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ज्ञान का अर्थ है, जानना<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ‌‍४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। परन्तु इतने मात्र से अर्थबोध नहीं होता। वास्तव में ज्ञान को अध्यात्म के प्रकाश में ही समझना होता है। ज्ञान ब्रह्म का स्वरूप है। <blockquote>"सत्य ज्ञानमनन्तम ब्रह्म।"<ref>तैत्तिरीय उपनिषद् 2.1</ref></blockquote><blockquote>ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है। इसका अर्थ है ज्ञान अर्थात्‌ ब्रह्म का ज्ञान।</blockquote>ब्रह्म क्या है? ब्रह्म तत्व है जो इस सृष्टि का निमित्त कारण और उपादान कारण है। निमित्त कारण वह है जो सृष्टि की उत्पत्ति में कर्ता या स्रष्टा की भूमिका निभाता है। ब्रह्म सृष्टि का सृजन करता है। उपादान कारण वह है जिससे सृष्टि का सूजन होता है। ब्रह्म से ही सृष्टि का सृजन होता है। अर्थात्‌ सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म को ही आत्मा या आत्मतत्व कहा जाता है। एक अर्थ में इसे परब्रह्म या परमात्मा भी कहा जाता है। सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है। अतः परमात्मा का और सृष्टि का स्वरूप जानना ही ज्ञान है।
 
ज्ञान का अर्थ है, जानना<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ‌‍४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। परन्तु इतने मात्र से अर्थबोध नहीं होता। वास्तव में ज्ञान को अध्यात्म के प्रकाश में ही समझना होता है। ज्ञान ब्रह्म का स्वरूप है। <blockquote>"सत्य ज्ञानमनन्तम ब्रह्म।"<ref>तैत्तिरीय उपनिषद् 2.1</ref></blockquote><blockquote>ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है। इसका अर्थ है ज्ञान अर्थात्‌ ब्रह्म का ज्ञान।</blockquote>ब्रह्म क्या है? ब्रह्म तत्व है जो इस सृष्टि का निमित्त कारण और उपादान कारण है। निमित्त कारण वह है जो सृष्टि की उत्पत्ति में कर्ता या स्रष्टा की भूमिका निभाता है। ब्रह्म सृष्टि का सृजन करता है। उपादान कारण वह है जिससे सृष्टि का सूजन होता है। ब्रह्म से ही सृष्टि का सृजन होता है। अर्थात्‌ सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म को ही आत्मा या आत्मतत्व कहा जाता है। एक अर्थ में इसे परब्रह्म या परमात्मा भी कहा जाता है। सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है। अतः परमात्मा का और सृष्टि का स्वरूप जानना ही ज्ञान है।
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ब्रह्म के स्वरूप को जानने का अर्थ है, अपने स्वरूप को जानना क्योंकि हम भी ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म ने स्वयं में से जिस सृष्टि का सृजन किया उसी सृष्टि के हम भी अंग हैं, इसलिए हमारा भी सही स्वरूप ब्रह्म है। इस तथ्य का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है और यही ज्ञान का परम अर्थ है।
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ब्रह्म के स्वरूप को जानने का अर्थ है, अपने स्वरूप को जानना क्योंकि हम भी ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म ने स्वयं में से जिस सृष्टि का सृजन किया उसी सृष्टि के हम भी अंग हैं, अतः हमारा भी सही स्वरूप ब्रह्म है। इस तथ्य का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है और यही ज्ञान का परम अर्थ है।
    
जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टि का ज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान के दो आयाम हुए। एक है ब्रह्मज्ञान और दूसरा है सृष्टिज्ञान। सृष्टिज्ञान ही लौकिक ज्ञान है। प्रचलित अर्थ में शिक्षा का क्षेत्र लौकिक ज्ञान का क्षेत्र है।
 
जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टि का ज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान के दो आयाम हुए। एक है ब्रह्मज्ञान और दूसरा है सृष्टिज्ञान। सृष्टिज्ञान ही लौकिक ज्ञान है। प्रचलित अर्थ में शिक्षा का क्षेत्र लौकिक ज्ञान का क्षेत्र है।
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परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है। कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है। इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप संवेदन है। संवेदन को अनुभव भी कहते हैं। मन विचार करता है। चिंतन, मनन, कल्पना, विचार का क्षेत्र है। इसलिए मन के स्तर पर ज्ञान विचार है। बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान। यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान। व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान, विवेक कहलाता है। पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है। इसे विज्ञान भी कहते हैं। यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है। विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है।
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परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है। कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप संवेदन है। संवेदन को अनुभव भी कहते हैं। मन विचार करता है। चिंतन, मनन, कल्पना, विचार का क्षेत्र है। अतः मन के स्तर पर ज्ञान विचार है। बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान। यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान। व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान, विवेक कहलाता है। पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है। इसे विज्ञान भी कहते हैं। यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है। विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है।
    
विज्ञान प्रमुख रूप से विश्व के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है। नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है। पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है। उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है। आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है।
 
विज्ञान प्रमुख रूप से विश्व के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है। नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है। पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है। उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है। आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है।
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== धर्म ==
 
== धर्म ==
इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। इसलिए धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है इसलिए उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं।
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इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। अतः धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है अतः उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं।
    
पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
 
पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
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== वैश्विकता ==
 
== वैश्विकता ==
वैश्विकता वर्तमान समय की लोकप्रिय संकल्पना है। | सबको सबकुछ वैश्विक स्तर का चाहिये। वैश्विक मापदण्ड श्रेष्ठ मापदण्ड माने जाते हैं। लोग कहते हैं कि संचार माध्यमों के प्रताप से हम विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है यह देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उसकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यातायात के दृतगति साधनों के कारण से विश्व में कहीं भी जाना हो तो चौबीस घण्टे के अन्दर अन्दर पहुंच सकते हैं। कोई भी वस्तु कहीं भी भेजना चाहते हैं या कहीं से भी मँगवाना चाहते हैं तो वह सम्भव है। विश्व अपने टीवी के पर्दे में और टीवी अपने बैठक कक्ष में या शयनकक्ष में समा गया है। यह केवल जानकारी का ही प्रश्न नहीं है। देश एकदूसरे के इतने समीप आ गये हैं कि वे एकदसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। विश्व अब एक ग्राम बन गया है। इसलिए अब एक ही विश्वसंस्कृति की बात करनी चाहिये। अब राष्ट्रों की नहीं विश्वनागरिकता की बात करनी चाहिये   
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वैश्विकता वर्तमान समय की लोकप्रिय संकल्पना है। | सबको सबकुछ वैश्विक स्तर का चाहिये। वैश्विक मापदण्ड श्रेष्ठ मापदण्ड माने जाते हैं। लोग कहते हैं कि संचार माध्यमों के प्रताप से हम विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है यह देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उसकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यातायात के दृतगति साधनों के कारण से विश्व में कहीं भी जाना हो तो चौबीस घण्टे के अन्दर अन्दर पहुंच सकते हैं। कोई भी वस्तु कहीं भी भेजना चाहते हैं या कहीं से भी मँगवाना चाहते हैं तो वह सम्भव है। विश्व अपने टीवी के पर्दे में और टीवी अपने बैठक कक्ष में या शयनकक्ष में समा गया है। यह केवल जानकारी का ही प्रश्न नहीं है। देश एकदूसरे के इतने समीप आ गये हैं कि वे एकदसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। विश्व अब एक ग्राम बन गया है। अतः अब एक ही विश्वसंस्कृति की बात करनी चाहिये। अब राष्ट्रों की नहीं विश्वनागरिकता की बात करनी चाहिये   
    
अब राष्ट्र की बात करना संकुचितता मानी जाती है। शिक्षा में पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक वैश्विक स्तर के संस्थान खुल गये हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ व्यापार कर रही हैं। भौतिक पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा तक के लिए वैश्विक स्तर के मानक स्थापित हो गये हैं। लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए एक देश से दूसरे देश  में आवनजावन सरलता से करते हैं। अब विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति, विश्वनागरिकता की बात हो रही है।   
 
