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# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
 
# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
 
# कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
 
# कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
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==== ४. स्वायत समाज की रचना ====
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स्वायत्त समाज भारत की विशिष्ट पहचान है। इसका मूल है स्वतन्त्रता की चाह । स्वतन्त्रता के साथ स्वावलम्बन और जिम्मेदारी के तत्त्व भी जुड़े हुए हैं । जो जिम्मेदार और स्वावलम्बी नहीं वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता।
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स्वतन्त्रता की मूल परिभाषा परमात्मा के साथ जुडी है। परमात्मा के विषय में कहा गया है कि वह कर्तुमक अन्यथा कर्तुं समर्थ है अर्थात् करने नहीं करने या अलग पद्धति से करने में समर्थ है अर्थात् उसे रोकने टोकनेवाला कोई नहीं है। स्वतन्त्र का अर्थ है अपना तन्त्र अर्थात् अपनी व्यवस्था । अपनी व्यवस्था से रहना भारतीय व्यक्ति का और भारतीय समाज का लक्षण है।
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स्वायत्त का अर्थ है स्वाधीन । स्वाधीन होने का अर्थ है अपने स्वयं के ही अनुसार जीना, अपनी इच्छा सर्वोपरि होना । समर्थ समाज ही स्वायत्त और स्वतन्त्र होता है।
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स्वावलम्बी समाजरचना का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वावलम्बी होने के साथ होता है । व्यक्ति के स्वावलम्बी होने का सीधा सादा सूत्र है अपना काम खुद करों' । अतः व्यक्ति को स्वयं के लिये आवश्यक सारे काम छोटी आयु से ही सिखाये जाते है। व्यक्ति खानापीना, चलनादौडना, नहानाधोना तो स्वयं करता ही है परन्तु कपडे धोना, बर्तन साफ करना, अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अपना वाहन तथा अन्य सामान व्यवस्थित रखना आदि भी स्वयं करता है। अपना जीवननिर्वाह भी स्वयं कर सके इतना कुशल बनना भी सिखाया जाता है। अपने सुखदुःख, आनन्दप्रमोद, चित्तवृत्तियाँ भी स्वंय के अधीन हो यह सिखाया जाता है।
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परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता,
    
==References==
 
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