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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है, जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।</blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे ।
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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।</blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे ।
    
इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये ।
 
इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये ।
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प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
 
प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।
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अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-<blockquote>अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥</blockquote>'''अनु-''' जो व्यक्ति सुशील और विनम्र  होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
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अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-<blockquote>अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥</blockquote>'''अनु-''' जो व्यक्ति सुशील और विनम्र  होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
    
==== प्रातःस्मरण ====
 
==== प्रातःस्मरण ====
प्रातः जागरण के अनन्तर किये जाने वाले भगवत् स्मरण के साथ साथ प्रात:स्मरण का भी विधान हमारे सनातन धर्म में है।भगवद् स्मरण से तात्पर्य है त्रिदेव आदि का स्मरण तथा प्रातः स्मरण अर्थात् महापुरुष,सप्तचिरञ्जीव,सप्त पर्वत,प्रकृति आदि का स्मरण।भगवत् स्मरण के साथ साथ महापुरुष आदि का स्मरण करने से उनके गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है, हमारी भावना ऐसी बनती है कि हम भी ऐसे ही गुणवान, चरित्रवान तथा आदर्श वनें । उनके मंगलमय स्मरण से हमारे जीवन में भी मंगल तथा कल्याण की भावना जागृत होती है और हमें प्रेरणा मिलती है।प्रातः काल में किया हुआ भगवद् स्मरण आदि धार्मिक कार्य भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप होता है। हम भगवत् स्तुति करके देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। भगवत् स्तुति हेतु  शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हमें अपने देश तथा अपने धर्म के प्रति अपना उत्तरदयित्व स्मरण रहता है।अपने प्रभुको  उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्य में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता।अतः प्रातः जागरण के पश्चात पुण्यश्लोकों का स्मरण करना चाहिये।  
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प्रातः जागरण के अनन्तर किये जाने वाले भगवत् स्मरण के साथ साथ प्रात:स्मरण का भी विधान हमारे सनातन धर्म में है।भगवद् स्मरण से तात्पर्य है त्रिदेव आदि का स्मरण तथा प्रातः स्मरण अर्थात् महापुरुष,सप्तचिरञ्जीव,सप्त पर्वत,प्रकृति आदि का स्मरण।भगवत् स्मरण के साथ साथ महापुरुष आदि का स्मरण करने से उनके गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है, हमारी भावना ऐसी बनती है कि हम भी ऐसे ही गुणवान, चरित्रवान तथा आदर्शवान बनें । उनके मंगलमय स्मरण से हमारे जीवन में भी मंगल तथा कल्याण की भावना जागृत होती है और हमें प्रेरणा मिलती है।प्रातः काल में किया हुआ भगवद् स्मरण आदि धार्मिक कार्य भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप होता है। हम भगवत् स्तुति करके देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। भगवत् स्तुति हेतु  शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हमें अपने देश तथा अपने धर्म के प्रति अपना उत्तरदयित्व स्मरण रहता है।अपने प्रभुको  उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्य में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता।अतः प्रातः जागरण के पश्चात पुण्यश्लोकों का स्मरण करना चाहिये।  
 
* स्तुति वा भजन के द्वारा ईश्वर से तन्मयीभाव
 
* स्तुति वा भजन के द्वारा ईश्वर से तन्मयीभाव
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* महापुरुषों के स्मरण से  गुणवान चरित्रवान तथा आदर्शवान बनने की प्रेरणा का प्राप्त होना
 
* धार्मिक चिन्तन से सन्मार्ग की प्रेरणा
 
* धार्मिक चिन्तन से सन्मार्ग की प्रेरणा
 
* नित्य प्रातः मातृभूमि स्मरण से देश भक्ति में वृद्धि
 
* नित्य प्रातः मातृभूमि स्मरण से देश भक्ति में वृद्धि
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=== शौचाचार ===
 
