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{{ToBeEdited|needs formatting=}}१. शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों का प्रारम्भ १८६६ में हुआ । इससे ८ वर्ष पूर्व १८५७ में इस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा कोलकाता, मद्रास (चैन्नई) और मुम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को पूर्णता प्राप्त हुई थी। हम कह सकते हैं कि भारतीयकरण के प्रयास तब शुरू हुए जब पश्चिमीशिक्षा अपने पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी ।
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{{ToBeEdited|needs formatting=}}१. शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयासों का प्रारम्भ १८६६ में हुआ । इससे ८ वर्ष पूर्व १८५७ में इस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा कोलकाता, मद्रास (चैन्नई) और मुम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को पूर्णता प्राप्त हुई थी। हम कह सकते हैं कि धार्मिककरण के प्रयास तब शुरू हुए जब पश्चिमीशिक्षा अपने पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी ।
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२. विश्वविद्यालयों की स्थापना का वर्ष एक प्रसिद्ध घटना के साथ जुड़ा हुआ है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के हेतु से देशभर में कम्पनी सरकार के विसुद्धसंग्राम छिड गया जिसका नेतृत्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब पेश्वा और तात्या टोपे ने किया । इस संग्राम में जीत तो कम्पनी सरकार की हुई परन्तु पूरा शासन इतना शिथिल हो गया और घबडा गया कि सन १८५८ में भारत का शासन ब्रिटन की रानी के हाथ में चला गया । सन १८५८ से १९४७ तक भारत में ब्रिटीश राज का शासन रहा । शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों के दौरान हम ब्रिटन के नागरिक थे ।
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२. विश्वविद्यालयों की स्थापना का वर्ष एक प्रसिद्ध घटना के साथ जुड़ा हुआ है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के हेतु से देशभर में कम्पनी सरकार के विसुद्धसंग्राम छिड गया जिसका नेतृत्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब पेश्वा और तात्या टोपे ने किया । इस संग्राम में जीत तो कम्पनी सरकार की हुई परन्तु पूरा शासन इतना शिथिल हो गया और घबडा गया कि सन १८५८ में भारत का शासन ब्रिटन की रानी के हाथ में चला गया । सन १८५८ से १९४७ तक भारत में ब्रिटीश राज का शासन रहा । शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयासों के दौरान हम ब्रिटन के नागरिक थे ।
    
३. अब तीन बातें साथ साथ चल रही थी । रानी विक्टोरिया का शासन ब्रिटीश सत्ता को दृढमूल बनाने के लिये और सन १८५७ के स्वातन्त्रयसंग्राम के पश्चात्परिणामों को समाप्त करने के लिये अधिक कठोरता से पेश आ रहा था । शिक्षा का भी विस्तार और सुदूद़दीकरण हो रहा था ।
 
३. अब तीन बातें साथ साथ चल रही थी । रानी विक्टोरिया का शासन ब्रिटीश सत्ता को दृढमूल बनाने के लिये और सन १८५७ के स्वातन्त्रयसंग्राम के पश्चात्परिणामों को समाप्त करने के लिये अधिक कठोरता से पेश आ रहा था । शिक्षा का भी विस्तार और सुदूद़दीकरण हो रहा था ।
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४. दूसरी ओर स्वतन्त्रता प्राप्ति का मानस भी अपना काम कर रहा था । भविष्य में जो भारत की स्वतन्त्रता के और राष्ट्रीय भावना के अपग्रदूत बनने वाले थे ऐसे अनेक आन्दोलनों के प्रणेताओं का जन्म भारतभूमि में हो रहा था । स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, योगी अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, डॉ. हेडगेवार, सुभाषचंद्र॒ बसु, जगदीश चन्द्र बसु, बदरीशाह ठुलधरिया, पंडित सुन्द्रलाल, शिवकर बापूजी तलपदे, केशव कृष्णजी  वझे आदि राष्ट्रसाधना और ज्ञानसाधना करने वाली अनेक प्रतिभायें पनप रही थीं ।
 
