सोलह वर्ष के बाद की शिक्षा

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जिनका लालन और ताड़न सम्यक हुआ है वे बालक जब सोलह वर्ष के होते हैं तब कैसे रहते हैं इसका विचार करने से उनके साथ कैसा व्यवहार करना यह समझ में आता है[1]। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस आयु में उनका संभाव्य विकास हो चुका होता है । इसका तात्पर्य क्या है ?

उनकी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि की जो क्षमतायें होती हैं वे अब बन चुकी हैं। इनका जितना विकास होना था उतना हो चुका है । इसलिए अब जितनी क्षमता है उसका स्वीकार कर लेना मातापिता का प्रथम कर्तव्य है। इस आयु तक मातापिता ने कितना भी सम्यक और सही संगोपन किया होगा तो भी उनकी संभावना के अनुसार ही उनका चरित्र बनेगा, क्षमतायें विकसित होंगी। इसलिए उनकी क्षमता पहचान कर ही उनसे अपेक्षा करनी चाहिए। सभी बच्चे एक समान नहीं होते यह समझना चाहिए । अवास्तव अपेक्षायें करके स्वयं दुःखी नहीं होना चाहिए और संतानों को भी दोषी नहीं मानना चाहिए।

पहली बात है कि अब पुत्र या पुत्री के लिये गृहस्थाश्रम का प्रशिक्षण शुरू होता है । पुत्री माता की और पुत्र पिता का शिष्य होता है। अब से लेकर विवाह होने तक का काल प्रशिक्षण के लिये होता है । यह प्रशिक्षण दो बातों का होता है । एक होता है विवाहयोग्य बनने का और दूसरा होता है अर्थार्जन करने का ।

