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| ==== कठिनाई के कारण क्या हैं ? ==== | | ==== कठिनाई के कारण क्या हैं ? ==== |
| # असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है | | # असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है |
− | # बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्त्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं । | + | # बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं । |
| # घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपडे सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं । | | # घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपडे सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं । |
| # टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं । | | # टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं । |
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| # अनुचित आहारविहार का सबसे पहला विपरीत परिणाम शरीर पर होता है और दुर्बल और रोगी शरीर का परिणाम मन और बुद्धि पर होता है । साथ ही इससे उल्टा भी सत्य है मन का प्रभाव शरीर पर होता है । अब तो यह स्वीकृत होने लगा है कि रक्तचाप, डायाबीटीज, अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ मन में जन्मती हैं और शरीर में प्रकट होती हैं । बच्चों में छोटी आयु से ही भय, तनाव, निराशा, हताशा आदि निर्माण होते हैं जिनका उनके शरीर-स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। ईर्ष्या, ट्रेष, आसक्ति, लालच आदि मनोविकार भी शारीरिक विकारों को जन्म देते हैं । | | # अनुचित आहारविहार का सबसे पहला विपरीत परिणाम शरीर पर होता है और दुर्बल और रोगी शरीर का परिणाम मन और बुद्धि पर होता है । साथ ही इससे उल्टा भी सत्य है मन का प्रभाव शरीर पर होता है । अब तो यह स्वीकृत होने लगा है कि रक्तचाप, डायाबीटीज, अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ मन में जन्मती हैं और शरीर में प्रकट होती हैं । बच्चों में छोटी आयु से ही भय, तनाव, निराशा, हताशा आदि निर्माण होते हैं जिनका उनके शरीर-स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। ईर्ष्या, ट्रेष, आसक्ति, लालच आदि मनोविकार भी शारीरिक विकारों को जन्म देते हैं । |
| ==== विद्यालय क्या करे ==== | | ==== विद्यालय क्या करे ==== |
− | विद्यालय को यह बात गम्भीरतापूर्वक लेनी चाहिये । शरीर स्वस्थ और बलवान बनाने हेतु परिणामकारी उपाय करने को प्रधानता देनी चाहिये । कुछ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं... | + | विद्यालय को यह बात गम्भीरतापूर्वक लेनी चाहिये । शरीर स्वस्थ और बलवान बनाने हेतु परिणामकारी उपाय करने को प्रधानता देनी चाहिये । कुछ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं: |
− | | + | # विद्यालय में आरोग्य शास्त्र को महत्व देना चाहिये । शरीरविज्ञान, आरोग्यशास्त्र, आहारशास्त्र, हस्तोद्योग, शारीरिक शिक्षा आदि विषयों का समूह शरीर से सम्बन्धित है । इनका सार्थक नियोजन होने की आवश्यकता है। ये सारे विषय सैद्धान्तिक और प्रायोगिक दोनों प्रकार से होने चाहिये ।\ |
− | १, विद्यालय में आरोग्यशास््र को महत्त्व देना चाहिये । शरीरविज्ञान, आरोग्यशास्त्र, आहारशास्त्र, हस्तोद्योग, शारीरिक शिक्षा आदि विषयों का समूह शरीर से सम्बन्धित है । इनका सार्थक नियोजन होने की आवश्यकता है। ये सारे विषय सैद्धान्तिक और प्रायोगिक दोनों प्रकार से होने चाहिये ।
| + | # जिनका जन्म सिझेरीयन ऑपरेशन से नहीं हुआ है उनकी माताओं का सम्मान करना चाहिये । जिनका जन्म अस्पताल में नहीं अपितु घर में हुआ है उनकी माताओं का विशेष सम्मान करना चाहिये । इसका कारण यह है कि स्वाभाविक प्रसूति और घर में प्रसूति बालक की सर्व प्रकार की शक्तियों का रक्षण करनेवाली होती हैं । |
− | | + | # जिन बालकों को वर्षभर में कभी डॉक्टर के पास नहीं जाना पडा है ऐसे बालकों का सम्मान करना चाहिये । |
− | २.जिनका जन्म सिझेरीयन ऑपरेशन से नहीं हुआ है उनकी माताओं का सम्मान करना चाहिये । जिनका जन्म अस्पताल में नहीं अपितु घर में हुआ है उनकी माताओं का विशेष सम्मान करना चाहिये । इसका कारण यह है कि स्वाभाविक प्रसूति और घर में प्रसूति बालक की सर्व प्रकार की शक्तियों का रक्षण करनेवाली होती हैं ।
| + | # हाथ से काम करना सिखाना चाहिये । हाथ से काम करने के अवसर अधिक से अधिक प्राप्त होने चाहिये । कारीगरी के छोटे बडे काम सफाई से करना सिखाना चाहिये । |
− | | + | # विद्यालय में अखाडा होना ही चाहिये जिस में पुलअप्स, सिंगल बार, डबल बार मलखम्भ, रस्सी की गाँठों के सहारे वृक्ष पर चढना, ऊँचाई से छलांग लगाना, कुस्ती करना आदि का समावेश हो । भागना और तैरना सबको आना चाहिये । सूर्यनमस्कार सबको आना चाहिये । |
− | ३. जिन बालकों को वर्षभर में कभी डॉक्टर के पास नहीं जाना पडा है ऐसे बालकों का सम्मान करना चाहिये ।
| + | # बाजार का पदार्थ कभी भी नहीं खाने का, होटल में कभी भी नहीं जाने का, मोबाईल में गेम कभी नहीं खेलने का नियम लेना चाहिये । |
− | | + | # दातुन से दाँत साफ करने का, प्रातःकाल पेट साफ होने का, प्रातः जल्दी उठने का, रात्रि में जल्दी सोने का विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण मानकर उसकी ओर ध्यान देना चाहिये । |
− | ४. हाथ से काम करना सिखाना चाहिये । हाथ से काम करने के अवसर अधिक से अधिक प्राप्त होने चाहिये । कारीगरी के छोटे बडे काम सफाई से करना सिखाना चाहिये ।
| + | # शरीर स्वास्थ्य का यह विषय जितना शिक्षा का है उतना ही मानसिकता निर्माण करने का है । इस दृष्टि से प्रेरणा और प्रबोधन के कार्यक्रम होने चाहिये । विद्यार्थियों के प्रबोधन के साथ साथ मातापिता का प्रबोधन भी आवश्यक है । |
− | | + | # शिक्षकों के और शिक्षाशास्त्रियों के सम्मेलनों और परिषदों में इस विषय की प्रस्तुति और चर्चा सुरू होनी चाहिये । हमारी पूरी जीवनचर्या, यंत्रोद्योगों के प्रति आकर्षण, सुविधाओं को दिया जानेवाला अग्रताक्रम, काम करने के प्रति बढता हुआ हीनता का भाव, श्रम की अआप्रतिष्ठा आदि सब शरीर सम्पत्ति के हास के व्यापक कारण हैं। ये कारण यथावत् रहें तब विद्यार्थियों को दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा की कोई सार्थकता नहीं रहेगी । अतः व्यवस्थाओं और दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की बहुत आवश्यकता है । उदाहरण के लिये उच्च कोटी के विद्वान को भी कोई न कोई हुनर, कोई न कोई कला अवगत हो यह आवश्यक माना जाना चाहिये । व्यापक स्वीकृति मिलने पर विद्यार्थियों को शिक्षा देना सरल और सहज हो सकता है । |
