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कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पडता है इस मूल धारणा के कारण विकास हेतु स्पर्धा अनिवार्य बन गई है। स्पर्धा का तत्त्व इतना प्रतिष्ठित हो गया है कि हम आज के युग को स्पर्धा का युग कहने लगे हैं । संघर्ष हेतु स्पर्धा और स्पर्धा के लिये संघर्ष का सिलसिला चल पडा है। इसका प्रभाव मानसिकता पर बहुत गहरा हुआ है। हों न हों सर्वत्र सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होने के भगीरथ प्रयास चल रहे है। प्रथम क्रमांक, प्रथम दस स्थान, प्रथम एक सौ स्थान आदि की भाषा इतनी सहज हो गई है कि अब उसमें कुछ भी नया या असाधारण नहीं लगता । विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिये, नौकरी में नियुक्ति के लिये, किसी भी विषय का पुरस्कार प्राप्त करने के लिये, अपने उत्पाद की बिक्री के लिये गलाकाट स्पर्धा में उतरना पड़ता है। सर्वश्रेष्ठ स्थान बनाने के लिये स्पर्धा में भी बने रहना पड़ता है। स्पर्धा में जीतना युद्ध में जीतने से भी अधिक महत्त्व रखता है।
 
कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पडता है इस मूल धारणा के कारण विकास हेतु स्पर्धा अनिवार्य बन गई है। स्पर्धा का तत्त्व इतना प्रतिष्ठित हो गया है कि हम आज के युग को स्पर्धा का युग कहने लगे हैं । संघर्ष हेतु स्पर्धा और स्पर्धा के लिये संघर्ष का सिलसिला चल पडा है। इसका प्रभाव मानसिकता पर बहुत गहरा हुआ है। हों न हों सर्वत्र सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होने के भगीरथ प्रयास चल रहे है। प्रथम क्रमांक, प्रथम दस स्थान, प्रथम एक सौ स्थान आदि की भाषा इतनी सहज हो गई है कि अब उसमें कुछ भी नया या असाधारण नहीं लगता । विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिये, नौकरी में नियुक्ति के लिये, किसी भी विषय का पुरस्कार प्राप्त करने के लिये, अपने उत्पाद की बिक्री के लिये गलाकाट स्पर्धा में उतरना पड़ता है। सर्वश्रेष्ठ स्थान बनाने के लिये स्पर्धा में भी बने रहना पड़ता है। स्पर्धा में जीतना युद्ध में जीतने से भी अधिक महत्त्व रखता है।
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स्पर्धा का मानसिक स्थिति पर बहुत विपरीत प्रभाव होता है। मानसिक स्वस्थता, शान्ति, आश्वस्ति, सन्तुष्टि आदि का लेशमात्र अनुभव नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं । मधुमेह उच्च रक्तचाप, हृदयविकार, यहाँ तक कि
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स्पर्धा का मानसिक स्थिति पर बहुत विपरीत प्रभाव होता है। मानसिक स्वस्थता, शान्ति, आश्वस्ति, सन्तुष्टि आदि का लेशमात्र अनुभव नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं । मधुमेह उच्च रक्तचाप, हृदयविकार, यहाँ तक कि कर्करोग जैसी असाध्य या दुःसाध्य बिमारियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। हम देख ही रहे हैं कि इनकी व्याप्ति विश्वभर में हो गई है। निरन्तर तनाव, उत्तेजना, निराशा, हताशा अनिद्रा, पागलपन आदि इसके परिणाम हैं। यह आत्मघात के ही विभिन्न स्तर है। विश्व इस स्थिति में पहुँच गया है परन्तु इसके स्रोत से बेखबर है। कुछ लोग जानते हैं परन्तु वे उपाय नहीं करते क्योंकि वे इस स्थिति के लाभार्थी होते हैं। कुछ लोग जानते हैं परन्तु उपाय नहीं कर पाते । कुल मिलाकर इस चक्र में फँसा विश्व मुक्त होने के लिये कुछ नहीं कर सकता।
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स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
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लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पडे
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और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
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पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
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संसद, न्यायालय, वकील, पुलीस, कैदखाने के आधार पर यह करार की व्यवस्था चलती है। यही 'रूल ऑफ लॉ" - कानून का राज्य है जिसे आदर्श व्यवस्था का नाम दिया जाता है। वास्तव में यह मनुष्य को कृपण, अमानवीय, स्वार्थी, असुरक्षित बना देती है।