विवाह योग्य बनने का प्रशिक्षण

  1. इस आयु में ब्रह्मचर्य की अत्यधिक आवश्यकता होती है। संयम और स्सवृत्ति दोनों का संतुलित विकास होना अपेक्षित है। श्रृंगार और सादगी का संतुलन बिठाना आवश्यक है। लड़कों के लिये श्रृंगार निषिद्ध ही मानना चाहिए। लड़के और लड़किया दोनों में कलाओं का विकास होना चाहिए । विशेष रूप से संगीत दोनों के लिये बहुत लाभकारी है। संगीत भावनाओं का परिष्कार करता है । रसवृत्ति का सन्तुलन बहुत अच्छे से करता है । परन्तु संगीत के विषय में ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह भारतीय शास्त्रीय संगीत होना चाहिए। संगीत चित्तवृत्तियों को शान्त भी करता है और उत्तेजित भी करता है, उन्माद भी बढ़ाता है और प्रसन्नता भी बढ़ाता है। युद्ध के लिये भी भड़काता है और भक्ति के लिये भी प्रेरित करता है। इसलिए संगीत के स्वरूप का चयन करने में सावधानी रखनी चाहिए । दूसरा, संगीत सुनने का अभ्यास गाने में परिणत होना चाहिए । केवल सुनना अपेक्षित नहीं है, गाना या बजाना भी चाहिए, केवल नृत्य देखना अपेक्षित नहीं है, नृत्य करना भी चाहिए ।
  2. ब्रह्मचर्य को संभव बनाने के लिये खेलना और परिश्रम करना आवश्यक है। घर के आसपास और विद्यालयों में मैदान को शैक्षिक दृष्टि से भी आवश्यक माना गया है। लड़कों के लिये कुश्ती, मल्लखंभ, कबड़ी जैसे खेल और मेहनत के घर के काम करना लाभकारी होता है । लड़कियों के लिये खो खो जैसे और भागने के खेल तथा चक्की चलाने, कूटने और चटनी पीसने जैसे व्यायाम लाभकारी होते हैं। शारीरिक परिश्रम से दिन में कम से कम एक बार पसीना निथरना चाहिए । इससे शरीर और मन के मैल निकल जाते हैं और उत्तेजनाये कम होती हैं। प्रसन्नता बढ़ती है और स्वास्थ्य अच्छा होता है। यह सब सीखने के लिये समय मिलना चाहिए। इसलिए गणित, विज्ञान, संगणक की पढ़ाई के लिये कम समय बचता है तो चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
  3. यह सब सीखने का अर्थ यह नहीं है कि इनके लिये पैसा खर्च कर क्लास में जाओ । घर में ही इसका अच्छा अभ्यास हो सकता है । प्राथमिक स्वरूप के खेल और संगीत सिखाने कि व्यवस्था विद्यालय में ही होनी चाहिए । अतिरिक्त पैसे खर्च करने की और समय निकालने की आवश्यकता नहीं मानना चाहिए। स्पर्धा और पुरस्कारों के उद्देश्य से संगीत, खेल या योगाभ्यास, कलाकारीगरी या नृत्यनाटक नहीं होना चाहिए । व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास के लिये स्पर्धा से यथासंभव बचना ही चाहिए । पारंपरिक उत्सवों को निमित्त बनाकर खूब खेलना गाना होना चाहिए। हमारे नवरात्रि, होली, विजयादशमी जैसे उत्सव इस दृष्टि से बहुत उपयोगी हो सकते हैं।
  4. ब्रह्मचर्य के सम्यक्‌ पालन के लिये आहार का भी बहुत महत्त्व है। सात्विक खाना और रस लेकर खाना दोनों को आना चाहिए। भोजन बनाने और करने की वैज्ञानिक पद्धति दोनों को समझनी चाहिए और उस दृष्टि से भोजन सामग्री परखने की, भोजन बनाने की प्रक्रिया की, भोजन करने की वैज्ञानिक और सांस्कृतिक जानकारी होनी चाहिए। ऐसी जानकारी रखने वालों को ही शिक्षित कहा जाता है। जानकारी के साथ साथ कुशलता भी होनी चाहिए। क्रियात्मक कामों की क्रियात्मक जानकारी ही अपेक्षित होती है ।
  5. दोनों के लिये योगाभ्यास, पूजा, यज्ञ, सुर्यनमस्कार अनिवार्य बनाना चाहिए। ये सब इनके लिये केवल कर्मकाण्ड नहीं होने चाहिए। शिक्षित लोग कुशलतापूर्वक, अर्थ एवं प्रयोजन समझकर ये सारे काम करते हैं। उदाहरण के लिये पूजा क्‍यों करनी चाहिए, यज्ञ करने में घी आदि सामग्री का जलाकर नाश क्‍यों नहीं होता यह समझकर ये काम करने चाहिए। इस प्रकार सात्विक और पौष्टिक भोजन क्यों होना चाहिए इसका भी उन्हें पता होना चाहिये । ऋतु के अनुसार कौनसे सागसब्जी बाजार में मिलते हैं, कौन से सागसब्जी फल कब और कैसे खाना चाहिए, कौन से दिनों में कौन सा अनाज उगता है, उसकी गुणवत्ता परखने के लिये क्या करना चाहिए, आदि जानकारी दोनों को होनी चाहिए। वास्तव में यह बड़ा और महत्त्वपूर्ण विषय है और समय और बुद्धि लगाकर इसे जानना चाहिए। इसमें समय लगाना विद्यालय और महाविद्यालय की शिक्षा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए ।