− | ५. विद्यालय में अखाडा होना ही चाहिये जिस में पुलअप्स, सिंगल बार, डबल बार मलखम्भ, रस्सी की गाँठों के सहारे वृक्ष पर चढना, ऊँचाई से छलांग लगाना, कुस्ती करना आदि का समावेश हो । भागना और तैरना सबको आना चाहिये । सूर्यनमस्कार सबको आना चाहिये ।
| + | # अच्छा दूध नहीं मिलने का कारण डेअरी उद्योग का विकास, अच्छा अनाज और साग सब्जी नहीं मिलने का कारण रासायनिक खाद का प्रयोग तथा ट्रेक्टर से खेती होना है, अच्छा पानी नहीं मिलने का कारण, शुद्ध हवा नहीं मिलने का कारण यंत्रों और रसायनों का बढता प्रयोग है । आँख, कान, हाथ दुर्बल होने का कारण टीवी और कम्प्यूटर हैं, स्मरणशक्ति कम होने का कारण मोबाईल है, कुशलता ओं के हास का कारण यंत्र हैं और इन सबका मूल कारण बढ़ता हुआ शहरीकरण और गाँवों की उपेक्षा है । यह समझ में आना चाहिये । जब तक हम विनाशक व्यवस्थाओं को ही बदलेंगे नहीं तब तक स्वास्थ्य और बल कुशलता और निपुणता बढ़ाने के प्रयास निरोर्थक होंगे । साथ ही यह भी सत्य है कि इस का प्रारम्भ विद्यालयों से होना चाहिये । |
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− | ६. बाजार का पदार्थ कभी भी नहीं खाने का, होटल में कभी भी नहीं जाने का, मोबाईल में गेम कभी नहीं खेलने का नियम लेना चाहिये ।
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− | ७. दा तुन से दाँत साफ करने का, प्रातःकाल पेट साफ होने का, प्रातः जल्दी उठने का, रात्रि में जल्दी सोने का विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानकर उसकी ओर ध्यान देना चाहिये ।
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− | ८. शरीरस्वास्थ्य का यह विषय जितना शिक्षा का है उतना ही मानसिकता निर्माण करने का है । इस दृष्टि से प्रेरणा और प्रबोधन के कार्यक्रम होने चाहिये । विद्यार्थियों के प्रबोधन के साथ साथ मातापिता का प्रबोधन भी आवश्यक है ।
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− | ९. शिक्षकों के और शिक्षाशासख्रियों के संमेलनों और परिषदों में इस विषय की प्रस्तुति और चर्चा सुरू होनी चाहिये । हमारी पूरी जीवनचर्या, यंत्रोद्योगों के प्रति आकर्षण, सुविधाओं को दिया जानेवाला अग्रताक्रम, काम करने के प्रति बढता हुआ हीनता का भाव, श्रम की अआप्रतिष्ठा आदि सब शरीर सम्पत्ति के हास के व्यापक कारण हैं। ये कारण यथावत् रहें तब विद्यार्थियों को दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा की कोई सार्थकता नहीं रहेगी । अतः व्यवस्थाओं और दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की बहुत आवश्यकता है । उदाहरण के लिये उच्च कोटी के विद्वान को भी कोई न कोई हुनर, कोई न कोई कला अवगत हो यह आवश्यक माना जाना चाहिये । व्यापक स्वीकृति मिलने पर विद्यार्थियों को शिक्षा देना सरल और सहज हो सकता है ।
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− | १०. अच्छा दूध नहीं मिलने का कारण डेअरी उद्योग का विकास, अच्छा अनाज और साग सब्जी नहीं मिलने का कारण रासायनिक खाद का प्रयोग तथा ट्रेक्टर से खेती होना है, अच्छा पानी नहीं मिलने का कारण, शुद्ध हवा नहीं मिलने का कारण यंत्रों और रसायनों का बढता प्रयोग है । आँख, कान, हाथ दुर्बल होने का कारण टीवी और कम्प्यूटर हैं, स्मरणशक्ति कम होने का कारण मोबाईल है, कुशलता ओं के हास का कारण यंत्र हैं और इन सबका मूल कारण बढ़ता हुआ शहरीकरण और गाँवों की उपेक्षा है । यह समझ में आना चाहिये । जब तक हम विनाशक व्यवस्थाओं को ही बदलेंगे नहीं तब तक स्वास्थ्य और बल कुशलता और निपुणता बढ़ाने के प्रयास निरोर्थक होंगे । साथ ही यह भी सत्य है कि इस का प्रारम्भ विद्यालयों से होना चाहिये ।
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| तात्पर्य यह है कि विद्यालय से प्रारम्भ होकर यह विषय परिवारों में और समाज में व्याप्त हो जाना चाहिये । | | तात्पर्य यह है कि विद्यालय से प्रारम्भ होकर यह विषय परिवारों में और समाज में व्याप्त हो जाना चाहिये । |
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| ==== वैज्ञानिकता क्या है ==== | | ==== वैज्ञानिकता क्या है ==== |
− | आज के युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, मनुष्य का जीवन सुविधाओं से भर गया है, अनेक प्रकार के यंत्रों का आविष्कार हुआ है आदि सब कहकर विज्ञान की स्तुति की जाती है । विज्ञान अंधश्रद्धा का उन्मूलन करता है कहकर विज्ञान का सम्मान किया जाता है । आज सबकुछ वैज्ञानिक होना चाहिये ऐसा अग्रहपूर्वक कहा जाता है । शिखा रखनी चाहिये कि नहीं, तिलक करना चाहिये कि नहीं इससे लेकर मन्दिर में दर्शन करने हेतु जाना चाहिये कि नहीं, भगवान के समक्ष दीपक जलाना चाहिये कि नहीं इसकी चर्चा की जाती है। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करना चाहिये ऐसा कहा जाता है । अकेला अध्यात्म नहीं चलेगा, विज्ञान तो होना ही चाहिये ऐसा कहा जाता है । अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है । | + | आज के युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, मनुष्य का जीवन सुविधाओं से भर गया है, अनेक प्रकार के यंत्रों का आविष्कार हुआ है आदि सब कहकर विज्ञान की स्तुति की जाती है । विज्ञान अंधश्रद्धा का उन्मूलन करता है कहकर विज्ञान का सम्मान किया जाता है । आज सबकुछ वैज्ञानिक होना चाहिये ऐसा आग्रहपूर्वक कहा जाता है । शिखा रखनी चाहिये कि नहीं, तिलक करना चाहिये कि नहीं, इससे लेकर मन्दिर में दर्शन करने हेतु जाना चाहिये कि नहीं, भगवान के समक्ष दीपक जलाना चाहिये कि नहीं, इसकी चर्चा की जाती है। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करना चाहिये, ऐसा कहा जाता है । अकेला अध्यात्म नहीं चलेगा, विज्ञान तो होना ही चाहिये, ऐसा कहा जाता है । अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय बन गया है । |
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| परन्तु आज इसे समझने में और उसके अनुसार व्यवहार करने में अनेक प्रकार की गम्भीर स्वरूप की भ्रान्तियाँ फैल गई है । वैज्ञानिकता की दुहाई देकर घोर अवैज्ञानिक व्यवहार किया जाता है। इस स्थिति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यवहार के सम्बन्ध में स्पष्टता होना आवश्यक है । | | परन्तु आज इसे समझने में और उसके अनुसार व्यवहार करने में अनेक प्रकार की गम्भीर स्वरूप की भ्रान्तियाँ फैल गई है । वैज्ञानिकता की दुहाई देकर घोर अवैज्ञानिक व्यवहार किया जाता है। इस स्थिति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यवहार के सम्बन्ध में स्पष्टता होना आवश्यक है । |
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| इन सबका समन्वित विचार करना और उस विचार के अनुसार दृष्टिकोण बनना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । | | इन सबका समन्वित विचार करना और उस विचार के अनुसार दृष्टिकोण बनना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । |
