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जब उस ओर  मैंने अपना पहला कदम बढ़ाया तभी से ऐसे ऐसे अनुभव आने लगे की अगर उसे लेख पर उतरना शुरू करू तो पूरी किताब बन सकती है । हमारे दादा जी कहते थी, कि अगर आप कोई कार्य अच्छे मन और अच्छे भाव से शुरू करे  तो भगवान हर रूप में आपकी मदत करने के लिए अवश्य आता है और जैसी आपकी नीयत होती है वैसे लोग ही आपको मार्ग में मिलते है ।  
 
जब उस ओर  मैंने अपना पहला कदम बढ़ाया तभी से ऐसे ऐसे अनुभव आने लगे की अगर उसे लेख पर उतरना शुरू करू तो पूरी किताब बन सकती है । हमारे दादा जी कहते थी, कि अगर आप कोई कार्य अच्छे मन और अच्छे भाव से शुरू करे  तो भगवान हर रूप में आपकी मदत करने के लिए अवश्य आता है और जैसी आपकी नीयत होती है वैसे लोग ही आपको मार्ग में मिलते है ।  
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'''ज्ञान प्राप्ति कितने प्रकार से होती है ?'''
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== ज्ञान प्राप्ति कितने प्रकार से होती है ? ==
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ज्ञान प्राप्ति प्रायः दो  प्रकार की होती है, '''प्रथम है''' आकस्मिक या वातावरण द्वारा प्राप्त ज्ञान, जैसे अभिमन्यु का चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान, या कई बार हमारे मुख से निकल जाता हैं की  अरे यह इसे कैसे आता है या पता है हमने तो कभी सिखाया या बताया ही नहीं । ऐसा ज्ञान जो  कहीं न कहीं अकस्मात दिखाई देता है या ऐसी आदत जो हम चाह  कर भी बदल नहीं सकते, हमारे पूर्वजो के गुण जो हमारे अंदर आ जाते है ।
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ज्ञान प्राप्ति प्रायः दो  प्रकार की होती है ''',प्रथम है''' आकस्मिक या वातावरण द्वारा प्राप्त ज्ञान, जैसे अभिमन्युं का चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान , या कई बार हमारे मुख से निकल जाता हैं की  अरे....... यह इसे कैसे आता है या पता है हमने तो कभी सिखाया या बताया ही नहीं | ऐसा ज्ञान जो  कही न कही अकस्मात दिखाई देता है या ऐसी आदत जो हम चाह  कर भी बदल नहीं सकते | जो हमारे पूर्वजो के गुण जो हमारे अंदर आ जाते है |
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'''द्वितीय ज्ञान है''' समाज या हमारे आस-पास के अनुभवों का ज्ञान जिसे हम दूसरो के माध्यम से सीखते है। जैसे विद्यालय शिक्षा या माता पिता द्वारा सिखाया गया ज्ञान या समाज में आचरण करने का ज्ञान जिसे सीखने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है। इस ज्ञान में हम दूसरों पर निर्भर होते है और ज्ञान धारा कभी भी बदल जाती है; जैसे गुरु, वैसा ज्ञान और वैसा आचरण। कोई भी ज्ञान अर्जित करने के पहले उसके सारे  पहलुओं पर विचार करके ही ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए। किसी भी ज्ञान को देखना सुनना और अनुभव करना गलत नहीं है परन्तु उसे अपने जीवन में आत्मसात करना और उसके अनुरूप आचरण करने से पहले बहुत ही विचार करने के बाद ही अपने जीवन में उतारना चाहिए।
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'''द्वितीय ज्ञान है''' समाज या हमारे आस - पास के अनुभवों का ज्ञान जिसे हम दुसरो के माध्यम से सीखते है | जैसे विद्यालय शिक्षा या माता पिता द्वारा सिखाया गया ज्ञान या समाज में आचरण करने का ज्ञान जिसे सीखने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है | इस ज्ञान में हम दुसरो पर निर्भर होते है और ज्ञान धारा  कभी भी बदल जाती है जैसे गुरु वैसा ज्ञान और वैसा आचरण | कोई भी ज्ञान अर्जित करने के पहले उसके सारे  पहलुओं पर विचार करके ही ज्ञान  को आत्मसात करना चाहिए | किसी भी ज्ञान को देखना सुनना और अनुभव करना गलत नहीं है परन्तु उसे अपने जीवन में आत्मसात करना और उसके अनुरूप आचरण करने से पहले बहुत ही विचार करने के बाद ही अपने जीवन में उतारना चाहिए |
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इसलिए बिना गुरु ज्ञान प्राप्त करना, अधूरा ज्ञान प्राप्त करने के समान होता है। ज्ञान प्राप्ति का स्थान और वातावरण भी हमारे ज्ञान पर प्रभाव डालते है। इसीलिए पूर्व काल में सभी शिक्षाएं एक विशिष्ठ गुरु द्वारा विशेष स्थान पर दी जाती थी, जहाँ ना अपने परिवार, समाज या उस वातावरण से कोई सम्बन्ध होता था जहाँ हम रहते थे। किसी जंगल के एकांत जगह पर जाकर रहना जहाँ न कोई श्रीमंत  ना कोई गरीब, ना कोई जाति न कोई भेदभाव जहाँ केवल ज्ञान ज्ञान और ज्ञान ही दिखाई, सुनाई और अनुभव में आता था।
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इसलिए बिना गुरु ज्ञान प्राप्त करना यानि अधूरा ज्ञान प्राप्त करने के सामान होता है ,ज्ञान प्राप्ति का स्थान और वातावरण भी हमारे ज्ञान पर प्रभाव डालते है | इसीलिए पूर्व काल में सभी शिक्षाए एक विशिष्ठ गुरु द्वारा विशेष स्थान पर दी जाती थी ,जहाँ ना अपने परिवार ,समाज या उस वातावरण से कोई सम्बन्ध होता था जहाँ हम रहते थे | किसी जंगल के एकांत जगह पर जाकर रहना जहाँ न कोई श्रीमंत  ना कोई गरीब , ना कोई जाती न कोई भेदभाव जहाँ केवल ज्ञान ज्ञान और ज्ञान ही दिखाई , सुनाई और अनुभव में आता था |
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किसी भी कार्य को करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जैसे भोजन कैसे करना चाहिए, कैसे चलना चाहिए। बिना विद्या या ज्ञान के मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। विद्या द्वारा ही सभ्य, संस्कारी, और गुणवान मनुष्य या समाज का निर्माण होता है  <blockquote>विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।</blockquote><blockquote>पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥</blockquote>विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
 
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किसी भी कार्य को करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जैसे भोजन कैसे करना चाहिए , कैसे चलना चाहिए | बिना विद्या या ज्ञान के मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता | विद्या द्वारा ही सभ्य ,संस्कारी ,और गुणवान मनुष्य या समाज का निर्माण होता है |  
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विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
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पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
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विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
      
==References==
 
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