  6. ब्रह्मचर्य के पालन के लिये लड़के और लड़कियों का स्वस्थ सम्बन्ध निर्माण करना अति आवश्यक है। कामनाओं का शास्त्र तो कहता है कि पिता और पुत्री ने निर्दोष भाव से भी एकान्त में नहीं रहना चाहिए । आज लड़के और लड़कियों की मित्रता को मान्य किया जाता है। इस सम्बन्ध में स्वस्थता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक शिष्टाचार, सज्जनों जैसी मानसिकता, स्त्रीदाक्षिण्य, स्त्रीसुलभ लज्जा आदि का जतन कर लड़के लड़कियों का व्यवहार निर्देशित हो, यह देखना चाहिए। यह सब खुलेपन से चर्चा कर, बच्चों की समझ और सहमति बनाकर होना चाहिए। यही शिक्षा है। केवल आज्ञा से, ज़बरदस्ती से शिष्टाचार का पालन करवाना, मातापिता की परवाह न करते हुए अथवा छिपाकर मैत्री बनाना न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। संकेतों के रूप में व्यक्त होने वाली मातापिता की सहमति अथवा असहमति को समझने की वृत्ति और बुद्धि का विकास करना चाहिए ।
  7. आजकल बारबार कहा जाता है कि बच्चों की रुचि के अनुसार करने देना चाहिए। उनकी स्वतन्त्रता का सम्मान करना चाहिए । सिद्धांत के रूप में तो यह बात सत्य है परन्तु उन्हें स्वयं की रुचि और इच्छाओं के स्वरूप और परिणाम का विश्लेषण करना सिखाना चाहिए और बाद में उन्हें स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहार करने देना चाहिए । बड़ों का यही काम है। छोटों का भी इस प्रकार सीखने का कर्तव्य है। इसे ही बड़ों के अनुभवों से लाभान्वित होना कहा जाता है । घर में यह सब सम्भव हो सके इसके लिये दोनों ओर पर्याप्त धैर्य की आवश्यकता होती है। दो पीढ़ियों के बीच का आयु का अन्तर जनरेशन गेप न बन जाये इसका ध्यान रखना चाहिए।
  8. यह आयु विजातीय आकर्षण की होती है। यह आकर्षण असंख्य रूप धारण किए हुए रहता है। इसे समझना और समझाना सम्भव बनना चाहिए । यौनशिक्षा की बात पूर्व में की ही है ।
  9. संगीत और कला के साथ साथ साहित्य और काव्य का रस ग्रहण करने की शिक्षा भी मिलनी आवश्यक है। इसका ध्यान तो विद्यालय में भी रखा जाना चाहिए परन्तु इसके लिये अनुकूल वातावरण घर में होना चाहिए। पुस्तकें पढ़ने का शौक घर में सभी को होना चाहिए और पढे हुए की चर्चा भोजन के टेबल पर होनी चाहिए। एक उक्ति है, काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम; अर्थात बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्र के विनोद से बीतता है। नित्य टीवी के सामने बैठना और एकदूसरे से कुछ बात ही नहीं करना इसमें कितनी बाधा खड़ी करता है यह समझ में आने वाली बात है।
  10. ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल नकारात्मक ही नहीं है। वृत्तियों का उन्नयन करना सही दृष्टि है। इसलिए संयम के साथसाथ निकृष्ट वृत्तियों, पदार्थों और कार्यकलापों में रुचि नहीं होना भी अपेक्षित है। किसी भी वस्तु को छोड़ने से पूर्व उससे अधिक अच्छी वस्तु सामने आने से निकृष्ट वस्तु अपने आप छूट जाती है। जो दरिद्र होता है वही पीतल के आभूषणों में या खराब पदार्थ खाने में रुचि लेता है। जिसके पास हीरेमोती और सुवर्ण के आभूषण हैं और जिसे बादाम खाने को मिलता है वह पीतल के आभूषणों में और बाजारू पदार्थों में अपने आप ही रुचि नहीं लेगा । यह नियम मनोरंजन के लिये भी लागू है।