=== शौचाचार ===
 
<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।
 
<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।
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अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याभंतर: शुचि:।।
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'''अनु-'''कोई भी मनुष्य जो पवित्र हो, अपवित्र हो या किसी भी स्थिति को प्राप्त क्यों न हो, जो भगवान पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर से पवित्र हो जाता है।
      
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
 
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
 
* बाह्य शौच
 
* बाह्य शौच
 
* आभ्यन्तर शौच
 
* आभ्यन्तर शौच
मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है।
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<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ.१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है।
 
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श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे, किंतु उसके पास 'आन्तरिक शौच' न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता। अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करे सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए, सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए, सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
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याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>अर्थात् जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।
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मूत्रोच्चारसमुत्सर्ग दिवा कुर्यादुदंमुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सन्ध्ययोश्च तथा दिवा॥( मनु० ४।५० तथा वशिष्ठ०६।१० )
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अर्थात दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर और दोनों सन्ध्यात्रों में दिन के समान अर्थात् उत्तर की ओर मुंह करके मल मूत्र त्याग करना चाहिए ।
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प्रत्यग्नि प्रतिसूर्य' च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)
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अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
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ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। कारण यह है कि पूर्व की ओर से आती हुई विद्युत्शक्ति वायु के साथ सामने से मल मूत्र के ऊपर से होकर इन्द्रियों में सूक्ष्म कीटाणुओं के द्वारा प्रवेश कर जाती है । मल-मूत्र के दोष से दूषित वह वायु प्रवेश तथा स्पर्श करके रोग उत्पन्न कर देती है ।
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अग्नि की विद्युत्शक्ति द्वारा भी यही बात होती है वायु से तो यह बात प्रत्यक्षसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त अति उज्ज्वल, सतेज, तथा सबल वस्तु के स्पर्श, दर्शन आदि से स्नायुजाल उत्तेजित और चंचल हो उठता है। इससे कोष्ठशुद्धि में बाधा होने के कारण रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए अग्नि, जल, ब्राह्मण, सूर्य आदि की ओर मुंह करके शौच जाना निषिद्ध है। तथा ये सब पूज्य भी हैं अत: इनके सम्मुख ऐसी क्रिया करने से बुद्धि अवश्य ही भ्रष्ट हो जायगी।
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कहा गया है
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वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवजितः।
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अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।
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पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)
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अर्थात् मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।
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अन्तर्धाय तृणैर्भूमि शिरः प्रावृत्य वाससा ( वशिष्ठ० १२।१)(अंगिरास्मृति)।
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तथा शिर पर वस्त्र लपेट कर शौच जाना चाहिये।
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वहां अधिक ठहरना भी नहीं चाहिये। इन सब क्रियाओं में महत्त्व पूर्ण विज्ञान भरा है। शरीर के ऊपरी भाग में जो स्नायुजाल है, उसमें क्रिया उत्पन्न होने पर नीचे का शारीरिक यन्त्र पूर्णरूपेण यथारीति कार्य नहीं कर सकेगा, अत: यदि उस समय थूकना, बातचीत करना, हांफना इत्यादि कोई क्रिया की जायगी, तो नीचे का स्नायुजाल शिथिल हो जाने के कारण शौच क्रिया ठीक से नहीं होगी, इससे अनेक रोग हो जाने की सम्भावना है। शौच क्रिया रोकने से प्रातः शौच न करके अन्य कर्म में लग जाने से शारीरिक यन्त्र काम करने लगेगा, जिससे कि हलचल पैदा हो जाने के कारण शरीर के मल का दूषित रस रक्त में मिलकर अनेकों रोग उत्पन्न करेगा, जिससे रक्तविकार आदि अवश्य हो जायगा। पहले ही कहा जा चुका है कि शिर द्वारा शक्ति का आकर्षण एवं प्रवेश होता है, अत: मलत्याग के समय दूषित वायु, विकार तथा मल के कीटाणुओं का प्रभाव न पड़े, इस लिए शिर वेष्ठित करके शौच जाने का विधान किया गया है। दूसरी बात यह है कि शिर के पास की नाड़ी वस्त्र-वेष्ठित होने से दबाव पड़ने के कारण शौचक्रिया स्वच्छ और ठीक हो जाती है। शौच के बाद मल के ऊपर मिट्टी डाल देना इसलिए कहा है, जिससे उसके कीटाणु तथा दूषित वायु बाहर न जा सके और उसका प्रभाव दूसरे के ऊपर न पड़ सके।
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इसी प्रकार और भी लिखा है कि-
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दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )  
