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हम कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं
 
हम कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं
 
* वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञानसम्मत व्यवहार होना ही चाहिय इसमें कोई आपत्ति नहीं है, केवल हमारी समझ ठीक होने की आवश्यकता है ।
 
* वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञानसम्मत व्यवहार होना ही चाहिय इसमें कोई आपत्ति नहीं है, केवल हमारी समझ ठीक होने की आवश्यकता है ।
* आज जि्सि विज्ञान कहा जाता है वह केवल भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान का सम्बन्ध केवल पंचमहाभूतात्मक पदार्थों से होता है । इसलिये उसे पदार्थविज्ञान भी कहा जाता है । परन्तु सृष्टि में केवल पंचमहाभूत ही नहीं है । उनके अलावा प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि भी हैं । सृष्टि के व्यवहार को ये सारे तत्त्व परिचालित करते हैं। उनमें भी विद्यार्थियों के दैनन्दिन व्यवहार में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक सूक्ष्म है । सूक्ष्म का सामान्य अर्थ हम छोटा समझते हैं, परन्तु सूक्ष्म का शास्त्रीय अर्थ अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी ऐसा तत्त्व है । अतः पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी हैं । जिस प्रकार पंचमहाभूतों का भौतिक विज्ञान है उस प्रकार प्राण का प्राणविज्ञान, मन का मनोविज्ञान, बुद्धि का विज्ञान, चित्त का आनन्दविज्ञान है। इन सबके परे आत्मविज्ञान है जिसे हम अध्यात्म कहते हैं ।  
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* आज जि्सि विज्ञान कहा जाता है वह केवल भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान का सम्बन्ध केवल पंचमहाभूतात्मक पदार्थों से होता है । इसलिये उसे पदार्थविज्ञान भी कहा जाता है । परन्तु सृष्टि में केवल पंचमहाभूत ही नहीं है । उनके अलावा प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि भी हैं । सृष्टि के व्यवहार को ये सारे तत्व परिचालित करते हैं। उनमें भी विद्यार्थियों के दैनन्दिन व्यवहार में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक सूक्ष्म है । सूक्ष्म का सामान्य अर्थ हम छोटा समझते हैं, परन्तु सूक्ष्म का शास्त्रीय अर्थ अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी ऐसा तत्व है । अतः पंचमहाभूतों से प्राण, प्राण से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से चित्त अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी हैं । जिस प्रकार पंचमहाभूतों का भौतिक विज्ञान है उस प्रकार प्राण का प्राणविज्ञान, मन का मनोविज्ञान, बुद्धि का विज्ञान, चित्त का आनन्दविज्ञान है। इन सबके परे आत्मविज्ञान है जिसे हम अध्यात्म कहते हैं ।  
 
इन सबका समन्वित विचार करना और उस विचार के अनुसार दृष्टिकोण बनना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है ।
 
इन सबका समन्वित विचार करना और उस विचार के अनुसार दृष्टिकोण बनना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है ।
 
* विज्ञान का सही नाम है शास्त्र । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है शास्त्रीय दृष्टिकोण । शास्त्र बुद्धि का विषय है । इसलिये वास्तव में बुद्धि को ही विज्ञान संज्ञा दी गई है। जो बुद्धिगम्य है और बुद्धिसम्मत है वह शास्त्रीय है वह वैज्ञानिक है ।
 
* विज्ञान का सही नाम है शास्त्र । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है शास्त्रीय दृष्टिकोण । शास्त्र बुद्धि का विषय है । इसलिये वास्तव में बुद्धि को ही विज्ञान संज्ञा दी गई है। जो बुद्धिगम्य है और बुद्धिसम्मत है वह शास्त्रीय है वह वैज्ञानिक है ।
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महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें...
 
महाविद्यालयीन छात्रों की यह मानसिकता है । परीक्षा में नकल करना उन्हें अपराध नहीं लगता है। इनकी मानसिकता के और आयाम भी उतने ही आघातजनक है। जरा देखें...
 
# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है{{Citation needed}} - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासन में रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
 
# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है{{Citation needed}} - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासन में रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है ।
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# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्व होता है ।
    
==== मानसिकता के जिम्मेदार कारण ====
 
==== मानसिकता के जिम्मेदार कारण ====
 
युवक युवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं:
 
युवक युवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं:
 
# छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
 
# छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
# परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।
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# परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।
 
# परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
 
# परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
# बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
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# बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
 
# कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
 
# कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
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==== आज की शिक्षा समझ नहीं बढाती ====
 