४. दूसरी ओर स्वतन्त्रता प्राप्ति का मानस भी अपना काम कर रहा था । भविष्य में जो भारत की स्वतन्त्रता के और राष्ट्रीय भावना के अपग्रदूत बनने वाले थे ऐसे अनेक आन्दोलनों के प्रणेताओं का जन्म भारतभूमि में हो रहा था । स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, योगी अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, डॉ. हेडगेवार, सुभाषचंद्र॒ बसु, जगदीश चन्द्र बसु, बदरीशाह ठुलधरिया, पंडित सुन्द्रलाल, शिवकर बापूजी तलपदे, केशव कृष्णजी  वझे आदि राष्ट्रसाधना और ज्ञानसाधना करने वाली अनेक प्रतिभायें पनप रही थीं ।
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५. तीसरा, शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास भी शुरू होकर धीरे धीरे प्रस्तुत हो रहे थे । इन तीनों का एकदूसरे पर प्रभाव होना तो साहजिक ही था । शिक्षा के प्रयास एक ओर तो स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना के ही अंगरूप थे । तभी तो सभी प्रयासों को निरपवाद रूप से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का ही अंगभूत माना गया । दूसरी ओर उसी कारण से वे प्रयास पूरी शक्ति के साथ नहीं हो रहे थे । ब्रिटीश शिक्षा के साथ उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड रहा था । यह भी युद्ध का बहुत महत्त्वपूर्ण मोर्चा था ।
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५. तीसरा, शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी शुरू होकर धीरे धीरे प्रस्तुत हो रहे थे । इन तीनों का एकदूसरे पर प्रभाव होना तो साहजिक ही था । शिक्षा के प्रयास एक ओर तो स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना के ही अंगरूप थे । तभी तो सभी प्रयासों को निरपवाद रूप से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का ही अंगभूत माना गया । दूसरी ओर उसी कारण से वे प्रयास पूरी शक्ति के साथ नहीं हो रहे थे । ब्रिटीश शिक्षा के साथ उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड रहा था । यह भी युद्ध का बहुत महत्त्वपूर्ण मोर्चा था ।
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६. एक संयोग तो यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास ऐसे लोगों के द्वारा हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी । ऐसे किसी विद्वान के द्वारा नहीं हुए जो काशी जैसी ज्ञाननगरी में भारतीय परम्परा का गुरुकुल चलाता हो, जहाँ वेदाध्ययन होता हो और समाज में सम्मानित भी हो । ऐसे किसी के द्वारा भी नहीं हुए जो अंग्रेजी शिक्षा को प्राप्त करना अहितकारी मानता हो और जिसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ही नहीं की हो ।
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६. एक संयोग तो यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास ऐसे लोगों के द्वारा हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी । ऐसे किसी विद्वान के द्वारा नहीं हुए जो काशी जैसी ज्ञाननगरी में धार्मिक परम्परा का गुरुकुल चलाता हो, जहाँ वेदाध्ययन होता हो और समाज में सम्मानित भी हो । ऐसे किसी के द्वारा भी नहीं हुए जो अंग्रेजी शिक्षा को प्राप्त करना अहितकारी मानता हो और जिसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ही नहीं की हो ।
    
७. उस समय भी देश की अस्सी से नव्वे प्रतिशत प्रजा
 
७. उस समय भी देश की अस्सी से नव्वे प्रतिशत प्रजा
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१४. महात्मा गांधीने चिन्तन किया परन्तु, राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग उनके कार्यकर्ताओने किये । गाँधीजी स्वयं शिक्षक नहीं थे । फिर भी उनके कार्यकर्ता उनके चिन्तन के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान थे इसलिये उनका चिन्तन और प्रयोग साथ साथ चला ऐसा हम कह सकते हैं ।
 
१४. महात्मा गांधीने चिन्तन किया परन्तु, राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग उनके कार्यकर्ताओने किये । गाँधीजी स्वयं शिक्षक नहीं थे । फिर भी उनके कार्यकर्ता उनके चिन्तन के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान थे इसलिये उनका चिन्तन और प्रयोग साथ साथ चला ऐसा हम कह सकते हैं ।
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१५. एक मात्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे थे जो शत प्रतिशत शिक्षक थे । शेष सभी किसी बडे आन्दोलन के हिस्से के रूप में शिक्षा का भी चिन्तन और प्रयोग करते थे । रवीन्द्रनाथ ठाकुरने पूर्ण रूप से भारतीय शिक्षा का एक श्रेष्ठ और यशस्वी प्रयोग किया और ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक पक्षों का समायोजन किया । शिक्षाक्षेत्र में प्रयोग करना चाहते हैं ऐसे अनेक लोगों के लिये उनका प्रयोग अध्ययन के योग्य है ।
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१५. एक मात्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे थे जो शत प्रतिशत शिक्षक थे । शेष सभी किसी बडे आन्दोलन के हिस्से के रूप में शिक्षा का भी चिन्तन और प्रयोग करते थे । रवीन्द्रनाथ ठाकुरने पूर्ण रूप से धार्मिक शिक्षा का एक श्रेष्ठ और यशस्वी प्रयोग किया और ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक पक्षों का समायोजन किया । शिक्षाक्षेत्र में प्रयोग करना चाहते हैं ऐसे अनेक लोगों के लिये उनका प्रयोग अध्ययन के योग्य है ।
    
१६. स्वामी श्रद्धानन्दू का आर्यसमाज के गुरुकुलों का प्रयोग एक अर्थ में विशिष्ट है क्योंकि वह वेदाध्ययन और प्राचीन गुरुकुल पद्धति को ही अपनाकर चला ।. परन्तु वह अनुकरणीय नहीं हुआ | देशव्यापी होने पर भी नहीं हुआ ।
 
१६. स्वामी श्रद्धानन्दू का आर्यसमाज के गुरुकुलों का प्रयोग एक अर्थ में विशिष्ट है क्योंकि वह वेदाध्ययन और प्राचीन गुरुकुल पद्धति को ही अपनाकर चला ।. परन्तु वह अनुकरणीय नहीं हुआ | देशव्यापी होने पर भी नहीं हुआ ।
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१७. एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि प्रयोग करने वालों में से महात्मा गांधी और श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अलावा किसीने भी शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का विचार नहीं किया । शिक्षा का प्रयोग करने वाले लगभग सभी देशभक्त थे, धर्मप्रेमी थे, भारतीय संस्कृति के प्रति आदर की भावना से युक्त थे और समर्थ भी थे । तो भी शिक्षा का ज्ञानात्मक पक्ष तो पश्चिमी ही रहा। यह बात उन्नीसवीं, बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में भी एक सी ही है ।
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१७. एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि प्रयोग करने वालों में से महात्मा गांधी और श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अलावा किसीने भी शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का विचार नहीं किया । शिक्षा का प्रयोग करने वाले लगभग सभी देशभक्त थे, धर्मप्रेमी थे, धार्मिक संस्कृति के प्रति आदर की भावना से युक्त थे और समर्थ भी थे । तो भी शिक्षा का ज्ञानात्मक पक्ष तो पश्चिमी ही रहा। यह बात उन्नीसवीं, बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में भी एक सी ही है ।
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१८. इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये प्रयोग करने वाले सबके सब अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए थे । वे विद्वान तो थे परन्तु अंग्रेजी ज्ञान में । उन्हें शिक्षा का केन्द्रबिन्दु भारतीय ज्ञान होना चाहिये यह बात ध्यान में ही नहीं आई ।
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१८. इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये प्रयोग करने वाले सबके सब अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए थे । वे विद्वान तो थे परन्तु अंग्रेजी ज्ञान में । उन्हें शिक्षा का केन्द्रबिन्दु धार्मिक ज्ञान होना चाहिये यह बात ध्यान में ही नहीं आई ।
    