अब राष्ट्र की बात करना संकुचितता मानी जाती है। शिक्षा में पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक वैश्विक स्तर के संस्थान खुल गये हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ व्यापार कर रही हैं। भौतिक पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा तक के लिए वैश्विक स्तर के मानक स्थापित हो गये हैं। लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए एक देश से दूसरे देश  में आवनजावन सरलता से करते हैं। अब विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति, विश्वनागरिकता की बात हो रही है।   
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भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है। भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में अधार्मिकता की छाप दिखाई देती है। इसलिए इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा।   
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भारत में वैश्विकता का आकर्षण कुछ अधिक हीं दिखाई देता है। भाषा से लेकर सम्पूर्ण जीवनशैली में अधार्मिकता की छाप दिखाई देती है। अतः इस विषय में जरा स्पष्टता करने की आवश्यकता है। इस वैश्विकता का मूल कहाँ है यह जानना बहुत उपयोगी रहेगा।   
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पांच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा आरम्भ की। विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई। यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया। इसके बाद अफ्रीका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से आरम्भ हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था। इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला। पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था। आज भी है। इसलिए पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण की योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं। विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं। भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है। यह अन्तर हमें समझ लेना चाहिये।   
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पांच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वयात्रा आरम्भ की। विश्व के पूर्वी देशों की समृद्धि का उन्हें आकर्षण था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति हुई। यन्त्रों का आविष्कार हुआ, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन उत्पादनों के लिये उन देशों को बाजार चाहिये था। उससे भी पूर्व यूरोप के देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। अठारहवीं शताब्दी में अमेरीका स्वतन्त्र देश हो गया। इसके बाद अफ्रीका और एशिया के देशों में बाजार स्थापित करने का कार्य और तेज गति से आरम्भ हुआ। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित होने लगा। ब्रिटीशों का मुख्य उद्देश्य भारत की समृद्धि को लूटना ही था। इस कारण से भारत में लूट और अत्याचार का दौर चला। पश्चिम का चिन्तन अर्थनिष्ठ था। आज भी है। अतः पश्चिम को अब विश्वभर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करना है इस उद्देश्य से यह वैश्वीकरण की योजना हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक आदि उसके साधन हैं। विज्ञापन, करार, विश्वव्यापार संगठन आदि उसके माध्यम हैं। भारत को वैश्विकता का बहुत आकर्षण है। परन्तु आज जिस वैश्विकता का प्रचार चल रहा है वह आर्थिक है। जबकि भारत की वैश्विकता सांस्कृतिक है। यह अन्तर हमें समझ लेना चाहिये।   
    
भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
 
भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
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भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल धार्मिक नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
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भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल धार्मिक नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है अतः भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
    
आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है {{Citation needed}}  
 
आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है {{Citation needed}}  
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== वैज्ञानिकता ==
 