गृहस्थाश्रम की तैयारी

भारत के मनीषियों ने मनुष्य जीवन के उन्नयन के लिये व्यक्ति और समाज की समरसता और सामंजस्य बिठाते हुए चार आश्रमों की व्यवस्था दी । ये चार आश्रम हैं, ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम. और संन्यास्ताश्रम । इनकी विस्तार से चर्चा अन्यत्र की हुई है इसलिए यहाँ विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है । केवल इतना स्मरण कर लें कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ आश्रम है। घर में पन्द्रह से पाचीस वर्ष की आयु में सीखने के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ्यक्रम है। पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति विद्यालयों में होती है उससे अलग घर में अवश्य होती है परन्तु गंभीरता कम नहीं होती है, कुछ अधिक ही होती है। स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जुड़कर पति और पत्नी बनते हैं और उनका गृहस्थाश्रम शुरू होता है। विवाह से पूर्व दस वर्ष इसकी शिक्षा चलती है । आज इसे जरा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, परन्तु इससे उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता। उल्टे इसे महत्त्वपूर्ण मानने की आवश्यकता है इस मुद्दे से ही सीखना शुरू करना पड़ेगा । दस वर्षों में इस तैयारी के मुद्दे क्या क्‍या हैं इसका अब विचार करेंगे ।

  1. हमारे कुल, गोत्र, पूर्वज, नाते, रिश्ते आदि का परिचय प्राप्त करना पहली आवश्यकता है । आज हम जो हैं उसमें उनका कितना अधिक योगदान है वह समझना चाहिए । हमारे वर्तमान रिश्तेदारों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने की कला अवगत करनी चाहिए । उनके साथ के सम्बन्धों में हमारे घर की क्या भूमिका है इसकी उचित समझ होना आवश्यक है । मधुर अर्थगम्भीरवाणी का प्रयोग आना चाहिए ।
  2. घर कैसे चलता है, पति-पत्नी के और मातापिता और संतानों के सम्बन्ध कैसे बनते हैं और कैसे निभाए जाते हैं इसकी समझ विकसित होनी चाहिए । इसके लिये साथ साथ रहना ही नहीं तो साथ साथ जीना आवश्यक होता है। यह औपचारिक शिक्षा नहीं है। साथ जीते जीते बहुत कुछ सीखा जाता है। सीखने का मनोविज्ञान भी कहता है कि सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना ही है । इस शिक्षा के लिये समयसारिणी नहीं होती, न औपचारिक कक्षायें लगती हैं । तथापि उत्तम सीखा जाता है । अनजाने में ही सीखा जाता है।
  3. काम करने की कुशलता, घर की प्रतिष्ठा सम्हालने की आवश्यकता, सबका मन और मान रखने की कुशलता, कम पैसे में अच्छे से अच्छा घर चलाने की समझ आदि सीखने की बातें हैं । स्वकेन्द्री न बनकर दूसरों के लिये कष्ट सहने में कितनी सार्थकता होती है इसका अनुभव होता है ।
  4. हमारी कुल परंपरा, कुलरीति, ब्रत, उत्सव, त्योहार आदि की पद्धति सीखना भी बड़ा विषय है । छोटे और बड़े भाईबहनों के साथ रहना भी सीखा जाता है । घर सजाना, घर स्वच्छ रखना, खरीदी करना आदी असंख्य काम होते हैं । इनमें रस निर्माण करना ही सही शिक्षा है । घर के इन सारे कामों के लिये माता का शिष्यत्व स्वीकार करना चाहिए और घर के सभी सदस्यों ने माता से अनुकूलता बनानी चाहिए । माता को भी अपनी भूमिका का स्वीकार करना चाहिए ।

