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परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को । आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
 
परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को । आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
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=== व्यक्तिकेन्द्री रचना का स्वरूप ===
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पश्चिम का स्वभाव ही है कि वह उपभोग और अधिकार के क्षेत्र को सिकुडता ही जाता है। विश्व का अधिकार क्षेत्र मनुष्यकेन्द्री बनाने के बाद क्रम आता है उसे व्यक्तिकेन्द्री बनाने का।
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इस सृष्टि में मनुष्य को मनुष्येत्तर पदार्थों के साथ रहना है। इसकी व्यवस्था बिठाने के लिये उसने मनुष्येतर सृष्टि को मनुष्य का दास माना और अपना स्वामित्व प्रस्थापित किया। अब मनुष्यों के जगत की बारी है। मनुष्यों के जगत में उसने व्यक्तिकेन्द्री रचना बनाई । एक एक व्यक्ति स्वतन्त्र है । स्वतन्त्रता का अर्थ उसने कामनाओं की पूर्ति के और उपभोग के अधिकार के सन्दर्भ में बिठाया । अर्थात् हरेक यक्ति को अपनी अमर्याद कामनाओं की पूर्ति का और स्वच्छन्द उपभोग का अधिकार है।
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हर व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग का अधिकार केवल अपने लिये कैसे अधिक से अधिक प्राप्त हो इसका विचार करता है। इसके लिये अपनी बुद्धि, सत्ता, क्षमताओं का उपयोग करता है। जब हर व्यक्ति अपना ही अमर्याद अधिकार मानेगा तो उसका स्वाभाविक परिणाम संघर्ष ही होगा। डार्विन ने इसे ही 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' - योग्यतम की जीवित रहने की सम्भावना कहा है। भौतिक जगत का यह सिद्धान्त पश्चिम सामाजिक जीवन को भी लागू करता है। पश्चिम के लिये संघर्ष जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। जीवन भी संघर्षपूर्ण हैं और सम्बन्ध भी । संघर्षपूर्ण जीवन युद्ध का मैदान है जिसमें हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध ही मोर्चा बाँधता है। हर व्यक्ति को जीतना है, और दूसरे को पराजित किये बिना जीता नहीं जाता । संघर्ष में जीतने के लिये व्यक्ति अपनी क्षमता बढाता है, साथ ही दूसरों को दुर्बल बनाने के हथकंडे भी अपनाता है। युद्ध में सबकुछ जायज है यह उसकी नीति है।
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कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पडता है इस मूल धारणा के कारण विकास हेतु स्पर्धा अनिवार्य बन गई है। स्पर्धा का तत्त्व इतना प्रतिष्ठित हो गया है कि हम आज के युग को स्पर्धा का युग कहने लगे हैं । संघर्ष हेतु स्पर्धा और स्पर्धा के लिये संघर्ष का सिलसिला चल पडा है। इसका प्रभाव मानसिकता पर बहुत गहरा हुआ है। हों न हों सर्वत्र सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होने के भगीरथ प्रयास चल रहे है। प्रथम क्रमांक, प्रथम दस स्थान, प्रथम एक सौ स्थान आदि की भाषा इतनी सहज हो गई है कि अब उसमें कुछ भी नया या असाधारण नहीं लगता । विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिये, नौकरी में नियुक्ति के लिये, किसी भी विषय का पुरस्कार प्राप्त करने के लिये, अपने उत्पाद की बिक्री के लिये गलाकाट स्पर्धा में उतरना पड़ता है। सर्वश्रेष्ठ स्थान बनाने के लिये स्पर्धा में भी बने रहना पड़ता है। स्पर्धा में जीतना युद्ध में जीतने से भी अधिक महत्त्व रखता है।
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स्पर्धा का मानसिक स्थिति पर बहुत विपरीत प्रभाव होता है। मानसिक स्वस्थता, शान्ति, आश्वस्ति, सन्तुष्टि आदि का लेशमात्र अनुभव नहीं होता है। इसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं । मधुमेह उच्च रक्तचाप, हृदयविकार, यहाँ तक कि
    
==References==
 
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