== वैज्ञानिकता ==
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वैश्विकता के समान ही आज बौद्धिकों के लिये लुभावनी संकल्पना वैज्ञानिकता की है। सब कुछ वैज्ञानिक होना चाहिये। जो भी प्रक्रिया, पद्धति, पदार्थ, अर्थघटन वैज्ञानिक नहीं है वह त्याज्य है। बौद्धिकों का अनुसरण कर सामान्यजन भी वैज्ञानिकता की दुहाई देते हैं। परन्तु यह वैज्ञानिकता क्या है ? आज जिसे विज्ञान कहा जाता है वह भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जो परखा जाता है वहीं वैज्ञानिक है। इस निकष पर यदि हमारे उत्सव, विधिविधान, रीतिरिवाज, अनुष्ठान खरे नहीं उतरते तो वे अवैज्ञानिक हैं इसलिए त्याज्य हैं, अंधश्रद्धा से युक्त हैं ऐसा करार दिया जाता है। उदाहरण के लिये हमारे पारम्परिक यज्ञों में होमा जाने वाला घी बरबाद हो रहा है। किसी गरीब को खिलाया जाना यज्ञ में होमने से बेहतर है ऐसा कहा जाता है। शिखा रखना | मूर्खता है अथवा अप्रासंगिक है ऐसा कहा जाता है। ऐसे तो सेंकड़ों उदाहरण हैं।
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वैश्विकता के समान ही आज बौद्धिकों के लिये लुभावनी संकल्पना वैज्ञानिकता की है। सब कुछ वैज्ञानिक होना चाहिये। जो भी प्रक्रिया, पद्धति, पदार्थ, अर्थघटन वैज्ञानिक नहीं है वह त्याज्य है। बौद्धिकों का अनुसरण कर सामान्यजन भी वैज्ञानिकता की दुहाई देते हैं। परन्तु यह वैज्ञानिकता क्या है ? आज जिसे विज्ञान कहा जाता है वह भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जो परखा जाता है वहीं वैज्ञानिक है। इस निकष पर यदि हमारे उत्सव, विधिविधान, रीतिरिवाज, अनुष्ठान खरे नहीं उतरते तो वे अवैज्ञानिक हैं अतः त्याज्य हैं, अंधश्रद्धा से युक्त हैं ऐसा करार दिया जाता है। उदाहरण के लिये हमारे पारम्परिक यज्ञों में होमा जाने वाला घी बरबाद हो रहा है। किसी गरीब को खिलाया जाना यज्ञ में होमने से बेहतर है ऐसा कहा जाता है। शिखा रखना | मूर्खता है अथवा अप्रासंगिक है ऐसा कहा जाता है। ऐसे तो सेंकड़ों उदाहरण हैं।
    
इसमें बहुत अधूरापन है यह बात समझ लेनी चाहिये। विश्व में केवल भौतिक पदार्थ ही नहीं हैं। भौतिकता से परे बहुत बड़ा विश्व है। यह मन और बुद्धि की दुनिया है जो भौतिक विश्व से सूक्ष्म है। सूक्ष्म का अर्थ लघु नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। मन और बुद्धि का विश्व भौतिक विश्व से अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। कठिनाई यह है कि आज का विज्ञान मन और बुद्धि के विश्व को भी भौतिक विश्व के ही नियम लागू करता है। मनोविज्ञान के परीक्षण भौतिक विज्ञान के निकष पर बनाते हमने देखे ही हैं। यह तो उल्टी बात है। भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, कल्पनाओं, सृजन आदि की दुनिया भौतिक विज्ञान के मापदंडों से कहीं ऊपर है।
 
इसमें बहुत अधूरापन है यह बात समझ लेनी चाहिये। विश्व में केवल भौतिक पदार्थ ही नहीं हैं। भौतिकता से परे बहुत बड़ा विश्व है। यह मन और बुद्धि की दुनिया है जो भौतिक विश्व से सूक्ष्म है। सूक्ष्म का अर्थ लघु नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। मन और बुद्धि का विश्व भौतिक विश्व से अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। कठिनाई यह है कि आज का विज्ञान मन और बुद्धि के विश्व को भी भौतिक विश्व के ही नियम लागू करता है। मनोविज्ञान के परीक्षण भौतिक विज्ञान के निकष पर बनाते हमने देखे ही हैं। यह तो उल्टी बात है। भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, कल्पनाओं, सृजन आदि की दुनिया भौतिक विज्ञान के मापदंडों से कहीं ऊपर है।
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इसलिए आज के बौद्धिक विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकता बहुत अधूरे हैं। वे केवल अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार कर सकते हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के लिये ये निकष बहुत कम पड़ते हैं। भारत में भी विज्ञान संज्ञा है। वह बहुत प्रतिष्ठित भी है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है शास्त्रीयता। शास्त्रों को अनुभूति का आधार होता है। शास्त्र आत्मनिष्ठ बुद्धि का आविष्कार हैं। इसलिए शास्त्रप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है।  
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अतः आज के बौद्धिक विश्व के विज्ञान और वैज्ञानिकता बहुत अधूरे हैं। वे केवल अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार कर सकते हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के लिये ये निकष बहुत कम पड़ते हैं। भारत में भी विज्ञान संज्ञा है। वह बहुत प्रतिष्ठित भी है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है शास्त्रीयता। शास्त्रों को अनुभूति का आधार होता है। शास्त्र आत्मनिष्ठ बुद्धि का आविष्कार हैं। अतः शास्त्रप्रामाण्य की प्रतिष्ठा है।  
    
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं<blockquote>यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।</blockquote><blockquote>न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।</blockquote>अर्थात जो शास्त्र के निर्देश की उपेक्षा कर स्वैर आचरण करता है उसे सुख, सिद्धि या परम गति प्राप्त नहीं होती।
 
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं<blockquote>यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।</blockquote><blockquote>न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।</blockquote>अर्थात जो शास्त्र के निर्देश की उपेक्षा कर स्वैर आचरण करता है उसे सुख, सिद्धि या परम गति प्राप्त नहीं होती।
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== अध्यात्म ==
 
== अध्यात्म ==
अध्यात्म भारत की खास संकल्पना है। सृष्टिरचना के मूल में आत्मतत्व है। आत्मतत्व अव्यक्त, अपरिवर्तनीय, अमूर्त संकल्पना है जिसमें से यह व्यक्त सृष्टि निर्माण हुई है। अव्यक्त आत्मतत्व ही व्यक्त सृष्टि में रूपान्तरित हुआ है। आत्मतत्व और सृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त आत्मतत्व से व्यक्त सृष्टि क्यों बनी इसका कारण केवल आत्मतत्व का संकल्प है। इस सृष्टि में सर्वत्र आत्मतत्व अनुस्युत है इसलिए सृष्टि के सारे सम्बन्धों का, सर्व व्यवहारों का, सर्व व्यवस्थाओं का मूल अधिष्ठान आत्मतत्व है।
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अध्यात्म भारत की खास संकल्पना है। सृष्टिरचना के मूल में आत्मतत्व है। आत्मतत्व अव्यक्त, अपरिवर्तनीय, अमूर्त संकल्पना है जिसमें से यह व्यक्त सृष्टि निर्माण हुई है। अव्यक्त आत्मतत्व ही व्यक्त सृष्टि में रूपान्तरित हुआ है। आत्मतत्व और सृष्टि में कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त आत्मतत्व से व्यक्त सृष्टि क्यों बनी इसका कारण केवल आत्मतत्व का संकल्प है। इस सृष्टि में सर्वत्र आत्मतत्व अनुस्युत है अतः सृष्टि के सारे सम्बन्धों का, सर्व व्यवहारों का, सर्व व्यवस्थाओं का मूल अधिष्ठान आत्मतत्व है।
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आत्मतत्व के अधिष्ठान पर जो भी स्थित है वह आध्यात्मिक है। यह उसकी भावात्मक नहीं अपितु बौद्धिक व्याख्या है। इसलिए आध्यात्मिकता भगवे वस्त्र, संन्यास, मठ, मन्दिर या संसारत्याग से जुड़ी हुई संकल्पना नहीं है अपितु संसार के सारे व्यवहारों से जुड़ा हुआ तत्व है। आज इसी बात का घालमेल हुआ है। इस संकल्पना के कारण सृष्टि की सारी रचनाओं तथा व्यवस्थाओं में एकात्मता की कल्पना की गई है। जहां जहां भी एकात्मता है, वहाँ आध्यात्मिक अधिष्ठान है ऐसा हम कह सकते हैं।
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आत्मतत्व के अधिष्ठान पर जो भी स्थित है वह आध्यात्मिक है। यह उसकी भावात्मक नहीं अपितु बौद्धिक व्याख्या है। अतः आध्यात्मिकता भगवे वस्त्र, संन्यास, मठ, मन्दिर या संसारत्याग से जुड़ी हुई संकल्पना नहीं है अपितु संसार के सारे व्यवहारों से जुड़ा हुआ तत्व है। आज इसी बात का घालमेल हुआ है। इस संकल्पना के कारण सृष्टि की सारी रचनाओं तथा व्यवस्थाओं में एकात्मता की कल्पना की गई है। जहां जहां भी एकात्मता है, वहाँ आध्यात्मिक अधिष्ठान है ऐसा हम कह सकते हैं।
    
भारत में गृहव्यवस्था, समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था का मूल अधिष्ठान अध्यात्म ही है। अत: आध्यात्मिक अर्थशास्त्र कहने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। भारत का युगों का इतिहास प्रमाण है कि इस संकल्पना ने भारत की व्यवस्थाओं को इतना उत्तम बनाया है और व्यवहारों को इतना अर्थपूर्ण और मानवीय बनाया है कि वह विश्व में सबसे अधिक आयुवाला तथा समृद्ध राष्ट्र बना है। इस संकल्पना के कारण भारत की हर व्यवस्था में समरसता दिखाई देती है क्योंकि सर्वत्र आत्मतत्व व्याप्त होने के कारण सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे से जुड़ा हुआ है और दूसरे से प्रभावित होता है, ऐसी समझ बनती है। समग्रता में विचार करने के कारण से और उसके आधार पर व्यवस्थायें बनाने से कम से कम संकट निर्माण होते हैं यह व्यवहार का नियम है।
 
भारत में गृहव्यवस्था, समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था का मूल अधिष्ठान अध्यात्म ही है। अत: आध्यात्मिक अर्थशास्त्र कहने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। भारत का युगों का इतिहास प्रमाण है कि इस संकल्पना ने भारत की व्यवस्थाओं को इतना उत्तम बनाया है और व्यवहारों को इतना अर्थपूर्ण और मानवीय बनाया है कि वह विश्व में सबसे अधिक आयुवाला तथा समृद्ध राष्ट्र बना है। इस संकल्पना के कारण भारत की हर व्यवस्था में समरसता दिखाई देती है क्योंकि सर्वत्र आत्मतत्व व्याप्त होने के कारण सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे से जुड़ा हुआ है और दूसरे से प्रभावित होता है, ऐसी समझ बनती है। समग्रता में विचार करने के कारण से और उसके आधार पर व्यवस्थायें बनाने से कम से कम संकट निर्माण होते हैं यह व्यवहार का नियम है।
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वर्तमान बौद्धिक संभ्रम के परिणामस्वरूप हम भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग करते हैं और हर स्थिति को दो भागों में बांटकर ही देखते हैं। हमारी बौद्धिक कठिनाई यह है कि हम मानते हैं कि जो भौतिक नहीं है वह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक है वह भौतिक नहीं है। वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग ही नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है।
 
वर्तमान बौद्धिक संभ्रम के परिणामस्वरूप हम भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग करते हैं और हर स्थिति को दो भागों में बांटकर ही देखते हैं। हमारी बौद्धिक कठिनाई यह है कि हम मानते हैं कि जो भौतिक नहीं है वह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक है वह भौतिक नहीं है। वास्तव में भौतिक और आध्यात्मिक ऐसे दो विभाग ही नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है।
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इसलिए विचार या तो आध्यात्मिक होता है या अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता। कारण स्पष्ट है। आध्यात्मिक का व्यक्त रूप ही भौतिक है। इसलिए जिस प्रकार आध्यात्मिक अर्थशास्त्र संभव है उसी प्रकार आध्यात्मिक भौतिक विज्ञान भी सम्भव है।
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अतः विचार या तो आध्यात्मिक होता है या अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता। कारण स्पष्ट है। आध्यात्मिक का व्यक्त रूप ही भौतिक है। अतः जिस प्रकार आध्यात्मिक अर्थशास्त्र संभव है उसी प्रकार आध्यात्मिक भौतिक विज्ञान भी सम्भव है।
    