१९. अनेक लोगों के लिये शिक्षा मुख्य विषय नहीं था । आज भी अनेक संगठन ऐसे हैं जिनका मुख्य विषय अन्य है परन्तु वे शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं । इनके अपने विश्वविद्यालय भी हैं । परन्तु उनके मुख्य विषय दूसरे हैं, अधिक व्यापक हैं । स्वामी रामदेव महाराज, गायत्री प्रज्ञापीठ, रामकृष्ण मिशन, faa fea, स्वामीनारायण सम्प्रदाय आदि अनेक संस्थाओं और संगठनों के मुख्य विषय धर्म, संस्कृति, वेदान्त आदि हैं, शिक्षा उनके व्यापक कार्य का एक अंग है । इसलिये भावात्मक पक्ष तो सुदूढ है परन्तु ज्ञानात्मक पक्ष का विचार ये नहीं करते हैं ।
 
१९. अनेक लोगों के लिये शिक्षा मुख्य विषय नहीं था । आज भी अनेक संगठन ऐसे हैं जिनका मुख्य विषय अन्य है परन्तु वे शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं । इनके अपने विश्वविद्यालय भी हैं । परन्तु उनके मुख्य विषय दूसरे हैं, अधिक व्यापक हैं । स्वामी रामदेव महाराज, गायत्री प्रज्ञापीठ, रामकृष्ण मिशन, faa fea, स्वामीनारायण सम्प्रदाय आदि अनेक संस्थाओं और संगठनों के मुख्य विषय धर्म, संस्कृति, वेदान्त आदि हैं, शिक्षा उनके व्यापक कार्य का एक अंग है । इसलिये भावात्मक पक्ष तो सुदूढ है परन्तु ज्ञानात्मक पक्ष का विचार ये नहीं करते हैं ।
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२०. देश में अनेक संगठन ऐसे हैं जो शुद्ध शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रेरित ये संगठन देशव्यापी हैं । संख्यात्मक दृष्टि से विश्व में प्रथम क्रमांक पर हैं, संगठनात्मक दृष्टि से समाज में और शिक्षा क्षेत्र में इनकी स्वीकृति है, वे प्रभावी है। कार्यकर्ताओं का अच्छा समर्पित वर्ग भी इनके पास है । परन्तु ये सब भी ज्ञानात्मक पक्ष को स्पर्श करते नहीं दिखाई देते हैं। वही पश्चिमी शिक्षा हजारों विद्यालयों में चल रही है ।
 
२०. देश में अनेक संगठन ऐसे हैं जो शुद्ध शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रेरित ये संगठन देशव्यापी हैं । संख्यात्मक दृष्टि से विश्व में प्रथम क्रमांक पर हैं, संगठनात्मक दृष्टि से समाज में और शिक्षा क्षेत्र में इनकी स्वीकृति है, वे प्रभावी है। कार्यकर्ताओं का अच्छा समर्पित वर्ग भी इनके पास है । परन्तु ये सब भी ज्ञानात्मक पक्ष को स्पर्श करते नहीं दिखाई देते हैं। वही पश्चिमी शिक्षा हजारों विद्यालयों में चल रही है ।
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२१. डेढ़ शतक के इस कालखण्ड में उच्च शिक्षा भारतीयता से पूर्ण रूप से अस्पर्श रही है । शिक्षा का यह उद्गम बिन्दु है । वास्तव में यही वह बिन्दु है जहाँ से शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास का प्रारम्भ होना चाहिये था । ब्रिटीशों ने भी शिक्षा के यूरोपीकरण का प्रारम्भ शास्त्रों के परिवर्तन से ही किया था । हमारे सारे संकटों की जड भी वही है । परन्तु इस पर किसीने काम नहीं किया । शिक्षा का ज्ञानात्मक प्रवाह वैसा का वैसा रहा है ।
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२१. डेढ़ शतक के इस कालखण्ड में उच्च शिक्षा धार्मिकता से पूर्ण रूप से अस्पर्श रही है । शिक्षा का यह उद्गम बिन्दु है । वास्तव में यही वह बिन्दु है जहाँ से शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास का प्रारम्भ होना चाहिये था । ब्रिटीशों ने भी शिक्षा के यूरोपीकरण का प्रारम्भ शास्त्रों के परिवर्तन से ही किया था । हमारे सारे संकटों की जड भी वही है । परन्तु इस पर किसीने काम नहीं किया । शिक्षा का ज्ञानात्मक प्रवाह वैसा का वैसा रहा है ।
    