| * विज्ञान का सही नाम है शास्त्र । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है शास्त्रीय दृष्टिकोण । शास्त्र बुद्धि का विषय है । इसलिये वास्तव में बुद्धि को ही विज्ञान संज्ञा दी गई है। जो बुद्धिगम्य है और बुद्धिसम्मत है वह शास्त्रीय है वह वैज्ञानिक है । | | * विज्ञान का सही नाम है शास्त्र । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है शास्त्रीय दृष्टिकोण । शास्त्र बुद्धि का विषय है । इसलिये वास्तव में बुद्धि को ही विज्ञान संज्ञा दी गई है। जो बुद्धिगम्य है और बुद्धिसम्मत है वह शास्त्रीय है वह वैज्ञानिक है । |
− | * शाख्त्रीयता के सम्बन्ध में भारतीय विचार की दो विशेषतायें हैं । | + | * शास्त्रीयता के सम्बन्ध में भारतीय विचार की दो विशेषतायें हैं: |
− | # बुद्धि से भी अनुभूति श्रेष्ठ है । अनुभूति को बुद्धिगम्य बनाकर शब्दों में जो प्रस्तुत किया जाता है वह शास्त्र है। सृष्टि के समस्त व्यवहार का प्रमाण शास्त्र है परन्तु शास्त्र का प्रमाण अनुभूति है । इसलिये केवल बुद्धि ही अन्तिम प्रमाण नहीं है, अनुभूति तक पहुँची हुई बुद्धि ही प्रमाण है । | + | *# बुद्धि से भी अनुभूति श्रेष्ठ है । अनुभूति को बुद्धिगम्य बनाकर शब्दों में जो प्रस्तुत किया जाता है वह शास्त्र है। सृष्टि के समस्त व्यवहार का प्रमाण शास्त्र है परन्तु शास्त्र का प्रमाण अनुभूति है । इसलिये केवल बुद्धि ही अन्तिम प्रमाण नहीं है, अनुभूति तक पहुँची हुई बुद्धि ही प्रमाण है । |
− | # शास्त्र केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही सीमित नहीं है । मनुष्य का व्यवहार कितना भी शास्त्रीय हो, अर्थात् वैज्ञानिक हो, तो भी सृष्टि के अन्य मनुष्यों , प्राणियों , वृक्षवनस्पति के हित और सुख के विरोधी नहीं होना चाहिये । उदाहरण के लिये मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग कर रासायनिक खाद बनाता है और अपनी भूमि में अधिक अनाज ऊगाता है । उसे लगता है कि यह व्यवहार गलत नहीं है । परन्तु भूमि का और अनाज का प्रदूषण इससे ही जन्म लेता है । भूमि, प्राणी और अन्य मनुष्यों को भारी नुकसान होता है । ऐसा विज्ञान व्यापक अर्थ में विज्ञान नहीं है, वह अनीति बन जाता है । | + | *# शास्त्र केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही सीमित नहीं है । मनुष्य का व्यवहार कितना भी शास्त्रीय हो, अर्थात् वैज्ञानिक हो, तो भी सृष्टि के अन्य मनुष्यों , प्राणियों , वृक्षवनस्पति के हित और सुख के विरोधी नहीं होना चाहिये । उदाहरण के लिये मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग कर रासायनिक खाद बनाता है और अपनी भूमि में अधिक अनाज ऊगाता है । उसे लगता है कि यह व्यवहार गलत नहीं है । परन्तु भूमि का और अनाज का प्रदूषण इससे ही जन्म लेता है । भूमि, प्राणी और अन्य मनुष्यों को भारी नुकसान होता है । ऐसा विज्ञान व्यापक अर्थ में विज्ञान नहीं है, वह अनीति बन जाता है । |
− | # कोई भी कार्य बुद्धि से समझकर सही गलत का, उचित अनुचित का विवेक करने के बाद जो सही या उचित है वह करना और अनुचित या गलत है वह नहीं करना ही वैज्ञानिकता का व्यवहार करना है । हम दैन॑न्दिन व्यवहार में वैज्ञानिकता का विचार कैसे किया जाता है यह देखें ।
| + | * कोई भी कार्य बुद्धि से समझकर सही गलत का, उचित अनुचित का विवेक करने के बाद जो सही या उचित है वह करना और अनुचित या गलत है वह नहीं करना ही वैज्ञानिकता का व्यवहार करना है । हम दैन॑न्दिन व्यवहार में वैज्ञानिकता का विचार कैसे किया जाता है यह देखें । |
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| ==== आहार विषयक वैज्ञानिकता ==== | | ==== आहार विषयक वैज्ञानिकता ==== |
| # आहार की आवश्यकता क्यों होती है । मनुष्य भूख लगती है इसलिये खाता है । शरीर को पोषण चाहिये इसलिये खाता है । विविध प्रकार के भोजन पदार्थ जीभ को और मन को अच्छे लगते हैं इसलिये खाता है । भोजन करने में आनन्द आता है इसलिये खाता है। इन विभिन्न कारणों में समायोजन करना वैज्ञानिकता है | | | # आहार की आवश्यकता क्यों होती है । मनुष्य भूख लगती है इसलिये खाता है । शरीर को पोषण चाहिये इसलिये खाता है । विविध प्रकार के भोजन पदार्थ जीभ को और मन को अच्छे लगते हैं इसलिये खाता है । भोजन करने में आनन्द आता है इसलिये खाता है। इन विभिन्न कारणों में समायोजन करना वैज्ञानिकता है | |
− | # समायोजन कैसे करे ? भोजन के मोटे मोटे तीन स्तर है । भोजन सात्तिक, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है । सात्त्विक भोजन मन को संस्कारित करता है, पौष्टिक भोजन शरीर को पुष्ट करता है और स्वास्थ्य की रक्षा करता है, स्वादिष्ट भोजन जीभ और मन को खुश करता है । यदि वह स्वादिष्ट है परन्तु पौष्टिक नहीं है तो कया करेंगे ? पौष्टिक है परन्तु सात्त्विक नहीं है तो क्या करेंगे ? यह तो सम्भव है कि स्वादिष्ट भोजन पौष्टिक और सात्चिक नहीं भी होता है, पौष्टिक भोजन सात्तिक नहीं भी होता है । उदाहरण के लिये जंक फूड मैदे के पदार्थ, फ्रिज में रखे पदार्थ स्वादिष्ट तो होते हैं परन्तु पौष्टिक और सात्विक नहीं होते । लहसुन, प्याज, मछली आदि पौष्टिक तो होते हैं परन्तु सात्तिक नहीं होते। बुद्धिमान मनुष्य करता है, पोष्टिकता की दूसरे क्रम में और स्वादिष्टता की तीसरे क्रम में । | + | # समायोजन कैसे करे ? भोजन के मोटे मोटे तीन स्तर है । भोजन सात्तिक, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है । सात्त्विक भोजन मन को संस्कारित करता है, पौष्टिक भोजन शरीर को पुष्ट करता है और स्वास्थ्य की रक्षा करता है, स्वादिष्ट भोजन जीभ और मन को खुश करता है । यदि वह स्वादिष्ट है परन्तु पौष्टिक नहीं है तो कया करेंगे ? पौष्टिक है परन्तु सात्त्विक नहीं है तो क्या करेंगे ? यह तो सम्भव है कि स्वादिष्ट भोजन पौष्टिक और सात्चिक नहीं भी होता है, पौष्टिक भोजन सात्तिक नहीं भी होता है । उदाहरण के लिये जंक फूड मैदे के पदार्थ, फ्रिज में रखे पदार्थ स्वादिष्ट तो होते हैं परन्तु पौष्टिक और सात्विक नहीं होते । लहसुन, प्याज, मछली आदि पौष्टिक तो होते हैं परन्तु सात्तिक नहीं होते। बुद्धिमान मनुष्य करता है, पोष्टिकता की दूसरे क्रम में और स्वादिष्टता की तीसरे क्रम में । अतः भोजन स्वादिष्ट तो होना चाहिये परन्तु पौष्टिक और सात्तिक तो होना ही चाहिये । सात्त्विक है परन्तु स्वादिष्ट नहीं है तो चलेगा परन्तु स्वादिष्ट है और सात्विक या पौष्टिक नहीं है ऐसा नहीं चलेगा । भोजन पौष्टिक होने पर भी सात्तिक नहीं है तो नहीं चलेगा । सात्त्विक भोजन पौष्टिक होता ही है । अतः स्वाद को प्राथमिकता देना अवैज्ञानिक है, सात्त्विकता को प्राथमिकता देना वैज्ञानिक है । |