भारत में और पश्चिम में अन्तर यह है कि पश्चिम अनाध्यात्मिक भौतिक है और भारत आध्यात्मिक भौतिक है। आध्यात्मिक भौतिक होने के कारण भारत में समृद्धि के साथ साथ संस्कृति भी विकसित होती है जबकि पश्चिम में संस्कृति को छोड़कर ही समृद्धि सम्भव है। समृद्धि और संस्कृति को एक साथ प्राप्त करने के लिये आध्यात्मिकता की बराबरी कर सके ऐसी कोई संकल्पना नहीं है।
 
भारत में और पश्चिम में अन्तर यह है कि पश्चिम अनाध्यात्मिक भौतिक है और भारत आध्यात्मिक भौतिक है। आध्यात्मिक भौतिक होने के कारण भारत में समृद्धि के साथ साथ संस्कृति भी विकसित होती है जबकि पश्चिम में संस्कृति को छोड़कर ही समृद्धि सम्भव है। समृद्धि और संस्कृति को एक साथ प्राप्त करने के लिये आध्यात्मिकता की बराबरी कर सके ऐसी कोई संकल्पना नहीं है।
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भारत के बौद्धिक जगत के लिये यह आध्यात्मिक और भौतिक का समन्वय स्थापित करना ही बड़ी चुनौती है। कई पीढ़ियों से बौद्धिक क्षेत्र, और उसके मूल में शिक्षाक्षेत्र उल्टी दिशा में चला है इसलिए वह कठिन तो है परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है।
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भारत के बौद्धिक जगत के लिये यह आध्यात्मिक और भौतिक का समन्वय स्थापित करना ही बड़ी चुनौती है। कई पीढ़ियों से बौद्धिक क्षेत्र, और उसके मूल में शिक्षाक्षेत्र उल्टी दिशा में चला है अतः वह कठिन तो है परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है।
    
== संस्कृति ==
 
== संस्कृति ==
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युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं छोड़ना यह धार्मिक संस्कृति की रीत है। भूतमात्र का हित चाहना यह धार्मिक संस्कृति की रीत है। भोजन को ब्रह्म मानना और उसे जठराग्नि को आहुती देने के रूप में ग्रहण करना धार्मिक संस्कृति की रीत है। धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें हैं। इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है।
 
युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं छोड़ना यह धार्मिक संस्कृति की रीत है। भूतमात्र का हित चाहना यह धार्मिक संस्कृति की रीत है। भोजन को ब्रह्म मानना और उसे जठराग्नि को आहुती देने के रूप में ग्रहण करना धार्मिक संस्कृति की रीत है। धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें हैं। इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है।
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संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है। जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। सौन्दर्य की अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में अभिव्यक्त होती है। इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस है, आनन्द है, सौन्दर्य है। जीवन में सत्य और धर्म की अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना धार्मिक संस्कृति की विशेषता है।
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संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है। जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। सौन्दर्य की अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में अभिव्यक्त होती है। अतः सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस है, आनन्द है, सौन्दर्य है। जीवन में सत्य और धर्म की अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना धार्मिक संस्कृति की विशेषता है।
    
== संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध ==
 
== संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध ==
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# शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
 
# शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
 
# शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
 
# शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
यह शिक्षा का धार्मिक दर्शन है। भारत में इसी के अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अधार्मिक कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अधार्मिककरण दो शतकों से चल रहा है। आरम्भ हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अधार्मिककरण भारत की मुख्य धारा की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अधार्मिक है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के धार्मिककरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
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यह शिक्षा का धार्मिक दर्शन है। भारत में इसी के अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है अतः तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अधार्मिक कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अधार्मिककरण दो शतकों से चल रहा है। आरम्भ हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अधार्मिककरण भारत की मुख्य धारा की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अधार्मिक है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। अतः शिक्षा के धार्मिककरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
    
मुख्य प्रवाह की शिक्षा अधार्मिक होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी धार्मिक और अधार्मिक की चर्चा आरम्भ हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में धार्मिककरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में धार्मिक शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।
 
मुख्य प्रवाह की शिक्षा अधार्मिक होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी धार्मिक और अधार्मिक की चर्चा आरम्भ हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में धार्मिककरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में धार्मिक शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।

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