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४६. देश के बडे से बडे संगठन आदि देश की शिक्षा की जिम्मेदारी लेने में सक्षम होने का विचार भी करें तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह व्यावहारिक नहीं है । इतना बडा देश केन्द्रीकृत व्यवस्था से चल ही नहीं सकता । केन्द्रीय मार्गदर्शन और प्रेरणा तथा स्थानीय व्यवस्था और क्रियान्वयन की रचना से ही कोई देशव्यापी कार्य चल सकता है। भारत आजतक ऐसे ही चलता आया है। भगवान शंकराचार्य ने जब हिन्दू समाज को घर घर में पंचायतन पूजा की व्यवस्था दी तब कहीं पर भी नियन्त्रण और नियमन की बाहा  व्यवस्था नहीं हथी । समाज अन्तःकरण की श्रद्धा से ही इसका अनुसरण करता था । संन्यासी अटन कर इस की नित्य परिष्कृति की चिन्ता करते थे ।
 
४६. देश के बडे से बडे संगठन आदि देश की शिक्षा की जिम्मेदारी लेने में सक्षम होने का विचार भी करें तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह व्यावहारिक नहीं है । इतना बडा देश केन्द्रीकृत व्यवस्था से चल ही नहीं सकता । केन्द्रीय मार्गदर्शन और प्रेरणा तथा स्थानीय व्यवस्था और क्रियान्वयन की रचना से ही कोई देशव्यापी कार्य चल सकता है। भारत आजतक ऐसे ही चलता आया है। भगवान शंकराचार्य ने जब हिन्दू समाज को घर घर में पंचायतन पूजा की व्यवस्था दी तब कहीं पर भी नियन्त्रण और नियमन की बाहा  व्यवस्था नहीं हथी । समाज अन्तःकरण की श्रद्धा से ही इसका अनुसरण करता था । संन्यासी अटन कर इस की नित्य परिष्कृति की चिन्ता करते थे ।
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४७. धर्म की क्यों, शिक्षा की ही बात करें तो ब्रिटीशों ने जिस भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किया उस व्यवस्था में भी देशभर में पाँच लाख से अधिक विद्यालय बिना किसी नियन्त्रण और नियमन की व्यवस्था के चलते ही थे । भारत में यह आज भी चल सकता है ऐसा सरकार या संगठन को विश्वास नहीं है। परन्तु ऐसा विश्वास ढृढ़  बनाकर व्यवस्थातन्त्र को इसके अनुकूल बनाया तो वह व्यवस्था पुनःस्थापित हो सकती है ।
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४७. धर्म की क्यों, शिक्षा की ही बात करें तो ब्रिटीशों ने जिस धार्मिक शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किया उस व्यवस्था में भी देशभर में पाँच लाख से अधिक विद्यालय बिना किसी नियन्त्रण और नियमन की व्यवस्था के चलते ही थे । भारत में यह आज भी चल सकता है ऐसा सरकार या संगठन को विश्वास नहीं है। परन्तु ऐसा विश्वास ढृढ़  बनाकर व्यवस्थातन्त्र को इसके अनुकूल बनाया तो वह व्यवस्था पुनःस्थापित हो सकती है ।
    
४८. यह कार्य संगठनों का है। देश की शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी हो तो समाज प्रबोधन की आवश्यकता रहेगी । समाजप्रबोधन का कार्य संगठन ही उत्तम पद्धति से कर सकते हैं । यह तो उनका मुख्य कार्य है, कि बहुना आज भी देश के सभी संगठनों का कार्य समाज प्रबोधन के द्वारा प्राप्त समाज के सहयोग से ही चल रहा है । संगठन भी यदि तन्त्र बिठाने में सरकार का अनुकरण करेंगे तो उनकी भी स्थिति सरकार के ही जैसी होगी ।
 