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मनुष्य केन्द्री रचना में जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति को अपने उपभोग का साधन मानता है उस प्रकार व्यक्तिकेन्द्री रचना में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को अपनी कामना की पूर्ति का साधन मानता है। यह उपयोगितावाद का सिद्धान्त है जो पदार्थों और मनुष्यों को समान रूप से लागू होता है। व्यक्ति के स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरा मनुष्य जितना उपयोगी है उतना ही और जब तक उपयोगी है, तब तक ही उसका मूल्य है और तब तक ही उसके साथ सम्बन्ध है, निष्ठा, मैत्री, वफादारी, श्रद्धा आदि सब उसमें ही समाहित
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मनुष्यकेन्द्री और व्यक्तिकेन्द्री के साथ साथ पश्चिम पुरुषकेन्द्री भी है । यह आश्चर्य की बात है, अथवा नहीं भी है कि आदम की पसली को लेकर भगवानने ईव को बनाया इसलिये स्त्री पुरुष का ही एक हिस्सा है, उसका स्वतन्त्र अस्तिव नहीं है । पुरुष के लिये स्त्री भोग्य है, एक पदार्थ है। उन्नीसवीं शताब्दी तक स्त्री को मताधिकार भी नहीं था।
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उन्नीसवीं शताब्दी में जिस प्रकार औद्योगिक क्राति हई उसी प्रकार से सामाजिक क्षेत्र में स्त्रीमुक्ति, स्त्रीस्वतन्त्रता, स्त्री पुरुष समानता के लिये भी आन्दोलन हुए। परिणामस्वरूप आज पश्चिम में स्त्री और पुरुष समान हैं, एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और उनके समान अधिकार हैं । भारत के बनते हैं और भंग भी होते हैं । इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
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पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
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संसद, न्यायालय, वकील, पुलीस, कैदखाने के आधार पर यह करार की व्यवस्था चलती है। यही 'रूल ऑफ लॉ - कानून का राज्य है जिसे आदर्श व्यवस्था का नाम दिया जाता है। वास्तव में यह मनुष्य को कृपण, अमानवीय, स्वार्थी, असुरक्षित बना देती है।
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मनुष्य केन्द्री रचना में जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति को अपने उपभोग का साधन मानता है उस प्रकार व्यक्तिकेन्द्री रचना में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को अपनी कामना की पूर्ति का साधन मानता है। यह उपयोगितावाद का सिद्धान्त है जो पदार्थों और मनुष्यों को समान रूप से लागू होता है। व्यक्ति के स्वार्थ की पूर्ति के लिये दसरा मनुष्य जितना उपयोगी है उतना ही और जब तक उपयोगी है, तब तक ही उसका मूल्य है और तब तक ही उसके साथ सम्बन्ध है, निष्ठा, मैत्री, वफादारी, श्रद्धा आदि सब उसमें ही समाहित हैं।
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मनुष्यकेन्द्री और व्यक्तिकेन्द्री के साथ साथ पश्चिम पुरुषकेन्द्री भी है। यह आश्चर्य की बात है, अथवा नहीं भी है कि आदम की पसली को लेकर भगवानने ईव को बनाया इसलिये स्त्री पुरुष का ही एक हिस्सा है, उसका स्वतन्त्र अस्तिव नहीं है। पुरुष के लिये स्त्री भोग्य है, एक पदार्थ है। उन्नीसवीं शताब्दी तक स्त्री को मताधिकार भी नहीं था।
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उन्नीसवीं शताब्दी में जिस प्रकार औद्योगिक क्राति हुई उसी प्रकार से सामाजिक क्षेत्र में स्त्रीमुक्ति, स्त्रीस्वतन्त्रता, स्त्री पुरुष समानता के लिये भी आन्दोलन हुए। परिणामस्वरूप आज पश्चिम में स्त्री और पुरुष समान हैं, एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और उनके समान अधिकार हैं। भारत के समान स्त्री और पुरुष एकदूसरे के पूरक नहीं है।
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समाज व्यक्ति के लिये है, कानून व्यक्ति के लिये है, व्यवस्थायें व्यक्ति के लिये हैं। सारी दुनिया मेरे लिये हैं मैं दुनिया के लिये नहीं हूँ ऐसा विचार करता है।
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पश्चिम की इस सोच को भारत बहुत आश्चर्य और खेदपूर्वक देखता है। इस व्यवस्था के पीछे नासमझी के अलावा और कुछ नहीं है ऐसी ही भारत की सोच है। भारत का विचार पश्चिम के विचार से सर्वथा दूसरी दिशा का है। भारत के लिये समाज करार के नहीं अपितु एकात्मता के सिद्धान्त पर बनी रचना है । वह आत्मतत्त्व का विश्वरूप है। यहाँ सारे सम्बन्ध आत्मीयता के हैं । व्यक्ति मेरे लिये समाज' के स्थान पर समाज के लिये मैं', 'मेरे लिये अन्य व्यक्ति' के स्थान पर 'अन्य व्यक्तियों के लिये मैं' की सोच रखता है। यहाँ पति और पत्नी व्यक्ति के रूप में अपूर्ण हैं और दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं। विवाह यहां करार नहीं है, संस्कार हैं। मातापिता और सन्ताने परम्परा बनाये रखने वाली शृंखला की कड़ियाँ हैं और एकदूसरे से अभिन्न है। सम्पूर्ण समाज, अपने सभी आयामों में परिवारभावना से सम्बन्धित है। यहाँ संघर्ष नहीं, समन्वय मूल बात है। विश्वास, परस्पर पूरकता, परस्परावलम्बन, दूसरे का विचार प्रथम करना ये सामाजिक मूल्य हैं। यहाँ समृद्धि और संस्कृति एक साथ रहते हैं। संस्कृतिनिष्ठा सबके लिये समान रूप से अनिवार्य बात है।