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श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः । आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्टुमें व्याघ्रपाद, यही भाव दक्षस्मृति ५।२।१० का है।)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
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अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय तथा मंदिर, विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा, दुर्गन्ध भी नहीं फैलेगी।
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अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
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प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दाष्ट से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त मल मूत्र का अंश तथा दूषित प्रभाव भी जलाशय पर नहीं पड़ सकेगा। जल से सभी लोग स्नान करते, तथा उसे पान करते हैं अत: दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है। इससे हमारा ही कल्याण है
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याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>'''अनु-''' जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।<blockquote>पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)</blockquote>'''अनु-''' मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये
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यह ब्राह्म मुहूर्त में जागरण एवं सूर्योदय के पूर्व स्नान करने विलक्षण चमत्कार है।
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==== शौचाचार विधान में वैज्ञानिक अंश ====
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<blockquote>दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )</blockquote>अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय  मंदिर तथा विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा स्वच्छता का वातावरण बना रहेगा।प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दृष्टि से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे अत: वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है इससे हम सभी का ही कल्याण है ।<blockquote>वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः।</blockquote>अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।<blockquote>प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यश्च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)</blockquote>अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
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'''शौच विधान में विज्ञान'''
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मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्डे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और वस्त्र आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।एक स्थान पर कई लोगों को मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिए इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार होते हैं। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इस रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे को संक्रमित कर देते हैं।
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शौच के पश्चात् निर्मल जल तथा मिट्टी से हाथ धोना कहा है, कारण यह है कि मल भी विकृत पृथ्वीतत्व है, और मिट्टी भी पृथ्वीतत्व है, अत: हाथों की दुर्गन्ध पृथ्वी की मिट्टी से जिस प्रकार दूर हो सकती है, उस प्रकार सावुन आदि किसी अन्य वस्तु से नहीं। तथा सावुन आदि में दूषित हाथ लगाने से सावुन स्वयं दूषित हो जाता है। एक बात और भी है-पित्त के संयोग से मल में तेल की तरह एक प्रकार का लस दार पदार्थ रहता है जो केवल मिट्टी से ही छूटता है, अत: मिट्टी से ही हाथ धोना चाहिए और बाद में पैरों को भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिए क्योंकि शौच जाने के बाद तत्काल थोड़ी सी उष्णता उत्पन्न हो जाती है, वह तलवे को धोने से जाती रहती है और उदर ठीक रीति से रहता है। मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्ढे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और धोती आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये, तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ठण्डे जल से धो देने से उत्तेजना भी दूर हो जाती है तथा कीटार हो जाते हैं। एक स्थान पर कई लोगों को मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिए, इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार होते हैं। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इसके रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे संक्रमित हो जाते हैं। यदि जल लेने का अभ्यास होगा, तो इस दोष का भी निवारण हो जायगा। इत्यादि आचार के विषय में अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं। हमें अब उनकी वैज्ञानिक चर्चा करनी है।
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ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है ।
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'''प्रातःस्नान'''
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== '''प्रातःस्नान''' ==
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ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग  आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये।
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ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।
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=== प्रातःकाल का नित्य स्नान ===
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<blockquote>गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)</blockquote>
    
== वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। ==
 
== वस्त्रधारण एवं भस्मादि तिलक धारण विधि। ==
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