अर्थार्जन की योग्यता विकसित करना

घर चलाने के लिये अर्थ चाहिए। घर चलाने में जिस प्रकार सबको माता के अनुकूल बनना चाहिए उस प्रकार अर्थ के मामले में सबको पिता के अनुकूल होना चाहिए । आजकल इस विषय में बहुत कोलाहल हो रहा है। घर चलाने को तो दायित्व माना जाता है और सब उससे दूर रहने का प्रयास करते हैं । परन्तु अर्थार्जन को अधिकार माना जाता है और सब वह करना चाहते हैं। इस कारण से लड़कियों को भी कमाना चाहिए ऐसा कहा जाता है । कमाने को ही करियर कहा जाता है । कमाएंगे सब और घर कोई नहीं देखेगा, ऐसा होने लगा है। परन्तु अर्थार्जन के सम्बन्ध में अलग पद्धति से विचार करना चाहिए । जिस प्रकार घर सब मिलकर चलाते हैं उस प्रकार अर्थार्जन भी सब मिलकर कर सकते हैं। परन्तु इस अर्थार्जन की ही समस्या हो गई है । सबको अर्थार्जन अपने अपने अधिकार की बात लगती है । अपनी स्वतंत्र आय होनी चाहिए ऐसा लगता है। इसलिए सब अर्थार्जन करना चाहते हैं । घर के कामों से किसीको आय नहीं होती है इसलिए वह कोई करना नहीं चाहता है । वास्तव में होना यह चाहिए कि घर के सभी सदस्यों की आय घर की ही होनी चाहिए । जिस प्रकार खाना सबका साथ में बनता है, वाहन और घर सबका होता है, भले ही वह किसी एक के नाम पर हो, सबका अर्थार्जन सबका होना चाहिए । दो पीढ़ियों पूर्व ऐसी ही पद्धति थी ।

अब आज सबको मिलकर इस बात का विचार करना पड़ेगा । यदि हो सकता है तो पूरे घर का मिलकर एक ही व्यवसाय होना चाहिए । आज के सन्दर्भ में यह अटपटा तो लगता है परन्तु यह घर को एक रखने के लिये सबसे बड़ा व्यावहारिक उपाय है। घर अलग-अलग स्वतंत्र व्यक्तियों का नहीं बनता है, सब एक होते हैं तभी बनता है और उसे एक रखने के लिये एक व्यवसाय होना आवश्यक है। व्यवसाय के पूर्व में बताए हैं वे नियम तो हैं ही परन्तु सबका मिलकर एक व्यवसाय होना बहुत लाभकारी होता है। इस आयु में संतानों को अपने पिता से व्यवसाय सीखना है ताकि जब वे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें तब घर के अर्थार्जन का दायित्व अपने ऊपर ले सकें और मातापिता को वानप्रस्थ का अवसर मिल सके । इस प्रकार घर में पीढ़ीगत परंपरा निभाई जा सकेगी । यदि अधथर्जिन घर का मामला बनेगा तो केवल उसी उद्देश्य से बहुत बड़ा शुल्क देकर पढ़ाई करने के लिये नहीं जाना पड़ेगा। जो मातापिता नौकरी करते हैं उनके बच्चोंं के लिये कुछ मात्रा में कठिनाई हो सकती है परन्तु आज से यदि यह विचार मन में रखा तो दो पीढ़ियों में इसकी व्यवस्था हो सकेगी ।

समाजधर्म

घर का मिलकर सामाजिक दायित्व होता है। सार्वजनिक कामों में सहभागी होना भी सीखना होता है । दान करना, समाजसेवा करना, बड़े-बड़े सामाजिक उत्सवों के आयोजनों में सहभागी बनना, विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक संगठन चलते हैं उनमें सहभागी होना भी घर में मिलने वाली शिक्षा है । घर में देशभक्ति कृतिशील रूप में हो यह इस आयु का चिंतनात्मक पाठ्यक्रम हो सकता है । देशदुनिया में घटने वाली घटनाओं की चर्चा भोजन के समय या बाद में होने वाले अनौपचारिक वार्तालाप में होनी चाहिए ।

संक्षेप में घर एक इकाई है इसकी भावनात्मक और व्यावहारिक शिक्षा घर में मिलती है । एक से अधिक स्वतंत्र व्यक्ति एक साथ घर में रहते हैं ऐसा स्वरूप न होकर सब मिलकर एक इकाई के रूप में रहते हैं इसकी अनुभूति करवाना इस आयु के बच्चोंं के मातापिता को करना है । क्षमताओं के विषय में नई पीढ़ी हमसे सवाई हो ऐसी कामना कर शिक्षा की उचित व्यवस्था करना मातापिता का कर्तव्य है । इतना करने से माता और पिता अपनी संतानों के गुरु का पद पा सकते हैं ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे