Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 6: Line 6:     
==== १. प्लास्टिक और प्लास्टिकवाद को नकारना ====
 
==== १. प्लास्टिक और प्लास्टिकवाद को नकारना ====
पश्चिम प्लास्टिक का जन्मदाता है। प्लास्टिक का अर्थ है अप्राकृतिक । उसका व्यावहारिक अर्थ है नकली। दोनों शब्दों का अर्थसाम्य भी है और अर्थ का भेद भी है। इसे समझने से पश्चिम का मानस कैसे काम करता है यह समझ में आयेगा। सामान्य रूप से आभूषण सोने, चाँदी, हीरे, मोती, रत्नों आदि के पहने जाते हैं। इनके पीछे स्वास्थ्य और सौन्दर्य के प्रेरक तत्त्व होते हैं। दो में भी स्वास्थ्य प्रथम कारण है जिसे मनुष्य की रसिकता ने सौन्दर्यदृष्टि प्रदान की है। जब मूल स्वास्थ्य दृष्टि का विस्मरण होता है और केवल सौन्दर्यदृष्टि रहती है तब मनुष्य सोने के स्थान पर पीतल के, चाँदी के स्थान पर एल्यूमिनियम के, हीरे के स्थान पर काँच के आभूषण पहनता है। स्वास्थ्यदृष्टि का शास्त्र उसे ज्ञात नहीं है फिर भी ये आभूषण नकली हैं इतना तो बोध उसे रहता ही है। प्लास्टिक इस अर्थ में नकली है।
+
पश्चिम प्लास्टिक का जन्मदाता है। प्लास्टिक का अर्थ है अप्राकृतिक । उसका व्यावहारिक अर्थ है नकली। दोनों शब्दों का अर्थसाम्य भी है और अर्थ का भेद भी है। इसे समझने से पश्चिम का मानस कैसे काम करता है यह समझ में आयेगा। सामान्य रूप से आभूषण सोने, चाँदी, हीरे, मोती, रत्नों आदि के पहने जाते हैं। इनके पीछे स्वास्थ्य और सौन्दर्य के प्रेरक तत्त्व होते हैं। दो में भी स्वास्थ्य प्रथम कारण है जिसे मनुष्य की रसिकता ने सौन्दर्यदृष्टि प्रदान की है। जब मूल स्वास्थ्य दृष्टि का विस्मरण होता है और केवल सौन्दर्यदृष्टि रहती है तब मनुष्य सोने के स्थान पर पीतल के, चाँदी के स्थान पर एल्यूमिनियम के, हीरे के स्थान पर काँच के आभूषण पहनता है। स्वास्थ्यदृष्टि का शास्त्र उसे ज्ञात नहीं है तथापि ये आभूषण नकली हैं इतना तो बोध उसे रहता ही है। प्लास्टिक इस अर्थ में नकली है।
    
प्रकृति का स्वभाव है नित्य रूपान्तरणशीलता का । भौतिक विज्ञान का नियम है कि पदार्थ का रूपान्तरण होता ही है। रूपान्तरण की एक प्रक्रिया विघटन की भी है। इसका उत्तम उदाहरण मृतदेह है । जब शरीर मृत हो जाता है तो वह सडता है, गलता है, सूखता है, बिखरता है और उसके सारे संघात का विघटन होकर पृथक्करण होकर सृष्टि में स्थित उनके मूल पदार्थों के साथ मिल जाता है । मृतदेह के किसी भी पद्धति से किये जाने वाले अन्तिम संस्कार विघटन की प्रक्रिया को गति देने के लिये होते हैं । ये न भी किये जायें तो भी विघटन तो होता ही है । इस विघटन से प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। परन्तु प्लास्टिक ऐसा अद्भुत पदार्थ है कि उसका विघटन नहीं होता । प्लास्टिक बनने की प्रक्रिया में एक ऐसा क्षण आता है जब उसके घटक द्रव्यों का अपने मूल द्रव्यों के साथ समरस होने का गुण समाप्त हो जाता है। प्रकृति के तीन महान गुण विघटन, स्वजाति के साथ समरसता और समायोजन प्लास्टिक में नहीं हैं । इस रूपमें प्लास्टिक अप्राकृतिक है।
 
प्रकृति का स्वभाव है नित्य रूपान्तरणशीलता का । भौतिक विज्ञान का नियम है कि पदार्थ का रूपान्तरण होता ही है। रूपान्तरण की एक प्रक्रिया विघटन की भी है। इसका उत्तम उदाहरण मृतदेह है । जब शरीर मृत हो जाता है तो वह सडता है, गलता है, सूखता है, बिखरता है और उसके सारे संघात का विघटन होकर पृथक्करण होकर सृष्टि में स्थित उनके मूल पदार्थों के साथ मिल जाता है । मृतदेह के किसी भी पद्धति से किये जाने वाले अन्तिम संस्कार विघटन की प्रक्रिया को गति देने के लिये होते हैं । ये न भी किये जायें तो भी विघटन तो होता ही है । इस विघटन से प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। परन्तु प्लास्टिक ऐसा अद्भुत पदार्थ है कि उसका विघटन नहीं होता । प्लास्टिक बनने की प्रक्रिया में एक ऐसा क्षण आता है जब उसके घटक द्रव्यों का अपने मूल द्रव्यों के साथ समरस होने का गुण समाप्त हो जाता है। प्रकृति के तीन महान गुण विघटन, स्वजाति के साथ समरसता और समायोजन प्लास्टिक में नहीं हैं । इस रूपमें प्लास्टिक अप्राकृतिक है।
Line 22: Line 22:  
किसी भी पदार्थ या प्रक्रिया का केन्द्रवर्ती तत्त्व नष्ट कर देना प्लास्टिकवाद है।
 
किसी भी पदार्थ या प्रक्रिया का केन्द्रवर्ती तत्त्व नष्ट कर देना प्लास्टिकवाद है।
   −
उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण शुरू तो हो ही गये हैं।
+
उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण आरम्भ तो हो ही गये हैं।
    
भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की  आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर धार्मिक दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।
 
भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की  आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर धार्मिक दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।
Line 32: Line 32:  
प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।
 