− | अतः भोजन स्वादिष्ट तो होना चाहिये परन्तु पौष्टिक और सात्तिक तो होना ही चाहिये । सात्त्विक है परन्तु स्वादिष्ट नहीं है तो चलेगा परन्तु स्वादिष्ट है और सात्विक या पौष्टिक नहीं है ऐसा नहीं चलेगा । भोजन पौष्टिक होने पर भी सात्तिक नहीं है तो नहीं चलेगा । सात्त्विक भोजन पौष्टिक होता ही है । अतः स्वाद को प्राथमिकता देना अवैज्ञानिक है, सात्त्विकता को प्राथमिकता देना वैज्ञानिक है । | + | # अपवित्र मनोभावों से बना, अशुद्ध सामग्री से बना, अनुचित पद्धति से बना भोजन भले ही स्वादिष्ट हो तो भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि वह अवैज्ञानिक है । |
− | | + | # भोजन करने का समय, भोजन करने की पद्धति, भोजन की मात्रा, वैज्ञानिक पद्धति से जो निश्चित किये गये हैं उनका अनुसरण करना वैज्ञानिकता है । |
− | 3.अपवित्र मनोभावों से बना, अशुद्ध सामग्री से बना, अनुचित पद्धति से बना भोजन भले ही स्वादिष्ट हो तो भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि वह अवैज्ञानिक है ।
| + | # किसी को दिये बिना, किसी का छीनकर, अपने पास धन हो तो भी मुफ्त में मिला हुआ, भिक्षा माँगकर खाना अवैज्ञानिक है |
− | | + | # एल्युमिनियम के या प्लास्टीक के पात्रों में खाना पीना अवैज्ञानिक है । |
− | 4.भोजन करने का समय, भोजन करने की पद्धति, भोजन की मात्रा, वैज्ञानिक पद्धति से जो निश्चित किये गये हैं उनका अनुसरण करना वैज्ञानिकता है ।
| + | # झूठा, बासी, यंत्रों की सहायता से बना भोजन करना अवैज्ञानिक है । |
− | | + | # हमारी रसोई में मिक्सर, ग्राइण्डर, चर्नर, माइक्रोवेव, फ्रीज, कूलर आदि होते हैं । इनसे बनाया गया और इनमें रखा हुआ भोजन करना अवैज्ञानिक है । |
− | 5. किसी को दिये बिना, किसी का छीनकर, अपने पास धन हो तो भी मुफ्त में मिला हुआ, भिक्षा माँगकर खाना अवैज्ञानिक है
| + | # संक्षेप में भोजन करने का एक विस्तृत शास्त्र है । इस शास्त्र का अनुसरण किये बिना भोजन करना अवैज्ञानिक है । |
− | | + | ==== वस्त्र परिधान में वैज्ञानिकता ==== |
− | 6. एल्युमिनियम के या प्लास्टीक के पात्रों में खाना पीना अवैज्ञानिक है ।
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− | 7 . झूठा, बासी, यंत्रों की सहायता से बना भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
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− | 8. हमारी रसोई में मिक्सर, ग्राइण्डर, चर्नर, माइक्रोवेव, फ्रीज, कूलर आदि होते हैं । इनसे बनाया गया और इनमें रखा हुआ भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
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− | 9. संक्षेप में भोजन करने का एक विस्तृत शाख्र है । इस शास्त्र का अनुसरण किये बिना भोजन करना अवैज्ञानिक है ।
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− | ==== वसख्त्रपरिधान में वैज्ञानिकता ==== | |
| अन्न की तरह वस्त्र भी हमारे दैनन्दिन जीवन का अनिवार्य अंग है । इसका शास्त्रीय पद्धति से विचार करना ही चाहिये । | | अन्न की तरह वस्त्र भी हमारे दैनन्दिन जीवन का अनिवार्य अंग है । इसका शास्त्रीय पद्धति से विचार करना ही चाहिये । |
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− | सूती वस्त्र पहनना वैज्ञानिक है सिन्थेटिक पहनना अवैज्ञानिक क्योंकि सूती वस्त्र शरीर का रक्षण करते हैं जबकि सिन्थेटिक वस्त्र स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं । सिन्थेटिक वस्त्र आकर्षक लगते हैं, सस्ते मिलते हैं, धोने में सुविधा है, प्रैस नहीं करने पडते, परन्तु वस्त्रों से स्वास्थ्य का रक्षण करना ही महत्त्वपूर्ण है। सुविधा नहीं, स्वास्थ्य के अविरोधी सुविधा का विचार करना वैज्ञानिकता है। | + | सूती वस्त्र पहनना वैज्ञानिक है सिन्थेटिक पहनना अवैज्ञानिक क्योंकि सूती वस्त्र शरीर का रक्षण करते हैं जबकि सिन्थेटिक वस्त्र स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं । सिन्थेटिक वस्त्र आकर्षक लगते हैं, सस्ते मिलते हैं, धोने में सुविधा है, प्रैस नहीं करने पडते, परन्तु वस्त्रों से स्वास्थ्य का रक्षण करना ही महत्वपूर्ण है। सुविधा नहीं, स्वास्थ्य के अविरोधी सुविधा का विचार करना वैज्ञानिकता है। |
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| वस्त्र स्वास्थ्यरक्षा के साथ साथ शील रक्षा के लिये, लज्जारक्षा के लिये भी होते हैं । शरीर स्वास्थ्य के लिये उपयोगी सूती वस्त्र भी शीलरक्षा नहीं कर सकते तो उन्हें पहनना अवैज्ञानिक है । | | वस्त्र स्वास्थ्यरक्षा के साथ साथ शील रक्षा के लिये, लज्जारक्षा के लिये भी होते हैं । शरीर स्वास्थ्य के लिये उपयोगी सूती वस्त्र भी शीलरक्षा नहीं कर सकते तो उन्हें पहनना अवैज्ञानिक है । |
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| ==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ==== | | ==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ==== |
| # दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है। | | # दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है। |
− | # रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है इसलिए अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साडे सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साडे आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग देढ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साड़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साडे तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं। | + | # रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है इसलिए अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साढ़े सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साढ़े आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग डेढ़ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साढ़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साडे तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं। |
− | # सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है । | + | # सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है । |
| किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं । | | किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं । |
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− | दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी महत्त्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है । | + | दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी महत्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है । |
| # हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये । | | # हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये । |
| # आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना अनुकूल है परन्तु विलास नहीं । | | # आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना अनुकूल है परन्तु विलास नहीं । |
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| महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें... | | महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें... |
| # हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात्त यौवन , धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । | | # हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात्त यौवन , धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासनमें रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । |
− | # जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्त्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । | + | # जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । |
| # एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है। | | # एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है। |
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| छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। | | छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। |
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− | परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्त्व नहीं । | + | परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । |
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| परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है। | | परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है। |
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| ४. बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । | | ४. बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । |
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− | स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्त्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है । | + | स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है । |
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− | ५. कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्त्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है । | + | ५. कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है । |
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| ==== सही मानसिकता बनाने के प्रयास ==== | | ==== सही मानसिकता बनाने के प्रयास ==== |
− | अतः विद्यालयों में सही मानसिकता निर्माण करने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानना चाहिये । जितना ज्ञान का महत्त्व है उतना ही ज्ञान के प्रति व्यवहार करने का है । | + | अतः विद्यालयों में सही मानसिकता निर्माण करने को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानना चाहिये । जितना ज्ञान का महत्व है उतना ही ज्ञान के प्रति व्यवहार करने का है । |
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| इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है... | | इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है... |
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| विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है । | | विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है । |
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− | उसी प्रकार से परीक्षा का महत्त्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी । | + | उसी प्रकार से परीक्षा का महत्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी । |
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| नीतिमत्ता, विश्वास, श्रद्धा, संस्कार, विनयशीलता, सदाचार आदि का अधिक महत्व प्रस्थापित करना चाहिए। | | नीतिमत्ता, विश्वास, श्रद्धा, संस्कार, विनयशीलता, सदाचार आदि का अधिक महत्व प्रस्थापित करना चाहिए। |
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| यह आत्महत्या की मानसिकता प्रत्यक्ष आत्महत्या से अनेक गुना अधिक है । | | यह आत्महत्या की मानसिकता प्रत्यक्ष आत्महत्या से अनेक गुना अधिक है । |
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− | पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक की छोटी कक्षाओं के बच्चे भयभीत हैं । गृहकार्य नहीं किया इसलिये शिक्षक डाटेंगे इसका भय, बस में साथ वाले विद्यार्थी चिढ़ायेंगे इसका भय, नास्ते में केक नहीं ले गया इसलिये सब मजाक उडायेंगे इसका भय, प्रश्न का उत्तर नहीं आया इसका भय । बडी कक्षाओं में मित्र हँसेंगे इसका भय, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिलेंगे तो मातापिता नाराज होंगे इसका भय, मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा इसका भय, मनपसन्द लडकी होटेल में साथ नहीं आयेगी इसका भय । चारों ओर भय का.साम्राज्य है । यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्त्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है। | + | पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक की छोटी कक्षाओं के बच्चे भयभीत हैं । गृहकार्य नहीं किया इसलिये शिक्षक डाटेंगे इसका भय, बस में साथ वाले विद्यार्थी चिढ़ायेंगे इसका भय, नास्ते में केक नहीं ले गया इसलिये सब मजाक उडायेंगे इसका भय, प्रश्न का उत्तर नहीं आया इसका भय । बडी कक्षाओं में मित्र हँसेंगे इसका भय, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिलेंगे तो मातापिता नाराज होंगे इसका भय, मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा इसका भय, मनपसन्द लडकी होटेल में साथ नहीं आयेगी इसका भय । चारों ओर भय का.साम्राज्य है । यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है। |
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| दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना । | | दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना । |
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| 3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर नहीं देखना । | | 3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर नहीं देखना । |
