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६. शिक्षा की व्यापक और गहरी समस्या को समझने के लिये हर संगठन में अपनी ही एक व्यवस्था होनी चाहिये । संगठन के प्रमुख कार्यकर्ताओं को इसकी समझ प्राप्त करनी चाहिये । जिन्हें ऐसी समझ है ऐसे बाहर के लोग सहायक तो हो सकते हैं परन्तु प्रमुख भूमिका संगठन के लोगों की ही बननी चाहिये । आज संगठनों में भी संगठनात्मक और वैचारिक ऐसे दो भाग बन गये हैं । दो व्यवस्थायें भिन्न भिन्न लोगों के पास होने से क्रियान्वयन के स्तर पर सर्वत्र कठिनाई दिखाई देती है।
 
६. शिक्षा की व्यापक और गहरी समस्या को समझने के लिये हर संगठन में अपनी ही एक व्यवस्था होनी चाहिये । संगठन के प्रमुख कार्यकर्ताओं को इसकी समझ प्राप्त करनी चाहिये । जिन्हें ऐसी समझ है ऐसे बाहर के लोग सहायक तो हो सकते हैं परन्तु प्रमुख भूमिका संगठन के लोगों की ही बननी चाहिये । आज संगठनों में भी संगठनात्मक और वैचारिक ऐसे दो भाग बन गये हैं । दो व्यवस्थायें भिन्न भिन्न लोगों के पास होने से क्रियान्वयन के स्तर पर सर्वत्र कठिनाई दिखाई देती है।
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७. शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया, उसके उद्देश्य, उसके परिणाम आदि ठीक से समझने के बाद संगठन के विभिन्न कामों और रचनाओं का उसके साधन के रूप में कया स्वरूप रहेगा इसका विचार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । यह कार्य बहुत कठिन है क्योंकि वह व्यावहारिक है । वैचारिक कार्य से व्यावहारिक कार्य अधिक कठिन होता ही है । परन्तु संगठनों का कार्य इसलिये और भी कठिन हो जाता है क्योंकि वह वर्तमान प्रवाह से विपरीत जाना होता है । प्रवाह से विपरीत जाने पर विस्तार कार्य प्रभावित होता है । विस्तार और व्याप कम होना किसी भी संगठन को स्वीकार्य नहीं होता ।
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७. शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया, उसके उद्देश्य, उसके परिणाम आदि ठीक से समझने के बाद संगठन के विभिन्न कामों और रचनाओं का उसके साधन के रूप में क्या स्वरूप रहेगा इसका विचार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । यह कार्य बहुत कठिन है क्योंकि वह व्यावहारिक है । वैचारिक कार्य से व्यावहारिक कार्य अधिक कठिन होता ही है । परन्तु संगठनों का कार्य इसलिये और भी कठिन हो जाता है क्योंकि वह वर्तमान प्रवाह से विपरीत जाना होता है । प्रवाह से विपरीत जाने पर विस्तार कार्य प्रभावित होता है । विस्तार और व्याप कम होना किसी भी संगठन को स्वीकार्य नहीं होता ।
    
८. इसीसे यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का सन्तुलन कैसे बिठायें । दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता है । दोनों का समान महत्त्व है । एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता । परन्तु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है । विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है, विकास को आनुषंगिक, इसलिये अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है । विकास उपेक्षित हो जाता है ।
 
८. इसीसे यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का सन्तुलन कैसे बिठायें । दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता है । दोनों का समान महत्त्व है । एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता । परन्तु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है । विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है, विकास को आनुषंगिक, इसलिये अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है । विकास उपेक्षित हो जाता है ।

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