प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।
   −
अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण सुविधाओं के इतने आदी हो गये हैं कि उनके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है ऐसा हमें लगता है। सुविधाओं के अभाव में हमें पिछडापन लगता है। इसका कारण यह है कि हमने सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लिया है । सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मानना भी खास पश्चिमी विचार है। भारत इसे संस्कृति नहीं मानता । जिस विचार और व्यवहार में सबका भला और सबका सुख नहीं वह सुसंस्कृत विचार और व्यवहार नहीं है और जिस व्यवस्था का आधार संस्कृति नहीं वह सभ्यता नहीं होती। अतः विवेकपूर्ण विचार कर भारत को प्लास्टिकवाद को नकारना होगा । इसका प्रारम्भ दैनन्दिन जीवन से प्लास्टिक को बहिष्कृत करने से ही होगा । समझदार लोग कहते हैं कि किसी भी बडे अभियान का प्रारम्भ छोटी और सरल बातों से होता है। प्लास्टिक निषेध का काम बड़ा है, इसका प्रारम्भ भी छोटी छोटी प्लास्टिक की वस्तुओं का त्याग करने से होगा। धीरे धीरे सामर्थ्य जुटाते हुए बडी वस्तुओं को भी छोड़ सकते हैं । हो सकता है इससे अनेक लोगों के व्यवसाय बन्द हो जाय, अनेक लोगों के रोजगार छिन जाय, अनेक लोग इसे अमानवीय बतायें, तो भी इसका निषेध तो करना ही होगा। प्लास्टिक का पर्याय ढूँढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो पहले से है ही। पाल्सिटक ने उनका स्थान ले कर उन्हें विस्थापित कर दिया है। उन्हें पुनः स्थापित करना ही हमारा काम है।
+
अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण सुविधाओं के इतने आदी हो गये हैं कि उनके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है ऐसा हमें लगता है। सुविधाओं के अभाव में हमें पिछडापन लगता है। इसका कारण यह है कि हमने सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लिया है । सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मानना भी खास पश्चिमी विचार है। भारत इसे संस्कृति नहीं मानता । जिस विचार और व्यवहार में सबका भला और सबका सुख नहीं वह सुसंस्कृत विचार और व्यवहार नहीं है और जिस व्यवस्था का आधार संस्कृति नहीं वह सभ्यता नहीं होती। अतः विवेकपूर्ण विचार कर भारत को प्लास्टिकवाद को नकारना होगा । इसका प्रारम्भ दैनन्दिन जीवन से प्लास्टिक को बहिष्कृत करने से ही होगा । समझदार लोग कहते हैं कि किसी भी बडे अभियान का प्रारम्भ छोटी और सरल बातों से होता है। प्लास्टिक निषेध का काम बड़ा है, इसका प्रारम्भ भी छोटी छोटी प्लास्टिक की वस्तुओं का त्याग करने से होगा। धीरे धीरे सामर्थ्य जुटाते हुए बडी वस्तुओं को भी छोड़ सकते हैं । हो सकता है इससे अनेक लोगोंं के व्यवसाय बन्द हो जाय, अनेक लोगोंं के रोजगार छिन जाय, अनेक लोग इसे अमानवीय बतायें, तो भी इसका निषेध तो करना ही होगा। प्लास्टिक का पर्याय ढूँढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो पहले से है ही। पाल्सिटक ने उनका स्थान ले कर उन्हें विस्थापित कर दिया है। उन्हें पुनः स्थापित करना ही हमारा काम है।
    
एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !
 
एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !
Line 43: Line 43:  
# बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है। प्रवाह के कारण, हवा और सूर्यप्रकाश के कारण अशुद्धियाँ अपने आप दूर होती रहती है। समय के साथ लवचिकता से बहती हुई गतिमान स्थिति भी परिष्कृत होती रहती है। वह स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते रहते भी अपरिवर्तित रहती है। खास बात यह है कि अवांछनीय तत्त्व ही दूर होते है, वांछनीय अपने शुद्ध रूप में अस्तित्व बनाये रखते हैं।  
 
# बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है। प्रवाह के कारण, हवा और सूर्यप्रकाश के कारण अशुद्धियाँ अपने आप दूर होती रहती है। समय के साथ लवचिकता से बहती हुई गतिमान स्थिति भी परिष्कृत होती रहती है। वह स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते रहते भी अपरिवर्तित रहती है। खास बात यह है कि अवांछनीय तत्त्व ही दूर होते है, वांछनीय अपने शुद्ध रूप में अस्तित्व बनाये रखते हैं।  
 
# भारत में दो प्रकार की परम्परायें हैं। एक है ज्ञान परम्परा और दूसरी है संस्कार या संस्कृति परम्परा । ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल है और वाहक गुरु शिष्य है। संस्कृति परम्परा का केन्द्र घर है और वाहक पितापुत्र है । गुरु से शिष्य को और पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते हुए ज्ञान और संस्कृति की परम्परा बनती है।  
 
# भारत में दो प्रकार की परम्परायें हैं। एक है ज्ञान परम्परा और दूसरी है संस्कार या संस्कृति परम्परा । ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल है और वाहक गुरु शिष्य है। संस्कृति परम्परा का केन्द्र घर है और वाहक पितापुत्र है । गुरु से शिष्य को और पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते हुए ज्ञान और संस्कृति की परम्परा बनती है।  
# वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।  
+
# वेदों का ज्ञान, [[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|ऋषियों का विज्ञान]], महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।  
 
# अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?  
 
# अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?  
 
# जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त धार्मिक वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।  
 
# जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त धार्मिक वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।  
Line 50: Line 50:  
# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
# हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें आश्रमचतुष्टय, पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।  
+
# हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमचतुष्टय]], पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।  
 
# आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।  
 
# आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।  
# १६. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।  
+
# हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।  
# १७. हमारे पूर्वजों ने अनेक व्यवहारशास्त्रों, विज्ञानशास्त्रों, तत्त्वज्ञानशास्त्रों की रचना की, अनुभूति को इनका आधार बनाया, साथ ही सर्वशास्रों का आन्तरिक और बाह्य संवादी सम्बन्ध भी बनाया । सभी विद्याशाखाओं को अंगांगी सम्बन्ध से जोडकर परस्पर अविरोधी और अध्यात्म के अधिष्ठान से युक्त बनाया । यह समग्रता का विचार भारत की विशेषता है। इसका गर्व होना स्वाभाविक है, न्याय्य है।  
+
# हमारे पूर्वजों ने अनेक व्यवहारशास्त्रों, विज्ञान शास्त्रों, तत्त्वज्ञानशास्त्रों की रचना की, अनुभूति को इनका आधार बनाया, साथ ही सर्वशास्त्रों का आन्तरिक और बाह्य संवादी सम्बन्ध भी बनाया । सभी विद्याशाखाओं को अंगांगी सम्बन्ध से जोडकर परस्पर अविरोधी और अध्यात्म के अधिष्ठान से युक्त बनाया । यह समग्रता का विचार भारत की विशेषता है। इसका गर्व होना स्वाभाविक है, न्याय्य है।  
 
# इसी प्रकार से राजाप्रजा के सम्बन्ध, यज्ञ, दान, तब की पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक आवश्यकता, व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व, त्योहार, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थयात्रा, तीर्थस्थान आदि का विधान बनाकर मनुष्य, पशुपक्षी प्राणी, पंचमहाभूत देवीदेवता, भावना, विचार, बुद्धि, मन, शरीर, आनन्द, उल्लास, रस, कारीगरी, शक्ति आदि पदार्थों, गुणों व्यक्तियों, स्वभावों को एक साथ जोडकर अनेकविध आयामों से युक्त, अनन्त लवचिकता से युक्त, ग्रहण करने की स्वतन्त्रता से युक्त, अनेकविध व्यवहारशैलियों का निरूपण किया। यह बुद्धि सामर्थ्य, कल्पनासामर्थ्य, रचनासामर्थ्य का निदर्शक है।  
 
# इसी प्रकार से राजाप्रजा के सम्बन्ध, यज्ञ, दान, तब की पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक आवश्यकता, व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व, त्योहार, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थयात्रा, तीर्थस्थान आदि का विधान बनाकर मनुष्य, पशुपक्षी प्राणी, पंचमहाभूत देवीदेवता, भावना, विचार, बुद्धि, मन, शरीर, आनन्द, उल्लास, रस, कारीगरी, शक्ति आदि पदार्थों, गुणों व्यक्तियों, स्वभावों को एक साथ जोडकर अनेकविध आयामों से युक्त, अनन्त लवचिकता से युक्त, ग्रहण करने की स्वतन्त्रता से युक्त, अनेकविध व्यवहारशैलियों का निरूपण किया। यह बुद्धि सामर्थ्य, कल्पनासामर्थ्य, रचनासामर्थ्य का निदर्शक है।  
 
# इसे ही नित्यनूतन, चिरपुरातन अर्थात् सनातन कहते हैं। भारत ऐसा सनातन राष्ट्र है । हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र की निहित सनातनता की अनुभूति कर रचना में सनातन बनाया है।  
 