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− | पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्त्वपूर्ण बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है । | + | पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्वपूर्ण बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है । |
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| ४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है। शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है, आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है । किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता । शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण किया जाता है । | | ४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है। शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है, आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है । किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता । शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण किया जाता है । |
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| ==== मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु ==== | | ==== मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु ==== |
− | अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा सकता है | + | अतः मन की शिक्षा का महत्व इस सन्दर्भ में समझने की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा सकता है |
| # सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की । चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता । चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही मन हमेशा खौलता ही रहता है । | | # सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की । चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता । चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही मन हमेशा खौलता ही रहता है । |
| # इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय इसका आग्रह होना चाहिये । सात्त्विक आहार का चाहिये । वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र है इसलिये यहाँ विशेष निरूपण करने की आवश्यकता नहीं है । | | # इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय इसका आग्रह होना चाहिये । सात्त्विक आहार का चाहिये । वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र है इसलिये यहाँ विशेष निरूपण करने की आवश्यकता नहीं है । |
| # विद्यार्थियों को टीवी और मोबाइल का निषेध करने की आवश्यकता है । यह निषेध महाविद्यालयों तक होना चाहिये । यह निषेध स्वयंस्वीकृत बने ऐसी शिक्षा भी देनी चाहिये । हमेशा के लिये निर्बन्ध थोपे ही जायें और विद्यार्थी मौका मिलते ही उनका उल्लंघन करने की ताक में ही रहें ऐसी स्थिति ठीक नहीं है । अतः इस विषय में मातापिता के साथ और किशोर आयु से विद्यार्थियों के साथ बातचीत की जाय, उन्हें सहमत बनाया जाय यह अत्यन्त आवश्यक है । थोपे हुए निर्नन्ध से मन कभी भी शान्त नहीं होता । | | # विद्यार्थियों को टीवी और मोबाइल का निषेध करने की आवश्यकता है । यह निषेध महाविद्यालयों तक होना चाहिये । यह निषेध स्वयंस्वीकृत बने ऐसी शिक्षा भी देनी चाहिये । हमेशा के लिये निर्बन्ध थोपे ही जायें और विद्यार्थी मौका मिलते ही उनका उल्लंघन करने की ताक में ही रहें ऐसी स्थिति ठीक नहीं है । अतः इस विषय में मातापिता के साथ और किशोर आयु से विद्यार्थियों के साथ बातचीत की जाय, उन्हें सहमत बनाया जाय यह अत्यन्त आवश्यक है । थोपे हुए निर्नन्ध से मन कभी भी शान्त नहीं होता । |
− | # क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते । हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है । | + | # क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते । हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है । |
| # संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार पर की गई स्वररचना, भारतीय वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है । | | # संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार पर की गई स्वररचना, भारतीय वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है । |
| # विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है । | | # विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है । |
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| मन की शिक्षा जबतक नहीं होती तब तक बुद्धि भी अनर्थकारी होती है । अनेक बुद्धिमान लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये और दूसरों को परेशान करने के लिये बुद्धि का प्रयोग करते हैं । मन अच्छा नहीं है और बुद्धि मन की दासी बन गई है इसीलिये ऐसा होता है । अतः बुद्धि की शिक्षा से भी पहले मन की शिक्षा आवश्यक है । | | मन की शिक्षा जबतक नहीं होती तब तक बुद्धि भी अनर्थकारी होती है । अनेक बुद्धिमान लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये और दूसरों को परेशान करने के लिये बुद्धि का प्रयोग करते हैं । मन अच्छा नहीं है और बुद्धि मन की दासी बन गई है इसीलिये ऐसा होता है । अतः बुद्धि की शिक्षा से भी पहले मन की शिक्षा आवश्यक है । |
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− | मन ही मनुष्य को सज्जन या दुर्जन बनाता है । दुर्जन मनुष्य अपनी और औरों की हानि करता है । सज्जन अपना और औरों का भला करता है । मन को सज्जन बनाना शेष सभी कार्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है इस बात को हमेशा स्मरण में रखना चाहिये । | + | मन ही मनुष्य को सज्जन या दुर्जन बनाता है । दुर्जन मनुष्य अपनी और औरों की हानि करता है । सज्जन अपना और औरों का भला करता है । मन को सज्जन बनाना शेष सभी कार्य से भी अधिक महत्वपूर्ण है इस बात को हमेशा स्मरण में रखना चाहिये । |
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| === अध्ययन की समस्या === | | === अध्ययन की समस्या === |
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| जरा विचार करें... | | जरा विचार करें... |
− | # मातापिता और समाज के लोग ज्ञान और भावना को महत्त्व नहीं देते, विद्यालय भवन, सुविधा, साधनसामग्री आदि को ही महत्त्व देते हैं । इसके आधार पर मूल्यांकन करते हैं । | + | # मातापिता और समाज के लोग ज्ञान और भावना को महत्व नहीं देते, विद्यालय भवन, सुविधा, साधनसामग्री आदि को ही महत्व देते हैं । इसके आधार पर मूल्यांकन करते हैं । |