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पश्चिम को सुखी, स्वस्थ, समृद्ध और सुसंस्कृत बनने के लिये भारत की समाजव्यवस्था के मूल सिद्धान्तों को समझने की आवश्यकता है। इसकी चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है।
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=== स्त्री के प्रति देखने का दृष्टिकोण ===
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इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की नियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, खी एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
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विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन भारतीय समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
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उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
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- स्त्री के लिये कुछ स्त्रीत्व के अनुकूल विशेष बातें होती हैं इसकी ओर ध्यान नहीं गया है । मानक पुरुष ही है और स्त्री को अपने आपको उन मानकों पर सिद्ध करना है।
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पश्चिम भौतिक पद्धति से चीजों को देखता है इसलिये स्त्री और पुरुष में केवल जैविक और मैथुनिक अन्तर ही देखता है। शेष सारी बातें समान हैं ऐसा मानता है । स्त्रीत्व और पुरुषत्व परस्पर पूरक है, दोनों मिलकर एक बनते हैं, स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री अपूर्ण है, आदि सब उनकी कल्पना में भी नहीं आते । इसलिये स्त्री का विकास स्त्री की तरह और पुरुष का विकास पुरुष की तरह होना चाहिये ऐसा उनके मन में बैठता नहीं है। दोनों को पश्चिम एक ही साँचे में ढालता है । इसे ही वह समानता और स्वतन्त्रता कहता है।
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इस आधार पर जब परिवार, व्यवसाय, समाज, कानून, आदि की रचना होती है तब वह यान्त्रिक और शिथिल बनती है। उसमें भावात्मक सम्बन्ध निर्माण नहीं होते । इस स्थिति में सभ्यता का विकास भले ही हो जाय, संस्कृति का नहीं होता। बिना संस्कृति के सभ्यता बिना देवप्रतिमा के भव्य मन्दिर जैसी होती है।।
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पश्चिम को यदि विनाश से बचना है, सुसंस्कृत होना है, स्वस्थ और समृद्ध समाज बनना है, सुख और शान्ति का अनुभव करना है तो उसे अपने सामाजिक जीवन के बारे में भारत से अनेक बातें सीखनी होंगी। परन्तु पश्चिम भारत से सीखे उससे पूर्व भारत को भी ये बातें पुनः सीखनी होंगी। जब से भारत में पश्चिम की शिक्षा प्रतिष्ठित हुई है, भारत ने अपनी अनेक अमूल्य बातों का त्याग कर पश्चिम की निकृष्ट बातों को अपनाया है, उन्हें प्रतिष्ठा दी है, आधुनिक मानकर उनका सम्मान किया है। अब भारत को अपने आप के विषय में पुनर्विचार करना होगा।
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इस दृष्टि से पश्चिम की स्त्री का आदर्श छोडना होगा, उसे जो महिमा मण्डित किया जाता है उसके बारे में चिंतन करना होगा । पश्चिम की स्त्री की अवधारणा भारत में कभी नहीं रही है। एक ही परमात्मतत्त्व स्त्रीधारा और पुरुषधारा के रूप में विभाजित हुआ है और दोनो मिलकर ही एक बनते हैं ऐसा प्रारम्भ काल से ही भारत में माना जाता रहा है।
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स्त्री विषयक पश्चिम की अवधारणा को नकारने के कुछ निहितार्थ हैं।
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# परिवार विषयक संकल्पना को छोड़ना
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# विवाह विषयक कानूनों को बदलना
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# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
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# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
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विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पडेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
    
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