# इसे ही नित्यनूतन, चिरपुरातन अर्थात् सनातन कहते हैं। भारत ऐसा सनातन राष्ट्र है । हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र की निहित सनातनता की अनुभूति कर रचना में सनातन बनाया है।  
Line 66: Line 66:  
# कानून बनाने की पद्धति यान्त्रिक होती है। उन्हें मानना अनिवार्य होता है। कानूनभंग के लिये दण्डविधान होता है । दण्ड के भय से ही कानून का पालन किया जाता है। कानून के पालन में स्वेच्छा नहीं होती है। कानून के उपरान्त होने वाला न्याय भी यान्त्रिक होता है। अतः कानून का पालन सख्ती से ही कराया जाता है।  
 
# कानून बनाने की पद्धति यान्त्रिक होती है। उन्हें मानना अनिवार्य होता है। कानूनभंग के लिये दण्डविधान होता है । दण्ड के भय से ही कानून का पालन किया जाता है। कानून के पालन में स्वेच्छा नहीं होती है। कानून के उपरान्त होने वाला न्याय भी यान्त्रिक होता है। अतः कानून का पालन सख्ती से ही कराया जाता है।  
 
# धर्म का ऐसा नहीं है । धर्म का आधार तात्त्विक दृष्टि से आत्मीयता है, व्यावहारिक दृष्टि से कर्तव्य है। सबको कर्तव्य का पालन करना सिखाया जाता है । तो भी स्खलन तो होता है इसलिये धर्म से विरुद्ध आचरण होता ही है। उसके लिये दण्ड का विधान भी होता है । न्याय और दण्ड में देशकालस्थिति के सन्दर्भ का विवेक किया जाता है।   
 
# धर्म का ऐसा नहीं है । धर्म का आधार तात्त्विक दृष्टि से आत्मीयता है, व्यावहारिक दृष्टि से कर्तव्य है। सबको कर्तव्य का पालन करना सिखाया जाता है । तो भी स्खलन तो होता है इसलिये धर्म से विरुद्ध आचरण होता ही है। उसके लिये दण्ड का विधान भी होता है । न्याय और दण्ड में देशकालस्थिति के सन्दर्भ का विवेक किया जाता है।   
# धर्मानुसारी दण्डविधान में न्याय के उपरान्त क्षमा और दण्ड के मध्य एक तीसरा प्रायश्चित का भी विधान होता है जो पश्चात्ताप के अनुसरण में और अनुपात में दिया जाता है ।  व्यक्ति को अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया जाता है।  
+
# धर्मानुसारी दण्डविधान में न्याय के उपरान्त क्षमा और दण्ड के मध्य एक तीसरा प्रायश्चित का भी विधान होता है जो पश्चात्ताप के अनुसरण में और अनुपात में दिया जाता है। व्यक्ति को अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया जाता है।  
 
# धर्म का पालन स्वेच्छापूर्वक करना होता है क्योंकि वह दूसरों का विचार करने के साथ और स्वयं के कर्तव्य के साथ जुड़ा होता है। धर्म घटना के मानवीय पक्ष को ध्यान में लेता है।  
 
# धर्म का पालन स्वेच्छापूर्वक करना होता है क्योंकि वह दूसरों का विचार करने के साथ और स्वयं के कर्तव्य के साथ जुड़ा होता है। धर्म घटना के मानवीय पक्ष को ध्यान में लेता है।  
 
# कानूनी न्याय वकीलों के तर्क, कानून की धाराओं और प्रमाणों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, धर्म आधारित न्यायव्यवस्था विवेक पर निर्भर करती है। कानून का अनुसरण करने वाली न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखती है जिससे वह पक्षपात न करे, धर्म का अनुसरण करने वाली न्यायदेवता विवेक रूपी चक्षु से युक्त है जिससे वह स्व-पर भेद न करे परन्तु सत्य-असत्य का भेद परख सके । कानून न्याय की देवता को भी अविश्वास से देखकर आँखे बन्द करने पर विवश करता है, धर्म न्याय देवता पर विश्वास करता है।  
 
# कानूनी न्याय वकीलों के तर्क, कानून की धाराओं और प्रमाणों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, धर्म आधारित न्यायव्यवस्था विवेक पर निर्भर करती है। कानून का अनुसरण करने वाली न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखती है जिससे वह पक्षपात न करे, धर्म का अनुसरण करने वाली न्यायदेवता विवेक रूपी चक्षु से युक्त है जिससे वह स्व-पर भेद न करे परन्तु सत्य-असत्य का भेद परख सके । कानून न्याय की देवता को भी अविश्वास से देखकर आँखे बन्द करने पर विवश करता है, धर्म न्याय देवता पर विश्वास करता है।  
 
# कानून बनते हैं तब अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हितसन्दर्भो को ध्यान में रखा जाता है। परिणामस्वरूप न्याय निष्पक्ष नहीं रह सकता । इसलिये कानून की ओर हेय दृष्टि से देखा जाता है और दण्ड के भय से ही उसका पालन किया जाता है। धर्म की व्यवस्था सत्य और विश्वनियम के आधार पर ही बनाई जाती है और न्याय करते समय सन्दर्भ देखे जाते हैं।  
 
# कानून बनते हैं तब अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हितसन्दर्भो को ध्यान में रखा जाता है। परिणामस्वरूप न्याय निष्पक्ष नहीं रह सकता । इसलिये कानून की ओर हेय दृष्टि से देखा जाता है और दण्ड के भय से ही उसका पालन किया जाता है। धर्म की व्यवस्था सत्य और विश्वनियम के आधार पर ही बनाई जाती है और न्याय करते समय सन्दर्भ देखे जाते हैं।  
# कानून संसद के द्वारा बहुमत या कभी कभी सर्वानुमत से भी बनाये जाते हैं। कानून को प्रस्तावित करने वाले और प्रस्ताव को पारित करनेवाले पक्षीय हितों से ऊपर नहीं उठ सकते । धर्म के नियम धर्माचार्यों के केन्द्रों में, पुरोहितो द्वारा अथवा गुरुकुलों में शिक्षकों द्वारा बनाये जाते हैं जिनका अपना कोई हितसन्दर्भ नहीं होता । इसलिये कानून का दर्जा धर्म से अत्यन्त निम्न कोटी का है।  
+
# कानून संसद के द्वारा बहुमत या कभी कभी सर्वानुमत से भी बनाये जाते हैं। कानून को प्रस्तावित करने वाले और प्रस्ताव को पारित करनेवाले पक्षीय हितों से ऊपर नहीं उठ सकते । धर्म के नियम धर्माचार्यों के केन्द्रों में, पुरोहितो द्वारा अथवा गुरुकुलों में शिक्षकों द्वारा बनाये जाते हैं जिनका अपना कोई हितसन्दर्भ नहीं होता। इसलिये कानून का दर्जा धर्म से अत्यन्त निम्न कोटी का है।  
# भारत की मनीषा को यह समझ में आया था कि मनुष्य की उदात्त या निकृष्ट मनोवृत्तियों के कारण उसका जो अच्छा बुरा व्यवहार होता है उसका न्याय करने की और उसे दण्ड देने की व्यवस्था सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता । जो रागद्वेष से ग्रस्त नहीं है, लोभलालच से लिप्त नहीं है, अपने पराये की भावना से ऊपर उठा है ऐसा धर्म जाननेवाला, मनुष्यों के मनोव्यापारों को जाननेवाला व्यक्ति ही कर सकता है। समाज को अपने में से ऐसे व्यक्ति पहचानकर उन्हें यह काम देना होता है । इसलिये भारत में धर्म जाननेवाले और उसका आचरण करनेवालों को ही न्यायव्यवस्था सुपुर्द की गई थी।  
+
# भारत की मनीषा को यह समझ में आया था कि मनुष्य की उदात्त या निकृष्ट मनोवृत्तियों के कारण उसका जो अच्छा बुरा व्यवहार होता है उसका न्याय करने की और उसे दण्ड देने की व्यवस्था सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता । जो रागद्वेष से ग्रस्त नहीं है, लोभलालच से लिप्त नहीं है, अपने पराये की भावना से ऊपर उठा है ऐसा धर्म जाननेवाला, मनुष्यों के मनोव्यापारों को जाननेवाला व्यक्ति ही कर सकता है। समाज को अपने में से ऐसे व्यक्ति पहचानकर उन्हें यह काम देना होता है। इसलिये भारत में धर्म जाननेवाले और उसका आचरण करनेवालों को ही न्यायव्यवस्था सुपुर्द की गई थी।  
# एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि भारत में कर विधान और दण्डविधान बनानेवाली और उसे लागू करने वाली सत्तायें भिन्न थीं। विधान बनाने वाली धर्मसत्ता थी और लागू करने वाली राज्यसत्ता थी। बनानेवाली सत्ता को लागू करने का और लागू करनेवाली सत्ता को बनाने का अधिकार नहीं था। इससे निष्पक्षता बढ़ने की तथा निहित स्वार्थ कम होने की सम्भावना अधिक रहती ती।
+
# एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि भारत में कर विधान और दण्डविधान बनानेवाली और उसे लागू करने वाली सत्तायें भिन्न थीं। विधान बनाने वाली धर्मसत्ता थी और लागू करने वाली राज्यसत्ता थी। बनानेवाली सत्ता को लागू करने का और लागू करनेवाली सत्ता को बनाने का अधिकार नहीं था। इससे निष्पक्षता बढ़ने की तथा निहित स्वार्थ कम होने की सम्भावना अधिक रहती थी।
 
# विधान बनाने वाली धर्मसत्ता उसे लागू करने वाली राज्यसत्ता के अधीन नहीं थी, स्वायत्त थी । शासक और समाज उस सत्ता का सम्मान करता था । पश्चिमी प्रभाव से आज भारत में तान्त्रिक परिभाषा से अनेक संस्थायें स्वायत्त हैं जिनमें एक न्यायव्यवस्था भी है परन्तु सही अर्थों में केवल शासन ही स्वायत्त है, सर्वोपरि है। आज न्यायव्यवस्था को स्वायत्त माना जाता है परन्तु वह जिसके भरोसे चलती है वे कानून संसद में बनाये जाते हैं, और वे बहमत के आधार पर बनते हैं। संसद बनाती है इसका अर्थ है सांसद जिनके प्रतिनिधि हैं ऐसे लोग कानून बनाते हैं।  
 
# विधान बनाने वाली धर्मसत्ता उसे लागू करने वाली राज्यसत्ता के अधीन नहीं थी, स्वायत्त थी । शासक और समाज उस सत्ता का सम्मान करता था । पश्चिमी प्रभाव से आज भारत में तान्त्रिक परिभाषा से अनेक संस्थायें स्वायत्त हैं जिनमें एक न्यायव्यवस्था भी है परन्तु सही अर्थों में केवल शासन ही स्वायत्त है, सर्वोपरि है। आज न्यायव्यवस्था को स्वायत्त माना जाता है परन्तु वह जिसके भरोसे चलती है वे कानून संसद में बनाये जाते हैं, और वे बहमत के आधार पर बनते हैं। संसद बनाती है इसका अर्थ है सांसद जिनके प्रतिनिधि हैं ऐसे लोग कानून बनाते हैं।  
 
# आज वास्तविक परिस्थिति ऐसी दिखती है कि धर्म की और लोग श्रद्धा से देखते हैं कानून की ओर नहीं। धर्म का पालन करना चाहिये ऐसा लगता है, कानून का विवशता से ही होता है। कानून बाहरी विषय है, धर्म अन्तःकरण का। धर्म के प्रति श्रद्धा जगाई जाती है, कानून की जानकारी दी जाती है।  
 
# आज वास्तविक परिस्थिति ऐसी दिखती है कि धर्म की और लोग श्रद्धा से देखते हैं कानून की ओर नहीं। धर्म का पालन करना चाहिये ऐसा लगता है, कानून का विवशता से ही होता है। कानून बाहरी विषय है, धर्म अन्तःकरण का। धर्म के प्रति श्रद्धा जगाई जाती है, कानून की जानकारी दी जाती है।  
# लोग बिना पुलीस के भी कानून का पालन करें इसलिये उसे पवित्र मानना पड़ता है और उसे धर्म का दर्जा देना पडता है। सांसदों द्वारा पारित किये हुए कानूनों को धर्म का दर्जा देना लोगों को कठिन लगता है। तात्पर्य यह है कि आज भी लोगों के अन्तःकरण में प्रतिष्ठा तो धर्म की ही है।  
+
# लोग बिना पुलीस के भी कानून का पालन करें इसलिये उसे पवित्र मानना पड़ता है और उसे धर्म का दर्जा देना पडता है। सांसदों द्वारा पारित किये हुए कानूनों को धर्म का दर्जा देना लोगोंं को कठिन लगता है। तात्पर्य यह है कि आज भी लोगोंं के अन्तःकरण में प्रतिष्ठा तो धर्म की ही है।  
# खास बात यह थी कि भारत में दो प्रकार के कानून होते थे। एक राजकीय और दूसरे सामाजिक, गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित सभी कानून सामाजिक थे । शासन से सम्बन्धित राजकीय थे। दोनों के लिये मार्गदर्शक पुरोहित होता था । राजकीय कानून से भी सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे। पंच, महाजन और पुरोहित मिलकर इस न्यायव्यवस्था का संचालन करते थे। समाज स्वायत्त था। ब्रिटीश राज्य में सामाजिक कानून की व्यवस्था समाप्त हो गई। राज्यने उसे हस्तगत कर लिया।  
+
# खास बात यह थी कि भारत में दो प्रकार के कानून होते थे। एक राजकीय और दूसरे सामाजिक, गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित सभी कानून सामाजिक थे । शासन से सम्बन्धित राजकीय थे। दोनों के लिये मार्गदर्शक पुरोहित होता था। राजकीय कानून से भी सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे। पंच, महाजन और पुरोहित मिलकर इस न्यायव्यवस्था का संचालन करते थे। समाज स्वायत्त था। ब्रिटीश राज्य में सामाजिक कानून की व्यवस्था समाप्त हो गई। राज्यने उसे हस्तगत कर लिया।  
 
# कानून से अपेक्षा तो सत्यान्वेषण की ही होती है परन्तु वर्तमान व्यवस्था में सत्यान्वेषण भी तान्त्रिक हो गया है। उदाहरण के लिये आरोपी और आरोप करनेवाला, इन दो में एक पक्ष तो असत्य का है ही। परन्तु उसका वकील उसे सत्य सिद्ध करने के लिये कानून की धाराओं के अनुकूल प्रयास करता है और वह सत्य सिद्ध होता भी है । सम्बन्धित सब लोग सत्य क्या है यह जानते हैं तो भी असत्य के पक्ष में न्याय होता है। यह तान्त्रिक कानून की बलिहारी है।  
 
# कानून से अपेक्षा तो सत्यान्वेषण की ही होती है परन्तु वर्तमान व्यवस्था में सत्यान्वेषण भी तान्त्रिक हो गया है। उदाहरण के लिये आरोपी और आरोप करनेवाला, इन दो में एक पक्ष तो असत्य का है ही। परन्तु उसका वकील उसे सत्य सिद्ध करने के लिये कानून की धाराओं के अनुकूल प्रयास करता है और वह सत्य सिद्ध होता भी है । सम्बन्धित सब लोग सत्य क्या है यह जानते हैं तो भी असत्य के पक्ष में न्याय होता है। यह तान्त्रिक कानून की बलिहारी है।  
 
# भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।
 
# भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।
Line 85: Line 85:  
# इन योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। खास बात यह है कि प्रदूषण जिनके कारण से बढ़ राह है ऐसे देश जिनसे नहीं बढ़ रहा है उन्हें पर्यावरण सुरक्षा का उपदेश दे रहे हैं, नीतियों के क्रियान्वयन हेतु बाध्य कर रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियन्त्रित कर रहे हैं। वास्तव में यह उल्टी गंगा चल रही है । प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ रहा है।  
 
# इन योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। खास बात यह है कि प्रदूषण जिनके कारण से बढ़ राह है ऐसे देश जिनसे नहीं बढ़ रहा है उन्हें पर्यावरण सुरक्षा का उपदेश दे रहे हैं, नीतियों के क्रियान्वयन हेतु बाध्य कर रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियन्त्रित कर रहे हैं। वास्तव में यह उल्टी गंगा चल रही है । प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ रहा है।  
 
# मूल में पर्यावरण के प्रदूषण के पश्न को सुलझाने के लिये पर्यावरण की संकल्पना ठीक से समझने की आवश्यकता है। पश्चिम अन्य बातों की तरह पर्यावरण के बारे में भी भौतिक स्तर पर ही देखता है। उसका और उसके प्रभाव में भारत सहित सभी देशों का ध्यान भूमि, जल और वायु के प्रदूषण पर ही केन्द्रित हुआ है। ये पंचमहाभूतों में तीन हैं। इनके प्रदूषण से शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत असर होता है, अनेक प्रकार के नये नये रोग पैदा होते हैं, पुराने रोगों में वृद्धि होती है, ये रोग कर्करोग की प्रकृति के होते हैं, वे असाध्य होते हैं यह बात अब सबके ध्यान में आ रही है। परन्तु प्रदूषणकारी प्रवृत्तियों से परावृत्त होने की शक्ति किसी में नहीं बची है यह भी हम देख रहे हैं।  
 
# मूल में पर्यावरण के प्रदूषण के पश्न को सुलझाने के लिये पर्यावरण की संकल्पना ठीक से समझने की आवश्यकता है। पश्चिम अन्य बातों की तरह पर्यावरण के बारे में भी भौतिक स्तर पर ही देखता है। उसका और उसके प्रभाव में भारत सहित सभी देशों का ध्यान भूमि, जल और वायु के प्रदूषण पर ही केन्द्रित हुआ है। ये पंचमहाभूतों में तीन हैं। इनके प्रदूषण से शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत असर होता है, अनेक प्रकार के नये नये रोग पैदा होते हैं, पुराने रोगों में वृद्धि होती है, ये रोग कर्करोग की प्रकृति के होते हैं, वे असाध्य होते हैं यह बात अब सबके ध्यान में आ रही है। परन्तु प्रदूषणकारी प्रवृत्तियों से परावृत्त होने की शक्ति किसी में नहीं बची है यह भी हम देख रहे हैं।  
# पंचमहाभूतों में और भी दो महाभूत बचे हैं। वे हैं अग्नि और आकाश । इनके प्रदूषण की ओर कुछ लोगों का तो ध्यान गया है परन्तु पर्याप्त मात्रा में नहीं । वास्तव में पूर्व के तीन जितना ही महत्त्व इन दोनों का भी है। उतनी ही गम्भीरता से इनकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिये।
+
# पंचमहाभूतों में और भी दो महाभूत बचे हैं। वे हैं अग्नि और आकाश । इनके प्रदूषण की ओर कुछ लोगोंं का तो ध्यान गया है परन्तु पर्याप्त मात्रा में नहीं । वास्तव में पूर्व के तीन जितना ही महत्त्व इन दोनों का भी है। उतनी ही गम्भीरता से इनकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिये।
 
# आकाश का गुण है शब्द । शब्द अर्थात् ध्वनि । ध्वनि का प्रक्षण कानों की सुनने की क्षमता कम करता है यह तो ठीक है परन्तु मन की एकाग्रता और बुद्धि की सूक्ष्मता पर भी विपरीत असर करता है। कर्कशता, ऊँचापन, बेसूरापन, ध्वनि का प्रदूषण है। मधुरता, सौम्यता और सूरीलापन सुखदायी है। वाहनों की, बोलचाल की, कुछ वाद्ययन्त्रों की ध्वनि कर्कश होती है। ध्वनिवर्धक यन्त्र, तेज संगीत, चीखें और चिल्लाहट प्रदूषणकारी होते हैं । बेसूरापन प्रदूषण करता है यह तो सर्वविदित है । ध्वनिप्रदूषण का मानसिक और बौद्धिक स्तर पर दुष्प्रभाव होता है।   
 
# आकाश का गुण है शब्द । शब्द अर्थात् ध्वनि । ध्वनि का प्रक्षण कानों की सुनने की क्षमता कम करता है यह तो ठीक है परन्तु मन की एकाग्रता और बुद्धि की सूक्ष्मता पर भी विपरीत असर करता है। कर्कशता, ऊँचापन, बेसूरापन, ध्वनि का प्रदूषण है। मधुरता, सौम्यता और सूरीलापन सुखदायी है। वाहनों की, बोलचाल की, कुछ वाद्ययन्त्रों की ध्वनि कर्कश होती है। ध्वनिवर्धक यन्त्र, तेज संगीत, चीखें और चिल्लाहट प्रदूषणकारी होते हैं । बेसूरापन प्रदूषण करता है यह तो सर्वविदित है । ध्वनिप्रदूषण का मानसिक और बौद्धिक स्तर पर दुष्प्रभाव होता है।   
 
# अग्नि प्रकाश और उष्मा देता है। रासायनिक और प्लास्टिक से, पेट्रोल और डीझल से, अणुविकिरण से निकलने वाली उष्मा त्वचा, रक्त, नाडी संस्थान आदि पर गहरा दुष्प्रभाव करती है। यह ऊष्मा कितनी अधिक बढ़ गई है यह तो ग्लोबल वोमिंग की चिन्ता से ही पता चलता है । यह ऊष्मा और इन साधनों से ही मिलने वाला प्रकाश अत्यधिक हानिकारक है।  
 
# अग्नि प्रकाश और उष्मा देता है। रासायनिक और प्लास्टिक से, पेट्रोल और डीझल से, अणुविकिरण से निकलने वाली उष्मा त्वचा, रक्त, नाडी संस्थान आदि पर गहरा दुष्प्रभाव करती है। यह ऊष्मा कितनी अधिक बढ़ गई है यह तो ग्लोबल वोमिंग की चिन्ता से ही पता चलता है । यह ऊष्मा और इन साधनों से ही मिलने वाला प्रकाश अत्यधिक हानिकारक है।  
Line 96: Line 96:  
# वेदों का शान्तिपाठ समस्त प्रकृति की शान्ति की कामना करता है। मनुष्य यज्ञ करता है और सारी सृष्टि के देवताओं को उनका हिस्सा देता है । अर्थात् वह केवल स्तुति नहीं तो पुष्टि भी करता है, सन्तर्पण भी करता है। पंचमहाभूतों को देवता मानता है इसलिये पवित्र मानता है और उनकी पवित्रता का भंग करना पाप समझता है।  
 
# वेदों का शान्तिपाठ समस्त प्रकृति की शान्ति की कामना करता है। मनुष्य यज्ञ करता है और सारी सृष्टि के देवताओं को उनका हिस्सा देता है । अर्थात् वह केवल स्तुति नहीं तो पुष्टि भी करता है, सन्तर्पण भी करता है। पंचमहाभूतों को देवता मानता है इसलिये पवित्र मानता है और उनकी पवित्रता का भंग करना पाप समझता है।  
 