| # अभिभावकों और शिक्षकों का एकदूसरे पर विश्वास नहीं है, इस कारण से परीक्षा, गृहकार्य आदि सब लिखित रूप में ही होते हैं । इस कारण से पढ़ने पढ़ाने की मौलिक पद्धतियों का विकास ही नहीं होता है । विद्यार्थियों का अध्ययन स्वाभाविक ढंग से नहीं चलता । | | # अभिभावकों और शिक्षकों का एकदूसरे पर विश्वास नहीं है, इस कारण से परीक्षा, गृहकार्य आदि सब लिखित रूप में ही होते हैं । इस कारण से पढ़ने पढ़ाने की मौलिक पद्धतियों का विकास ही नहीं होता है । विद्यार्थियों का अध्ययन स्वाभाविक ढंग से नहीं चलता । |
− | # अंकों का ही महत्त्व होने के कारण से उनके सन्दर्भ में ही पढ़ाया जाता है । परीक्षा पद्धति वर्षोवर्ष अत्यन्त यांत्रिक और अंकों के खेलवाली बन गई है, बनाई गई है इसलिये सबकी चिन्ता अंक है, ज्ञान नहीं । अतः अंक मिलते हैं, ज्ञान नहीं । | + | # अंकों का ही महत्व होने के कारण से उनके सन्दर्भ में ही पढ़ाया जाता है । परीक्षा पद्धति वर्षोवर्ष अत्यन्त यांत्रिक और अंकों के खेलवाली बन गई है, बनाई गई है इसलिये सबकी चिन्ता अंक है, ज्ञान नहीं । अतः अंक मिलते हैं, ज्ञान नहीं । |
| # शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब पलायन कर गये हैं । | | # शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब पलायन कर गये हैं । |
| # शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी अधिक बुरी तरह से आसुरी शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती । | | # शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी अधिक बुरी तरह से आसुरी शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती । |
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| इस दृष्टि से विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखायें ? | | इस दृष्टि से विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखायें ? |
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− | घर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये । | + | घर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये । |
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| घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये । | | घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये । |
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| गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात् गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये । | | गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात् गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये । |
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− | जीवन की कौन सी आयु में कया क्या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्त्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये | + | जीवन की कौन सी आयु में कया क्या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये |
| * सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा शुरू करना लाभदायी नहीं है । | | * सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा शुरू करना लाभदायी नहीं है । |
| * पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये । | | * पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये । |
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| गृहस्थाश्रम की इस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में देने से ही घर बचेंगे । घर बचेंगे तो संस्कृति बचेगी । | | गृहस्थाश्रम की इस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में देने से ही घर बचेंगे । घर बचेंगे तो संस्कृति बचेगी । |
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− | 8. घर में साथ साथ जीने का एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम व्यवसाय है । पतिपत्नी यदि एक ही व्यवसाय करते हैं, साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं और अपनी सन्तानो को भी अपने व्यवसाय में साथ लेने की योजना बनाते हैं तो घर कितना महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण स्थान बन जाता है इसकी कल्पना करने में भी आनन्द है । उसमें भी यदि घर में ही व्यवसाय भी चलता हो तो और भी अच्छा है । इससे सुख, समृद्धि और आनन्द तीनों मिलते हैं । ऐसे गृह के लाभ विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क में बिठाना विद्यालय का काम है । | + | 8. घर में साथ साथ जीने का एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम व्यवसाय है । पतिपत्नी यदि एक ही व्यवसाय करते हैं, साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं और अपनी सन्तानो को भी अपने व्यवसाय में साथ लेने की योजना बनाते हैं तो घर कितना महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण स्थान बन जाता है इसकी कल्पना करने में भी आनन्द है । उसमें भी यदि घर में ही व्यवसाय भी चलता हो तो और भी अच्छा है । इससे सुख, समृद्धि और आनन्द तीनों मिलते हैं । ऐसे गृह के लाभ विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क में बिठाना विद्यालय का काम है । |
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| आज यदि विद्यालयों ने ऐसा किया तो दो पीढ़ी बाद घर स्वयं शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे और प्रत्यक्ष विद्यालयों में ज्ञान के नये नये क्षेत्र खुलते जायेंगे । | | आज यदि विद्यालयों ने ऐसा किया तो दो पीढ़ी बाद घर स्वयं शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे और प्रत्यक्ष विद्यालयों में ज्ञान के नये नये क्षेत्र खुलते जायेंगे । |
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| ==== समाज के लिये समृद्धि और संस्कृति दोनों आवश्यक ==== | | ==== समाज के लिये समृद्धि और संस्कृति दोनों आवश्यक ==== |
− | सुसंस्कृत मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है । समाज के अंगभूत घटक बनकर रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक है, इष्ट भी है । परन्तु समाज के अंगभूत घटक बनकर रहने के लिये मनुष्य को साधना करनी होती है, बहुत कुछ सीखना होता है । यही उसका धर्म है, यही उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग है । | + | सुसंस्कृत मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है । समाज के अंगभूत घटक बनकर रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक है, इष्ट भी है । परन्तु समाज के अंगभूत घटक बनकर रहने के लिये मनुष्य को साधना करनी होती है, बहुत कुछ सीखना होता है । यही उसका धर्म है, यही उसकी शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है । |
