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परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है। कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप संवेदन है। संवेदन को अनुभव भी कहते हैं। मन विचार करता है। चिंतन, मनन, कल्पना, विचार का क्षेत्र है। अतः मन के स्तर पर ज्ञान विचार है। बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान। यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान। व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान, विवेक कहलाता है। पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है। इसे विज्ञान भी कहते हैं। यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है। विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है।
 
परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है। कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। अतः ज्ञान का एक स्वरूप संवेदन है। संवेदन को अनुभव भी कहते हैं। मन विचार करता है। चिंतन, मनन, कल्पना, विचार का क्षेत्र है। अतः मन के स्तर पर ज्ञान विचार है। बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान। यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान। व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान, विवेक कहलाता है। पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है। इसे विज्ञान भी कहते हैं। यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है। विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है।
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विज्ञान प्रमुख रूप से विश्व के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है। नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है। पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है। उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है। आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है।
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[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|विज्ञान]] प्रमुख रूप से विश्व के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है। नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है। पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है। उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है। आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है।
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विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है। अहंकार के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कर्ताभाव है। अत: अहंभाव भी ज्ञान का ही स्वरूप है।
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[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|विज्ञान]] बुद्धि का क्षेत्र है। अहंकार के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कर्ताभाव है। अत: अहंभाव भी ज्ञान का ही स्वरूप है।
    
चित्त पर होने वाले संस्कार भी ज्ञान का एक स्वरूप है। ये सारे ज्ञान के विभिन्न लौकिक स्वरूप होने पर भी ज्ञान मूलरूप से ब्रह्मज्ञान है। वह इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से होने वाले ज्ञान से परे है। वह अनुभूति का क्षेत्र है। अनुभूति के स्तर पर ज्ञान शुद्ध ज्ञान है। शेष सारे ज्ञान के विभिन्न भौतिक स्वरूप है। भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर होने वाला ज्ञान श्रेष्ठ स्वरूप का ज्ञान है। विभिन्न स्तरों पर विभिन्न स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उन करणों का अभ्यास करना होता है और अभ्यास से अपने आपको सक्षम बनाना होता है। ज्ञान का सही स्वरूप जानने के बाद ज्ञानार्जन कैसे होता है, इसका पता चलता है।
 
चित्त पर होने वाले संस्कार भी ज्ञान का एक स्वरूप है। ये सारे ज्ञान के विभिन्न लौकिक स्वरूप होने पर भी ज्ञान मूलरूप से ब्रह्मज्ञान है। वह इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से होने वाले ज्ञान से परे है। वह अनुभूति का क्षेत्र है। अनुभूति के स्तर पर ज्ञान शुद्ध ज्ञान है। शेष सारे ज्ञान के विभिन्न भौतिक स्वरूप है। भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर होने वाला ज्ञान श्रेष्ठ स्वरूप का ज्ञान है। विभिन्न स्तरों पर विभिन्न स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उन करणों का अभ्यास करना होता है और अभ्यास से अपने आपको सक्षम बनाना होता है। ज्ञान का सही स्वरूप जानने के बाद ज्ञानार्जन कैसे होता है, इसका पता चलता है।
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== धर्म ==
 
== धर्म ==
इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। अतः धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है अतः उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं।
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इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। तथापि वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। अतः धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है अतः उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं।
    
पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
 
पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
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भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
 
भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की। भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं। विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं। विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया। भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया।   
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भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल धार्मिक नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है अतः भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
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भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल धार्मिक नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो सदा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है अतः भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
    
आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है {{Citation needed}}  
 
आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है {{Citation needed}}  
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वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। सभ्यता का विकास कैसे होता है? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है।
 
वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। सभ्यता का विकास कैसे होता है? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है।
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संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
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संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है तथापि वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि।
    
उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना आरम्भ किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
 
उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना आरम्भ किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ।
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यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता। उसके लिए जो व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं। इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः मानव की कल्पकता है। उसके कारण नया नया निर्माण होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह समाजव्यापी होती गयीं। आम जनता उसमें अधिक सुविधा अनुभव करने लगी। उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत हुई। इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं।
 
यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता। उसके लिए जो व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं। इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः मानव की कल्पकता है। उसके कारण नया नया निर्माण होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह समाजव्यापी होती गयीं। आम जनता उसमें अधिक सुविधा अनुभव करने लगी। उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत हुई। इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं।
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शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान। भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य हैं। भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर निभाता गया। धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया। उससे सार्वजनिक कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ। भारत के इस पुरातन देश में प्राचीन काल से ही यह चलता आया। आचार्य चाणक्य के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उसी प्रकार यहाँ आये विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त मात्रा में है। उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता उच्च कोटि की थी।
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शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान। भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य हैं। भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर निभाता गया। धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग से अधिक लोगोंं को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया। उससे सार्वजनिक कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ। भारत के इस पुरातन देश में प्राचीन काल से ही यह चलता आया। आचार्य चाणक्य के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उसी प्रकार यहाँ आये विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त मात्रा में है। उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता उच्च कोटि की थी।
    
इसी प्रकार का है विद्यादान का गुण। उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर। क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है कि तत्कालीन धार्मिक सभ्यता अप्रतिम थी। दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया। इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित करता है। जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है। तब उद्धार समष्टि का होता है। वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध। संस्कृति के कारण वृद्धिगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है।
 
इसी प्रकार का है विद्यादान का गुण। उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर। क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ। बड़े बड़े विद्यालय निर्मित हुए। आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से शताधिक आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, काशीपुरम् जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ। उनका उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है कि तत्कालीन धार्मिक सभ्यता अप्रतिम थी। दृष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का विचार किया। इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का सभ्यता की ओर विकास होता रहा है। सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित करता है। जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से पुण्य कमाने का रहता है। दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है। तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है। तब उद्धार समष्टि का होता है। वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध। संस्कृति के कारण वृद्धिगत ज्ञान के भरोसे सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सर्वसमावेशी हो जाती है।

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