# इस दर्शन और भावना को कृति में उतारता है। अग्नि में अपवित्र पदार्थ जलाता नहीं है, पानी को गंदा करता नहीं है, पैर रखने के लिये भूमि की क्षमा माँगता है, अपने स्वार्थ के लिये वृक्षों को काटता नहीं है, कर्कश आवाज का निषेध करता है। दुरुपयोग कर किसी भी पदार्थ की अवमानना करता नहीं है। सजीव निर्जीव हर पदार्थ के साथ आत्मीयता का व्यवहार करता है।  
 
# इस दर्शन और भावना को कृति में उतारता है। अग्नि में अपवित्र पदार्थ जलाता नहीं है, पानी को गंदा करता नहीं है, पैर रखने के लिये भूमि की क्षमा माँगता है, अपने स्वार्थ के लिये वृक्षों को काटता नहीं है, कर्कश आवाज का निषेध करता है। दुरुपयोग कर किसी भी पदार्थ की अवमानना करता नहीं है। सजीव निर्जीव हर पदार्थ के साथ आत्मीयता का व्यवहार करता है।  
# भारत जानता है कि पंचमहाभूतों का प्रदूषण रोकना तो फिर भी सरल है, तीन गुणों को प्रदूषणमुक्त रखना बहुत कठिन काम है। इसलिये भारत ने इनके लिये अधिक गम्भीरतापूर्वक प्रयास किये हैं।  
+
# भारत जानता है कि पंचमहाभूतों का प्रदूषण रोकना तो तथापि सरल है, तीन गुणों को प्रदूषणमुक्त रखना बहुत कठिन काम है। इसलिये भारत ने इनके लिये अधिक गम्भीरतापूर्वक प्रयास किये हैं।  
# व्यक्तित्व विकास की हर साधना के साथ सद्गुण और सदाचार को जोडा है, संयम और सेवा को अपनाने का आग्रह किया है । रजोगुण को कम करने हेतु मन को शान्त करने के हजार उपाय बताये हैं।  
+
# व्यक्तित्व विकास की हर साधना के साथ सद्गुण और सदाचार को जोड़ा है, संयम और सेवा को अपनाने का आग्रह किया है । रजोगुण को कम करने हेतु मन को शान्त करने के हजार उपाय बताये हैं।  
 
# मन वश में हुआ तो बुद्धि की विपरीतता का उपाय हो ही जाता है। अहंकार की विनाशकता को जानकर भारत ने सर्व प्रकार से स्पर्धा को निष्कासित किया है । विनयशीलता, परिचर्या, शुश्रुषा, सेवा को महत्त्वपूर्ण गुण माना है। इन गुणों के बिना अनेक श्रेष्ठ बातें मिलेंगी नहीं ऐसा बन्धन निर्माण किया है।  
 
# मन वश में हुआ तो बुद्धि की विपरीतता का उपाय हो ही जाता है। अहंकार की विनाशकता को जानकर भारत ने सर्व प्रकार से स्पर्धा को निष्कासित किया है । विनयशीलता, परिचर्या, शुश्रुषा, सेवा को महत्त्वपूर्ण गुण माना है। इन गुणों के बिना अनेक श्रेष्ठ बातें मिलेंगी नहीं ऐसा बन्धन निर्माण किया है।  
 
# सम्पन्नता, सामर्थ्य, विद्वत्ता पश्चिम के मनुष्य को उद्दण्डता बरतने का अधिकार देती है। भारत क्षमा, उदारता, विनय, सौजन्य से इनकी शोभा बढाने का परामर्श देता है। पश्चिम प्राप्ति को महत्त्व देता है। भारत प्राप्ति के बाद उसके त्याग को । विकास का मार्ग प्राप्ति और सामर्थ्य को पार करके आगे जाता है।  
 
# सम्पन्नता, सामर्थ्य, विद्वत्ता पश्चिम के मनुष्य को उद्दण्डता बरतने का अधिकार देती है। भारत क्षमा, उदारता, विनय, सौजन्य से इनकी शोभा बढाने का परामर्श देता है। पश्चिम प्राप्ति को महत्त्व देता है। भारत प्राप्ति के बाद उसके त्याग को । विकास का मार्ग प्राप्ति और सामर्थ्य को पार करके आगे जाता है।  
Line 113: Line 113:  
अन्याय, अनीति, स्वार्थ से प्रेरित ऐसा कोई भी कार्य हिंसा है। जो किसी भी रूप में दूसरे का अधिकार छीनता है अहित करता है वह हिंसापूर्ण कृत्य है। इस दृष्टि से वर्तमान अर्थव्यवस्था पराकोटि की हिंसक व्यवस्था है। पर्यावरण का प्रदूषण करने वाला व्यवहार और व्यवस्था - आचरण और व्यवसाय - हिंसा है। प्राणियों के लिये जीवन दूभर बनाने वाला कृत्य हिंसा है। उदाहरण के लिये पक्की सडक पर पक्षी दाना नहीं चुग सकते और पशुओं के पैरों के खुर खराब होते हैं। प्रदूषण के कारण पक्षी, प्लास्टिक के कारण गायें मरती हैं। यह हिंसा है। बीजों को उत्पादन के लिये अक्षम बनाना हिंसा है । खाद्य पदार्थों और औषधियों में मिलावट करना हिंसा है। दूसरों को बेरोजगार बनाना हिंसा है । अर्थात् आज की समृद्धि हिंसक समृद्धि है। इस समृद्धि को उचित बनाने वाला विचार हिंसक है। उसके अनुकूल शिक्षा देना हिंसक शिक्षा है। इसी के पक्ष में न्याय देना हिंसा है। योगशास्त्र में अहिंसा का परिणाम बताते हुए कहा है, 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठा होने से उसके आसपास का वै शान्त हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसक है उसकी उपस्थिति में एक दूसरे के स्वाभाविक शत्रु भी अपना वैर छोड़ देते हैं। हम ऋषियों के आश्रम के चित्र देखते हैं तब अनेक बार देखा है कि आश्रम के जलाशय में शेर और हिरन साथ साथ पानी पीते हैं। यह कल्पना नहीं है, ऋषि की अहिंसा का यह प्रभाव है। अर्थात् अहिंसक समाज में सुरक्षा, आश्वस्ति, सहृदयता, सज्जनता अपने आप पनपते हैं। हिंसक वातावरण में भय, चिन्ता, तनाव, असुरक्षा आदि बढते जाते हैं। हिंसक समाज में जेल, न्यायालय, अस्पताल, पुलीस आदि की बहुतायत होती है।
 