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| श्रेष्ठ समाज के दो लक्षण हैं, एक है समृद्धि और दूसरा है संस्कृति । दोनों अनिवार्य हैं । दोनों एकदूसरे के लिये उपकारक हैं । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है । आसुरी समृद्धि कुछ समय तक तो सुख देने वाली होती है परन्तु अन्ततोगत्वा यह अपना और सबका नाश करती है । समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं हो सकती | धर्मों रक्षति रक्षित: अर्थात् धर्म की रक्षा करो तो धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा ऐसा वचन हमने सुना है । संस्कृति धर्म की ही रीति है इसलिये जो बात धर्म को लागू है वही संस्कृति को भी लागू है । संस्कृति की रक्षा करने से ही वह हमारी रक्षा करती है । समृद्धि नहीं है तो संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती । अतः दोनों चाहिये । | | श्रेष्ठ समाज के दो लक्षण हैं, एक है समृद्धि और दूसरा है संस्कृति । दोनों अनिवार्य हैं । दोनों एकदूसरे के लिये उपकारक हैं । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है । आसुरी समृद्धि कुछ समय तक तो सुख देने वाली होती है परन्तु अन्ततोगत्वा यह अपना और सबका नाश करती है । समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं हो सकती | धर्मों रक्षति रक्षित: अर्थात् धर्म की रक्षा करो तो धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा ऐसा वचन हमने सुना है । संस्कृति धर्म की ही रीति है इसलिये जो बात धर्म को लागू है वही संस्कृति को भी लागू है । संस्कृति की रक्षा करने से ही वह हमारी रक्षा करती है । समृद्धि नहीं है तो संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती । अतः दोनों चाहिये । |
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| # समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसीमें से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता... गया, बढ़ता. गया ।.. परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये । | | # समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसीमें से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता... गया, बढ़ता. गया ।.. परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये । |
| # समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है । हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात् विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है । | | # समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है । हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात् विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है । |
− | # विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान, अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये । | + | # विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान, अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये । |
| # समाज देवता स्वरूप है । सबने मिलकर जिस समृद्धि का निर्माण किया है वह समाज की समृद्धि है । उसका रक्षण और संवर्धन करना मेरा दायित्व है, उसे नष्ट नहीं करना या नष्ट नहीं होने देना मेरा दायित्व है । उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है । उसे मेरे स्वार्थ का साधन बनाने का या अपने स्वामित्व में लाने का मेरा अधिकार नहीं है । समाज की सम्पत्ति और समृद्धि का रक्षण करने की राज्य नामक एक व्यवस्था बनाई गई है । उसके कायदे कानून हैं, उसकी न्याय व्यवस्था है समाजकण्टटों के लिये दंड की व्यवस्था है । इस व्यवस्था का स्वीकार करना, उसका पालन करना भी हरेक का कर्तव्य है । यह भी सामाजिक दायित्वबोध का एक आयाम है । | | # समाज देवता स्वरूप है । सबने मिलकर जिस समृद्धि का निर्माण किया है वह समाज की समृद्धि है । उसका रक्षण और संवर्धन करना मेरा दायित्व है, उसे नष्ट नहीं करना या नष्ट नहीं होने देना मेरा दायित्व है । उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है । उसे मेरे स्वार्थ का साधन बनाने का या अपने स्वामित्व में लाने का मेरा अधिकार नहीं है । समाज की सम्पत्ति और समृद्धि का रक्षण करने की राज्य नामक एक व्यवस्था बनाई गई है । उसके कायदे कानून हैं, उसकी न्याय व्यवस्था है समाजकण्टटों के लिये दंड की व्यवस्था है । इस व्यवस्था का स्वीकार करना, उसका पालन करना भी हरेक का कर्तव्य है । यह भी सामाजिक दायित्वबोध का एक आयाम है । |
| # जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही ख्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये । | | # जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही ख्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये । |
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| इसके अतिरिक्त देशभक्ति जैसा कुछ होता है ऐसी समझ विद्यार्थियों में विकसित ही नहीं होती है । | | इसके अतिरिक्त देशभक्ति जैसा कुछ होता है ऐसी समझ विद्यार्थियों में विकसित ही नहीं होती है । |
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− | देशभक्ति की समझ, देशभक्ति की भावना और देशभक्ति का व्यवहार बने ऐसी शिक्षा विद्यालय में देनी चाहिये । यह शिक्षा शिशु से उच्च शिक्षा तक समान रूप से महत्त्वपूर्ण है । | + | देशभक्ति की समझ, देशभक्ति की भावना और देशभक्ति का व्यवहार बने ऐसी शिक्षा विद्यालय में देनी चाहिये । यह शिक्षा शिशु से उच्च शिक्षा तक समान रूप से महत्वपूर्ण है । |
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| ==== देशभक्ति की समझ ==== | | ==== देशभक्ति की समझ ==== |
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| ==== कृतिशील देशभक्ति ==== | | ==== कृतिशील देशभक्ति ==== |
− | ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है । | + | ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है । |
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| कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये... | | कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये... |
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| ३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें ... | | ३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें ... |
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− | हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्त्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ? | + | हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ? |
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| इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता । | | इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता । |