ब्रत, उत्सव, त्योहार आदि की पद्धति सीखना भी बड़ा विषय है । छोटे और बड़े भाईबहनों के साथ रहना भी सीखा जाता है । घर सजाना, घर स्वच्छ रखना, खरीदी करना आदी असंख्य काम होते हैं । इनमें रस निर्माण करना ही सही शिक्षा है । घर के इन सारे कामों के लिये माता का शिष्यत्व स्वीकार करना चाहिए और घर के सभी सदस्यों ने माता से अनुकूलता बनानी चाहिए । माता को भी अपनी भूमिका का स्वीकार करना चाहिए ।
 
# हमारी कुल परंपरा, कुलरीति, ब्रत, उत्सव, त्योहार आदि की पद्धति सीखना भी बड़ा विषय है । छोटे और बड़े भाईबहनों के साथ रहना भी सीखा जाता है । घर सजाना, घर स्वच्छ रखना, खरीदी करना आदी असंख्य काम होते हैं । इनमें रस निर्माण करना ही सही शिक्षा है । घर के इन सारे कामों के लिये माता का शिष्यत्व स्वीकार करना चाहिए और घर के सभी सदस्यों ने माता से अनुकूलता बनानी चाहिए । माता को भी अपनी भूमिका का स्वीकार करना चाहिए ।

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