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==== ३. कुटुंब व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण ====
 
==== ३. कुटुंब व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण ====
१. भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
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# भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
 
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# पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
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# परन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारत में विवाह को करार के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई है। अब कानून में, सरकारी व्यवस्था में, सार्वजनिक व्यवस्थाओं में विवाह को करार ही माना जाता है। समाजव्यवस्था में अब परिवार को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई माना जाता है। अतः पति और पत्नी की भी स्वतन्त्र व्यक्ति के नाते ही पहचान बनती है। भारत में पति की पत्नी से और पत्नी की पति से स्वतन्त्र पहचान नहीं होती वे एक ही माने जाते हैं, परन्तु अब वे स्वतन्त्र हो गये हैं।  
 
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# कुटुम्ब व्यवस्था की इस केन्द्रवर्ती रचना को पुनः प्रस्थापित करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सांस्कृतिक संकेत महत्त्वपूर्ण है। भारत के एकात्म दर्शन की व्यावहारिक व्यवस्था स्त्री और पुरुष के पतिपत्नी के रूप में एकात्म सम्बन्ध में हुई है। इस पर आघात हुआ है। केन्द्र से ही च्युत हो जाने पर सारी व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ठीक करने हेतु विवाह व्यवस्था ठीक करने की आवश्यकता है।  
परन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारत में विवाह को करार के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई है। अब कानून में, सरकारी व्यवस्था में, सार्वजनिक व्यवस्थाओं में विवाह को करार ही माना जाता है। समाजव्यवस्था में अब परिवार को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई माना जाता है। अतः पति और पत्नी की भी स्वतन्त्र व्यक्ति के नाते ही पहचान बनती है। भारत में पति की पत्नी से और पत्नी की पति से स्वतन्त्र पहचान नहीं होती वे एक ही माने जाते हैं, परन्तु अब वे स्वतन्त्र हो गये हैं।  
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# विवाह के सम्बन्ध में भारत में अनेक शास्त्रों का विकास हआ है। यह विवाहसंस्था का महत्त्व दर्शाता है । इन शाखों ने दी हुई व्यवस्था के अनुसार आज पुनर्विचार किया जा सकता है।  
 
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# विवाहसंस्था को ठीक करने हेतु बालक और बालिका को विवाह के योग्य बनाने की शिक्षा दी जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से पतिपत्नी का सम्बन्ध, गृहस्थाश्रम, सामाजिक दायित्व आदि की शिक्षा भी दी जाने की आवश्यकता है।  
कुटुम्ब व्यवस्था की इस केन्द्रवर्ती रचना को पुनः प्रस्थापित करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सांस्कृतिक संकेत महत्त्वपूर्ण है। भारत के एकात्म दर्शन की व्यावहारिक व्यवस्था स्त्री और पुरुष के पतिपत्नी के रूप में एकात्म सम्बन्ध में हुई है। इस पर आघात हुआ है। केन्द्र से ही च्युत हो जाने पर सारी व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ठीक करने हेतु विवाह व्यवस्था ठीक करने की आवश्यकता है।  
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# कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।  
 
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# कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।  
५. विवाह के सम्बन्ध में भारत में अनेक शास्त्रों का विकास हआ है। यह विवाहसंस्था का महत्त्व दर्शाता है । इन शाखों ने दी हुई व्यवस्था के अनुसार आज पुनर्विचार किया जा सकता है।  
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# कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चों के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।  
 
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# कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।  
विवाहसंस्था को ठीक करने हेतु बालक और बालिका को विवाह के योग्य बनाने की शिक्षा दी जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से पतिपत्नी का सम्बन्ध, गृहस्थाश्रम, सामाजिक दायित्व आदि की शिक्षा भी दी जाने की आवश्यकता है।  
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# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
 
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# अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।  
कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।  
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# कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही शुरू होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
 
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# घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
८. कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।  
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# पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।  
 
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# भारत आज अनेक बातों में पश्चिम से आक्रान्त हुआ है। आक्रमण का उसे विस्मरण सा भी हुआ है इसलिये जो आक्रमण के रूप में आया है उसे वह स्वाभाविक मानता है, भले ही वह परेशान करता हो । कुटुम्ब संस्था भी आक्रमण का शिकार बनी हुई है। उसे पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है।  
कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चों के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।  
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# कुटुम्ब के सम्बन्धों में एकदूसरे की सापेक्षता ही होती है। कुटुम्ब में व्यक्ति का व्यक्ति के नाते परिचय नहीं होता, सम्बन्ध के नाते होता है, जैसे कि एक ही व्यक्ति अलग अलग व्यक्तियों के सम्बन्ध में पुत्र, पिता, पौत्र, दादा, नाना, दौहित्र, भाई, देवर, बहनोई, साला, चाचा, मामा, फूफा, भतीजा, भानजा आदि होता है। इन सभी सम्बन्धों के कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य होते है। इन अधिकारों का स्वीकार और कर्तव्यों के पालन से सामाजिकता विकसित होती है।  
 
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# कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।  
१०. कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।  
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# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
 
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# कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
११. प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
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अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।  
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१३. कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही शुरू होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
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१४. घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
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१५. पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।  
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१६. भारत आज अनेक बातों में पश्चिम से आक्रान्त हुआ है। आक्रमण का उसे विस्मरण सा भी हुआ है इसलिये जो आक्रमण के रूप में आया है उसे वह स्वाभाविक मानता है, भले ही वह परेशान करता हो । कुटुम्ब संस्था भी आक्रमण का शिकार बनी हुई है। उसे पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है।  
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१७. कुटुम्ब के सम्बन्धों में एकदूसरे की सापेक्षता ही होती है। कुटुम्ब में व्यक्ति का व्यक्ति के नाते परिचय नहीं होता, सम्बन्ध के नाते होता है, जैसे कि एक ही व्यक्ति अलग अलग व्यक्तियों के सम्बन्ध में पुत्र, पिता, पौत्र, दादा, नाना, दौहित्र, भाई, देवर, बहनोई, साला, चाचा, मामा, फूफा, भतीजा, भानजा आदि होता है। इन सभी सम्बन्धों के कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य होते है। इन अधिकारों का स्वीकार और कर्तव्यों के पालन से सामाजिकता विकसित होती है।  
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१८. कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।  
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१९. कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।  
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२०. कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
      
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