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हमारे प्रमाणग्रन्थ श्रीमद‌ भगवद गीता में भगवान कहते हैं,<blockquote>यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।</blockquote><blockquote>न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।</blockquote>अर्थात्‌
 
हमारे प्रमाणग्रन्थ श्रीमद‌ भगवद गीता में भगवान कहते हैं,<blockquote>यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।</blockquote><blockquote>न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।</blockquote>अर्थात्‌
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जो शास्त्रों में बताये हुए व्यवहार को छोड़कर मनमाना व्यवहार करता है उसे न सिद्धि प्राप्त होती है,  
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जो शास्त्रों में बताये हुए व्यवहार को छोड़कर मनमाना व्यवहार करता है उसे न सिद्धि प्राप्त होती है, न सुख प्राप्त होता है, न ही मोक्ष प्राप्त होता है।
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और
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तस्माच्छार्त्र प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितो ।
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ज्ञात्वा शास्रविधानोक्त कर्म कर्तुमिहाहसि ।।
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क्या करना और क्‍या नहीं करना इसका निश्चय करने
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में शाखत्र ही तेरे लिये प्रमाण हैं ।
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तात्पर्य यह है कि हमें हर विषय के निरूपण में शास्त्र
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को ही प्रमाण मानना होगा ।
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प्रमाण के लिये हमारे शाखत्र कौन से हैं ? वेद और
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उपनिषद, दर्शन का निरूपण करने वाले सूत्र ग्रन्थ, वेदांग,
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उपवेद, इतिहास के लिये पुराण आदि हमारे लिये
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प्रमाणग्रन्थ हैं। याज्ञवल्क्य, कौटिल्य,
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वेदव्यास, विश्वामित्र, वसिष्ठ आदि ऋषि हमारे लिये प्रमाण
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हैं। आर्षद्रश ऋषि हमारे लिये स्वतःप्रमाण हैं। विभिन्न
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विषयों के लिये मूल ग्रन्थों की ऐसी एक सूची ही हम बना
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सकते हैं | इस मूल प्रमाण के बाद व्यावहारिक सन्दर्भ का
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विचार तो हमें ही करना होगा । इस दृष्टि से हमारा विवेक
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हमेशा जागृत रहना चाहिये ।
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कहीं-कहीं हम पाश्चात्य शास्त्रों का सन्दर्भ भी ले
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सकते हैं परन्तु वे भारतीय शास्त्रों के अविरेधी हों तभी
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उपयोगी होंगे अन्यथा त्याज्य होंगे ।
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यह सब होते हुए भी अधिकांश हमें युगानुकूल
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प्रस्तुति की ही चिन्ता करनी होगी, यह तो स्पष्ट है |
    
''न... प्रमाणग्रन्थ हैं । याज्ञवल्क्य, कौटिल्य,''
 
''न... प्रमाणग्रन्थ हैं । याज्ञवल्क्य, कौटिल्य,''

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