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वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...  
 
वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...  
 
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# वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।  
१. वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।  
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# अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।  
 
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# सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।  
२.अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।  
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# पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।  
 
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# अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।  
३. सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।  
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# वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।  
 
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# अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।  
४. पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।  
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# प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।  
 
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# प्लास्टिक की खोज प्रकृति के  स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।  
५.अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।  
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# सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।  
 
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# प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।  
६. वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।  
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# प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।  
 
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# प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।  
७.अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।  
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# इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है।
 
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८.प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।  
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९. प्लास्टिक की खोज प्रकृति के  स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।  
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१०. सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।  
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११. प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।  
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१२. प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।  
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१३. प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।  
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१४. इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है।
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पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा।
 
पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा।
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तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है।
 
तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है।
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चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे हमेशा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है।  
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चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे सदा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है।  
    
परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को  आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
 
परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को  आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
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स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
 
स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
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लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पडे और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
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लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पड़े और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
    
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
 
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
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इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की स्त्रियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, स्त्री एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
 
इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की स्त्रियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, स्त्री एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
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विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन भारतीय समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
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विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन धार्मिक समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
    
उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
 
उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
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# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
 
# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
 
# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
 
# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पडेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
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विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पड़ेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे[[Category:Education Series]]
[[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 3: संकटों का विश्लेषण]]
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[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 3: संकटों का विश्लेषण]]

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