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==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ====
 
==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ====
 
# दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है।
 
# दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है।
# रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है इसलिए अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साढ़े सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साढ़े आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग डेढ़ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साढ़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साडे तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं।  
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# रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है इसलिए अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साढ़े सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साढ़े आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग डेढ़ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साढ़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साढ़े तीन से लेकर साढ़े पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं।  
# सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु  के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
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# सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू होकर साढ़े ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु  के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
 
किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
 
किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
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दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी महत्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है ।
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दिनचर्या और ऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी महत्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है ।
 
# हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये ।
 
# हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये ।
 
# आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना अनुकूल है परन्तु विलास नहीं ।
 
# आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना अनुकूल है परन्तु विलास नहीं ।
किसी भी आयु में, किसी भी मुख्य जीवनकार्य में, किसी भी लक्ष्य में सेवा, स्वाध्याय और सत्संग, तप, दान और यज्ञ तो जीवनचर्या के अभिन्न अंग होने ही चाहिये । ये सब आयु, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप होने चाहिये । तभी वे युगानुकूल और सार्थक होंगे ।
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किसी भी आयु में, किसी भी मुख्य जीवनकार्य में, किसी भी लक्ष्य में सेवा, स्वाध्याय और सत्संग, तप, दान और यज्ञ तो जीवनचर्या के अभिन्न अंग होने ही चाहिये । ये सब आयु, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप होने चाहिये । तभी वे युगानुकूल और सार्थक होंगे।
    
अपने परिवार, समाज और संस्कृति के अनुरूप ही हमारी जीवनचर्या होती है । उदाहरण के लिये हम भारतीय हैं, हम संकुचित और स्वार्थी नहीं हो सकते, विश्व कल्याण हो सके ऐसी ही हमारी जीवनचर्या होगी । हम पृथ्वी, पानी, वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों का शोषण नहीं कर सकते |
 
अपने परिवार, समाज और संस्कृति के अनुरूप ही हमारी जीवनचर्या होती है । उदाहरण के लिये हम भारतीय हैं, हम संकुचित और स्वार्थी नहीं हो सकते, विश्व कल्याण हो सके ऐसी ही हमारी जीवनचर्या होगी । हम पृथ्वी, पानी, वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों का शोषण नहीं कर सकते |
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==== मानसिकता के आयाम ====
 
==== मानसिकता के आयाम ====
 
महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें...
 
महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें...
# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है -                                                                    यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात्त  यौवन , धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
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# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है -                                                                    यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासन में रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
 
# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है ।
 
# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है ।
 
# एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है।                                                                       
 
# एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है।                                                                       

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