अन्याय, अनीति, स्वार्थ से प्रेरित ऐसा कोई भी कार्य हिंसा है। जो किसी भी रूप में दूसरे का अधिकार छीनता है अहित करता है वह हिंसापूर्ण कृत्य है। इस दृष्टि से वर्तमान अर्थव्यवस्था पराकोटि की हिंसक व्यवस्था है। पर्यावरण का प्रदूषण करने वाला व्यवहार और व्यवस्था - आचरण और व्यवसाय - हिंसा है। प्राणियों के लिये जीवन दूभर बनाने वाला कृत्य हिंसा है। उदाहरण के लिये पक्की सडक पर पक्षी दाना नहीं चुग सकते और पशुओं के पैरों के खुर खराब होते हैं। प्रदूषण के कारण पक्षी, प्लास्टिक के कारण गायें मरती हैं। यह हिंसा है। बीजों को उत्पादन के लिये अक्षम बनाना हिंसा है । खाद्य पदार्थों और औषधियों में मिलावट करना हिंसा है। दूसरों को बेरोजगार बनाना हिंसा है । अर्थात् आज की समृद्धि हिंसक समृद्धि है। इस समृद्धि को उचित बनाने वाला विचार हिंसक है। उसके अनुकूल शिक्षा देना हिंसक शिक्षा है। इसी के पक्ष में न्याय देना हिंसा है। योगशास्त्र में अहिंसा का परिणाम बताते हुए कहा है, 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठा होने से उसके आसपास का वै शान्त हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसक है उसकी उपस्थिति में एक दूसरे के स्वाभाविक शत्रु भी अपना वैर छोड़ देते हैं। हम ऋषियों के आश्रम के चित्र देखते हैं तब अनेक बार देखा है कि आश्रम के जलाशय में शेर और हिरन साथ साथ पानी पीते हैं। यह कल्पना नहीं है, ऋषि की अहिंसा का यह प्रभाव है। अर्थात् अहिंसक समाज में सुरक्षा, आश्वस्ति, सहृदयता, सज्जनता अपने आप पनपते हैं। हिंसक वातावरण में भय, चिन्ता, तनाव, असुरक्षा आदि बढते जाते हैं। हिंसक समाज में जेल, न्यायालय, अस्पताल, पुलीस आदि की बहुतायत होती है।
   −
पश्चिमी जीवनव्यवस्था के जितने भी आयाम हैं वे सब हिंसक हैं । इसी लिये वह आसुरी समाज है । भारत में असुर नहीं है ऐसा तो नहीं है । युगों से असुर रहे ही हैं और प्रभावी भी रहे हैं परन्तु भारत की मान्य व्यवस्था आसुरी नहीं है। भारत हमेशा अहिंसक समाजव्यवस्था का पक्षधर रहा है। आज भारत का अहिंसक समाज हिंसा से दृषित हो गया है यह सत्य है । परन्तु वह अस्वास्थ्य है, बिमारी है, व्याधि और उपाधि है, स्वभाव नहीं है । इसलिये इस रोग से मुक्त होना है। भारत के प्रदीर्घ इतिहास में पाँचसौ वर्षों से लगी यह बिमारी बहत लम्बी नहीं कही जा सकती तथापि उपचार की दृष्टि से पर्याप्त रूप से कष्टसाध्य है। यह परमात्मा की कृपा माननी चाहिये कि अभी यह बिमारी असाध्य या प्राणघातक नहीं बनी है। परन्तु इसे हल्के से भी नहीं लेना चाहिये। इससे मुक्त हुए बिना न हमारा राष्ट्रजीवन ठीक हो सकता है न विश्व भारत से लाभान्वित हो सकता है।
+
पश्चिमी जीवनव्यवस्था के जितने भी आयाम हैं वे सब हिंसक हैं । इसी लिये वह आसुरी समाज है । भारत में असुर नहीं है ऐसा तो नहीं है । युगों से असुर रहे ही हैं और प्रभावी भी रहे हैं परन्तु भारत की मान्य व्यवस्था आसुरी नहीं है। भारत सदा अहिंसक समाजव्यवस्था का पक्षधर रहा है। आज भारत का अहिंसक समाज हिंसा से दृषित हो गया है यह सत्य है । परन्तु वह अस्वास्थ्य है, बिमारी है, व्याधि और उपाधि है, स्वभाव नहीं है । इसलिये इस रोग से मुक्त होना है। भारत के प्रदीर्घ इतिहास में पाँचसौ वर्षों से लगी यह बिमारी बहत लम्बी नहीं कही जा सकती तथापि उपचार की दृष्टि से पर्याप्त रूप से कष्टसाध्य है। यह परमात्मा की कृपा माननी चाहिये कि अभी यह बिमारी असाध्य या प्राणघातक नहीं बनी है। परन्तु इसे हल्के से भी नहीं लेना चाहिये। इससे मुक्त हुए बिना न हमारा राष्ट्रजीवन ठीक हो सकता है न विश्व भारत से लाभान्वित हो सकता है।
    
==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
 
==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
Line 128: Line 128:  
भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से धार्मिक जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें बदल जायेंगी। दिशा बदली तो मार्ग और गन्तव्य दोनों बदल जाने जैसा ही है ।
 
भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से धार्मिक जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें बदल जायेंगी। दिशा बदली तो मार्ग और गन्तव्य दोनों बदल जाने जैसा ही है ।
   −
एकरूपता के स्थान पर यदि स्वाभाविकता लाना है तो हमें, उदाहरण के लिये, हमारी दैनन्दिन उपयोग की छोटी छोटी बातें बदलने से प्रारम्भ करना होगा। छोटे प्रारम्भ से बडे बडे परिवर्तनों तक पहुँचा जा सकता है। यदि हम कारखाने में बने तैयार कपडे और जूते पहनने के स्थान पर हाथ से बने कपडे और जूते पहनने लगेंगे तो जूते और कपडे के कारखाने बन्द हो जायेंगे, यन्त्रसामग्री निरुपयोगी बन जायेगी, दर्जी और मोची को काम मिलेगा, वे नौकर नहीं अपितु अपने व्यवसाय के मालिक बनेंगे। अपने व्यवसाय के लिये वे गाँव में जायेंगे, वहाँ सुख से रहेंगे, गाँवों का विकास होगा और हमें अपने नाप के, दर्जी और मोची के मानवीय स्पर्शवाले कपड़े और जूते मिलेंगे । सारा अर्थतन्त्र, यान्त्रिकीकरण और शहरीकरण रुक जायेगा । और दिशा बदल जायेगी। आज डिझाइनर कपड़ों और जूतों की बडी प्रतिष्ठा है । यन्त्र दूर करते ही हर व्यक्ति को डिझाइनर कपडे और जूते मिलेंगे।
+
एकरूपता के स्थान पर यदि स्वाभाविकता लाना है तो हमें, उदाहरण के लिये, हमारी दैनन्दिन उपयोग की छोटी छोटी बातें बदलने से प्रारम्भ करना होगा। छोटे प्रारम्भ से बडे बडे परिवर्तनों तक पहुँचा जा सकता है। यदि हम कारखाने में बने तैयार कपड़े और जूते पहनने के स्थान पर हाथ से बने कपड़े और जूते पहनने लगेंगे तो जूते और कपड़े के कारखाने बन्द हो जायेंगे, यन्त्रसामग्री निरुपयोगी बन जायेगी, दर्जी और मोची को काम मिलेगा, वे नौकर नहीं अपितु अपने व्यवसाय के मालिक बनेंगे। अपने व्यवसाय के लिये वे गाँव में जायेंगे, वहाँ सुख से रहेंगे, गाँवों का विकास होगा और हमें अपने नाप के, दर्जी और मोची के मानवीय स्पर्शवाले कपड़े और जूते मिलेंगे । सारा अर्थतन्त्र, यान्त्रिकीकरण और शहरीकरण रुक जायेगा । और दिशा बदल जायेगी। आज डिझाइनर कपड़ों और जूतों की बडी प्रतिष्ठा है । यन्त्र दूर करते ही हर व्यक्ति को डिझाइनर कपड़े और जूते मिलेंगे।
    
मूल संकल्पना बदलते ही कितनी दूर तक सारे परिवर्तन होते हैं इसका यह उदाहरण है।
 
मूल संकल्पना बदलते ही कितनी दूर तक सारे परिवर्तन होते हैं इसका यह उदाहरण है।
Line 137: Line 137:     
==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
 
==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की हमेशा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
+
यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की सदा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगोंं द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
    
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
 
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
Line 154: Line 154:  
धर्म की संकल्पना की अनुपस्थिति में पश्चिम के जीवन में समग्रता और समरसता, परस्परपूरकता और परस्परावलम्बिता, एकता और एकात्मता सम्भव नहीं होते । एकाकीपन, पृथकता, खण्डितता, विभाजकता फैल जाते हैं। इन तत्त्वों को ही स्वाभाविक माना जाता है क्योंकि दूसरे का परिचय ही नहीं है। परिचय ही नहीं है तब अनुभव की तो बात ही नहीं है । परिणाम स्वरूप सर्वत्र विशृंखलता दिखाई देती है।
 