४८. यह कार्य संगठनों का है। देश की शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से करनी हो तो समाज प्रबोधन की आवश्यकता रहेगी । समाजप्रबोधन का कार्य संगठन ही उत्तम पद्धति से कर सकते हैं । यह तो उनका मुख्य कार्य है, कि बहुना आज भी देश के सभी संगठनों का कार्य समाज प्रबोधन के द्वारा प्राप्त समाज के सहयोग से ही चल रहा है । संगठन भी यदि तन्त्र बिठाने में सरकार का अनुकरण करेंगे तो उनकी भी स्थिति सरकार के ही जैसी होगी ।
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५१. विद्वानों को कुछ करके दिखाने की जिम्मेदारी या इच्छा नहीं होने के कारण से वे क्रियावान नही होते हैं यह तो ठीक है परन्तु इस कारण से उनकी अपेक्षायें और मार्गदर्शन अव्यावहारिक भी होता है । क्रियावान लोगों को क्या काम करना है इसकी ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण से आवश्यकता की पूर्ति 'करने हेतु क्या क्या करना चाहिये, कैसे करना चाहिये इसकी जानकारी नहीं होती । अतः दोनों एकदूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं। परिणाम स्वरूप भाषण होते हैं और कार्यक्रम होते हैं, भाषणों के कार्यक्रम होते हैं परन्तु कार्य नहीं होता ।
 
५१. विद्वानों को कुछ करके दिखाने की जिम्मेदारी या इच्छा नहीं होने के कारण से वे क्रियावान नही होते हैं यह तो ठीक है परन्तु इस कारण से उनकी अपेक्षायें और मार्गदर्शन अव्यावहारिक भी होता है । क्रियावान लोगों को क्या काम करना है इसकी ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण से आवश्यकता की पूर्ति 'करने हेतु क्या क्या करना चाहिये, कैसे करना चाहिये इसकी जानकारी नहीं होती । अतः दोनों एकदूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं। परिणाम स्वरूप भाषण होते हैं और कार्यक्रम होते हैं, भाषणों के कार्यक्रम होते हैं परन्तु कार्य नहीं होता ।
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५२. उदाहरण के लिये भारतीय शिक्षा की संकल्पना और स्वरूप विषयक गोष्ठी या गोष्ठीयाँ होती हैं, विद्वानों के भाषण होते हैं परन्तु गोष्ठी समाप्त होने के बाद उसमें व्यक्त हुए विचारों के अनुरूप कार्ययोजना नहीं बनती । वास्तव में प्रथम क्रियान्वयन की पूर्ण तैयारी करने के बाद गोष्ठी का आयोजन होना चाहिये परन्तु वास्तव में ज्ञान और क्रिया एकदूसरे से अलग ही रह जाते हैं ।
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५२. उदाहरण के लिये धार्मिक शिक्षा की संकल्पना और स्वरूप विषयक गोष्ठी या गोष्ठीयाँ होती हैं, विद्वानों के भाषण होते हैं परन्तु गोष्ठी समाप्त होने के बाद उसमें व्यक्त हुए विचारों के अनुरूप कार्ययोजना नहीं बनती । वास्तव में प्रथम क्रियान्वयन की पूर्ण तैयारी करने के बाद गोष्ठी का आयोजन होना चाहिये परन्तु वास्तव में ज्ञान और क्रिया एकदूसरे से अलग ही रह जाते हैं ।
    
५३. शिक्षा योजना के अभाव में आज एक भी संगठन वर्तमान शिक्षा का पूर्ण विकल्प देने में सक्षम नहीं है। शक्ति है परन्तु ज्ञान नहीं है इस कारण से क्रियाशक्ति का अपव्यय होता है और इच्छाशक्ति दुर्बल हो जाती है । इस स्थिति में भारतयी शिक्षा अथवा भारत देश उनसे क्या अपेक्षा कर सकता है ? अनुकूलता और जनसमर्थन होने पर भी समर्थ व्यक्ति, संस्था या संगठन यदि कुछ करता नहीं है तो शिक्षा का अथवा प्रजा का पालक और कौन हो सकता है ? बलवान रक्षा नहीं करता तो दीन और दुर्बल क्या करेंगे ? मातापिता यदि पालनपोषण नहीं करते तो बच्चे क्या करेंगे ? शासक यदि व्यवस्था नहीं बनाता तो प्रजा किससे क्या माँगे ? विद्वान यदि शिक्षा का दायित्व नहीं लेते तो समाज किससे अपेक्षा करेगा ? संगठन यदि विद्वानों को अपने साथ नहीं जोडे तो विद्वान क्या करेंगे ? विद्वान यदि स्वयं संगठित नहीं होते और कार्यशक्ति नहीं प्राप्त करते तो शिक्षा किसका शरण लेगी ? इस देश को अआज्ञानियों और अनाडियों का देश बनाने का पाप किसको लगेगा ? यह पाप न लगे इसकी सावधानी रखने का किस का क्या दायित्व है ?
 
५३. शिक्षा योजना के अभाव में आज एक भी संगठन वर्तमान शिक्षा का पूर्ण विकल्प देने में सक्षम नहीं है। शक्ति है परन्तु ज्ञान नहीं है इस कारण से क्रियाशक्ति का अपव्यय होता है और इच्छाशक्ति दुर्बल हो जाती है । इस स्थिति में भारतयी शिक्षा अथवा भारत देश उनसे क्या अपेक्षा कर सकता है ? अनुकूलता और जनसमर्थन होने पर भी समर्थ व्यक्ति, संस्था या संगठन यदि कुछ करता नहीं है तो शिक्षा का अथवा प्रजा का पालक और कौन हो सकता है ? बलवान रक्षा नहीं करता तो दीन और दुर्बल क्या करेंगे ? मातापिता यदि पालनपोषण नहीं करते तो बच्चे क्या करेंगे ? शासक यदि व्यवस्था नहीं बनाता तो प्रजा किससे क्या माँगे ? विद्वान यदि शिक्षा का दायित्व नहीं लेते तो समाज किससे अपेक्षा करेगा ? संगठन यदि विद्वानों को अपने साथ नहीं जोडे तो विद्वान क्या करेंगे ? विद्वान यदि स्वयं संगठित नहीं होते और कार्यशक्ति नहीं प्राप्त करते तो शिक्षा किसका शरण लेगी ? इस देश को अआज्ञानियों और अनाडियों का देश बनाने का पाप किसको लगेगा ? यह पाप न लगे इसकी सावधानी रखने का किस का क्या दायित्व है ?
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५४. देश की शिक्षा का भारतीयकरण करने की सरकार की तो क्षमता नहीं है। उससे अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिये । संगठन ऐसी स्थिति में पहुँच गये हैं कि उनसे अपेक्षा करना व्यर्थ हो गया है। इस स्थिति में क्या हो सकता है ? सरकारी शिक्षा यदि ऐसी ही चलती रही, संगठन यदि इसी प्रकार चलते रहे तो आने वाले समय में शिक्षा का क्या होगा ? देश का कया होगा ? हम कहाँ पहुँचने वाले हैं ? कहाँ पहुँचना चाहते हैं ? इन सब प्रश्नों का विचार आगे करेंगे ।
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५४. देश की शिक्षा का धार्मिककरण करने की सरकार की तो क्षमता नहीं है। उससे अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिये । संगठन ऐसी स्थिति में पहुँच गये हैं कि उनसे अपेक्षा करना व्यर्थ हो गया है। इस स्थिति में क्या हो सकता है ? सरकारी शिक्षा यदि ऐसी ही चलती रही, संगठन यदि इसी प्रकार चलते रहे तो आने वाले समय में शिक्षा का क्या होगा ? देश का कया होगा ? हम कहाँ पहुँचने वाले हैं ? कहाँ पहुँचना चाहते हैं ? इन सब प्रश्नों का विचार आगे करेंगे ।

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