धर्म की संकल्पना की अनुपस्थिति में पश्चिम के जीवन में समग्रता और समरसता, परस्परपूरकता और परस्परावलम्बिता, एकता और एकात्मता सम्भव नहीं होते । एकाकीपन, पृथकता, खण्डितता, विभाजकता फैल जाते हैं। इन तत्त्वों को ही स्वाभाविक माना जाता है क्योंकि दूसरे का परिचय ही नहीं है। परिचय ही नहीं है तब अनुभव की तो बात ही नहीं है । परिणाम स्वरूप सर्वत्र विशृंखलता दिखाई देती है।
   −
धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थविज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया।
+
धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थ विज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया।
    
धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की बात न कर केवल इसाइयत की ही बात करें तो दुनिया का इसाईकरण करने हेतु रक्तपात, लूट, शोषण और नरसंहार की पराकाष्ठा पश्चिम ने की है। विश्व के अनेक देश, जो मूलतः इसाई नहीं थे, आज पूर्ण रूप से इसाई बन गये हैं। दुनिया को इसाई बनाने के लिये इन्होंने सारे अमानवीय हथकण्डे ही अपनाये हैं इसका प्रमाण इतिहास देता है।
 
धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की बात न कर केवल इसाइयत की ही बात करें तो दुनिया का इसाईकरण करने हेतु रक्तपात, लूट, शोषण और नरसंहार की पराकाष्ठा पश्चिम ने की है। विश्व के अनेक देश, जो मूलतः इसाई नहीं थे, आज पूर्ण रूप से इसाई बन गये हैं। दुनिया को इसाई बनाने के लिये इन्होंने सारे अमानवीय हथकण्डे ही अपनाये हैं इसका प्रमाण इतिहास देता है।
   −
धर्म सर्व प्रकार का अनुकूलन बनाने का मार्गदर्शन करता है परन्तु इतिहास दर्शाता है कि उसका भौतिक विज्ञान और सत्ता दोनों के साथ अनुकूलन नहीं रहा । पोप के रूप में रिलीजन की सत्ता है और राजसत्ता ने इस रिलीजन की सत्ता के अधीन होना स्वीकार नहीं किया। भौतिक विज्ञान और रिलीजन का भी परस्पर अनुकूलन नहीं रहा । आज पश्चिम में भौतिक विज्ञान और इसाइयत दोनों हैं परन्तु एकदूसरे से निरपेक्ष हैं । रिलीजन का अर्थसत्ता से भी अंगागी सम्बन्ध नहीं रहा। अर्थात् रिलीजन, अर्थक्षेत्र, राज्य और विज्ञान सब एकदूसरे से स्वतन्त्र बनकर अस्तित्व में है, ऐसा जीवन विशृंखल ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
+
धर्म सर्व प्रकार का अनुकूलन बनाने का मार्गदर्शन करता है परन्तु इतिहास दर्शाता है कि उसका भौतिक विज्ञान और सत्ता दोनों के साथ अनुकूलन नहीं रहा । पोप के रूप में रिलीजन की सत्ता है और राजसत्ता ने इस रिलीजन की सत्ता के अधीन होना स्वीकार नहीं किया। भौतिक विज्ञान और रिलीजन का भी परस्पर अनुकूलन नहीं रहा । आज पश्चिम में भौतिक विज्ञान और ईसाइयत दोनों हैं परन्तु एकदूसरे से निरपेक्ष हैं । रिलीजन का अर्थसत्ता से भी अंगागी सम्बन्ध नहीं रहा। अर्थात् रिलीजन, अर्थक्षेत्र, राज्य और विज्ञान सब एकदूसरे से स्वतन्त्र बनकर अस्तित्व में है, ऐसा जीवन विशृंखल ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
    
फिर रिलीजन का प्रयोजन क्या है ? रिलीजन का प्रयोजन 'साल्वेशन' है। 'साल्वेशन' हम जिसे मोक्ष कहते हैं वह नहीं है। साल्वेशन स्वर्ग प्राप्ति है जहाँ निरन्तर अबाधित सुख है । यह सुख पृथ्वी पर के सुख जैसा ही है, केवल वह निर्विरोध है । इसु की उपासना से ही स्वर्ग में जाया जाता है। 'धर्म' के समान ही अंग्रेजी में 'पुण्य' के लिये भी कोई संज्ञा नहीं है यह भी क्या केवल योगानुयोग है या उनके मानस की ओर संकेत है इसका भी विचार करना चाहिये।
 
फिर रिलीजन का प्रयोजन क्या है ? रिलीजन का प्रयोजन 'साल्वेशन' है। 'साल्वेशन' हम जिसे मोक्ष कहते हैं वह नहीं है। साल्वेशन स्वर्ग प्राप्ति है जहाँ निरन्तर अबाधित सुख है । यह सुख पृथ्वी पर के सुख जैसा ही है, केवल वह निर्विरोध है । इसु की उपासना से ही स्वर्ग में जाया जाता है। 'धर्म' के समान ही अंग्रेजी में 'पुण्य' के लिये भी कोई संज्ञा नहीं है यह भी क्या केवल योगानुयोग है या उनके मानस की ओर संकेत है इसका भी विचार करना चाहिये।
Line 170: Line 170:  
ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा।
 
ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा।
   −
श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुडे हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है।
+
श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुड़े हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है।
    
परन्त इन्द्र समास विशेष है। इसमें दोनों पद समान हैं, लेशमात्र कमअधिक नहीं । इसमें एक के होने से दूसरा है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं, दूसरे की सार्थकता नहीं। इसमें दोनों दूसरे के पूरक हैं। दोनों दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं और एक होते हैं। द्वन्द्व मिटकर एक होने की प्रक्रिया और अवस्था का यह संकेत है।
 
परन्त इन्द्र समास विशेष है। इसमें दोनों पद समान हैं, लेशमात्र कमअधिक नहीं । इसमें एक के होने से दूसरा है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं, दूसरे की सार्थकता नहीं। इसमें दोनों दूसरे के पूरक हैं। दोनों दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं और एक होते हैं। द्वन्द्व मिटकर एक होने की प्रक्रिया और अवस्था का यह संकेत है।
Line 180: Line 180:  
स्त्री पुरुष, पतिपत्नी, मातापिता, गुरुशिष्य, पितापुत्र, राजाप्रजा आदि।
 
स्त्री पुरुष, पतिपत्नी, मातापिता, गुरुशिष्य, पितापुत्र, राजाप्रजा आदि।
   −
द्वन्द्व समास से इन्हें जोडने का अर्थ है इनमें परस्पर पूरकता और एकात्मता निर्माण करना । मानवीय सम्बन्धों का यह मूल आधार है । इसमें परमात्मतत्त्व है इसलिये इसे द्वन्द्व समास कहा है।
+
द्वन्द्व समास से इन्हें जोडने का अर्थ है इनमें परस्पर पूरकता और एकात्मता निर्माण करना । मानवीय सम्बन्धों का यह मूल आधार है । इसमें परमात्मतत्त्व है इसलिये इसे द्वन्द्व समास कहा है। अध्यात्म को व्यवहार्य बनाने की कुशाग्र बुद्धि हमारे मनीषियों में थी यही हम कह सकते हैं।
 
  −
अध्यात्म को व्यवहार्य बनाने की कुशाग्र बुद्धि हमारे मनीषियों में थी यही हम कह सकते हैं।  
      
==References==
 
==References==
 
<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
   
[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 +
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
 +
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

Navigation menu