==== आज की शिक्षा समझ नहीं बढाती ====
विद्यार्थी का स्कूल बडा है, अनेक प्रकार की सुविधाओं से युक्त है, विद्यालय की फीस ऊँची है, स्कूल बस वातानुकूलित है, गणवेश बहुत सुन्दर है, साधनसामग्री उत्तम है, घर सम्पन्न है । परन्तु उसे गणित, भाषा, विज्ञान आदि कुछ भी नहीं आता है । विद्यार्थी परीक्षा पास कर लेता है परन्तु उसके पास जिसमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है उस विषय का ज्ञान नहीं है । वह समझता नहीं है, स्मरण में नहीं रख सकता है, लागू करने की तो बात ही नहीं है । जो पढ़ता है वह उसे अच्छा नहीं लगता । जो पढ़ रहा है उसका कोई प्रयोजन होता है इसकी तो कोई कल्पना भी नहीं है । कुछ नमूने देखें...
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विद्यार्थी का स्कूल बड़ा है, अनेक प्रकार की सुविधाओं से युक्त है, विद्यालय की फीस ऊँची है, स्कूल बस वातानुकूलित है, गणवेश बहुत सुन्दर है, साधनसामग्री उत्तम है, घर सम्पन्न है । परन्तु उसे गणित, भाषा, विज्ञान आदि कुछ भी नहीं आता है । विद्यार्थी परीक्षा पास कर लेता है परन्तु उसके पास जिसमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है उस विषय का ज्ञान नहीं है । वह समझता नहीं है, स्मरण में नहीं रख सकता है, लागू करने की तो बात ही नहीं है । जो पढ़ता है वह उसे अच्छा नहीं लगता । जो पढ़ रहा है उसका कोई प्रयोजन होता है इसकी तो कोई कल्पना भी नहीं है । कुछ नमूने देखें:
 
* प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनने हेतु आये सभी प्रत्याशियों को पूछा गया कि चौथी कक्षा के गणित के सवाल यदि आपको दिये गये तो कौन कौन हैं जिन्हें सौ प्रतिशत अंक मिलने का विश्वास है । एक ने भी ऐसा विश्वास नहीं बताया ।
 
* प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बनने हेतु आये सभी प्रत्याशियों को पूछा गया कि चौथी कक्षा के गणित के सवाल यदि आपको दिये गये तो कौन कौन हैं जिन्हें सौ प्रतिशत अंक मिलने का विश्वास है । एक ने भी ऐसा विश्वास नहीं बताया ।
* माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक बनने के प्रत्याशियों को दक्षिण भारत के चार राज्यों के नाम तो ऐसे ही हैं । बताने को कहा गया तब राजस्थान, आसाम आदि इसका अर्थ यह है कि शिक्षाक्षेत्र में सामान्य अर्थ में कहने वाले अनेक लोग निकले । भी कोई शिक्षित नहीं है, सामान्य अर्थ में भी यहाँ शिक्षा नहीं
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* माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक बनने के प्रत्याशियों को दक्षिण भारत के चार राज्यों के नाम बताने को कहा गया तब राजस्थान, आसाम आदि कहने वाले अनेक लोग निकले ।  इसका अर्थ यह है कि शिक्षाक्षेत्र में सामान्य अर्थ में भी कोई शिक्षित नहीं है, सामान्य अर्थ में भी यहाँ शिक्षा नहीं चलती ।
* चौबीस गुणा पाँच, पचीस गुणा सात आदि पूछने पर. चलती | कैल्क्युलैटर का प्रयोग करने वाले भी कम नहीं है ।
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* चौबीस गुणा पाँच, पचीस गुणा सात आदि पूछने पर कैल्क्युलैटर का प्रयोग करने वाले भी कम नहीं है ।
* शिक्षकों के एक वर्ग में प्रयोग किया गया। कोई एक पुस्तक खडे होकर पढ़ना । जहाँ गलती हो वहाँ बैठ जाना । तीस शिक्षकों के वर्ग में अधिकतम ढाई पंक्तियाँ पढ़ी गईं । कहीं नहीं लिखा है ऐसा पढ़ना, कहीं लिखा है वह नहीं पढना और कहीं लिखा है उससे अलग पढना ऐसी तीन प्रकार की गलतियाँ पायी गईं ।
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* शिक्षकों के एक वर्ग में प्रयोग किया गया। कोई एक पुस्तक खडे होकर पढ़ना । जहाँ गलती हो वहाँ बैठ जाना । तीस शिक्षकों के वर्ग में अधिकतम ढाई पंक्तियाँ पढ़ी गईं । जो नहीं लिखा है, उसे पढ़ना, जो लिखा है वह नहीं पढना और जो लिखा है उससे अलग पढना, ऐसी तीन प्रकार की गलतियाँ पायी गईं ।
* वर्ण्माला के, वाक्य के उच्चारण की अशुद्धियों का तो कोई हिसाब ही नहीं।  वर्तनी शुद्ध होने की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। श्रुतलेखन तो क्या अनुलेखन भी नहीं आता है।  
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* वर्णमाला के, वाक्य के उच्चारण की अशुद्धियों का तो कोई हिसाब ही नहीं।  वर्तनी शुद्ध होने की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। श्रुतलेखन तो क्या अनुलेखन भी नहीं आता है।  
* वैज्ञानिक और भौगोलिक तथ्यों की कोई जानकारी नहीं है । इतिहास और समाजशाख्र से कोई लेनादेना नहीं है।  
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* वैज्ञानिक और भौगोलिक तथ्यों की कोई जानकारी नहीं है । इतिहास और समाजशास्त्र से कोई लेनादेना नहीं है।  
 
* हमें क्या खाना चाहिये, कया नहीं खाना चाहिये, क्यों खाना या नहीं खाना चाहिये इसकी कोई सुध नहीं है ।
 
* हमें क्या खाना चाहिये, कया नहीं खाना चाहिये, क्यों खाना या नहीं खाना चाहिये इसकी कोई सुध नहीं है ।
 
* ये सब उत्तीर्ण होने वाले, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने.वाले विद्यार्थियों के नमूने हैं, अनुस्नातक पदवी प्राप्त.करने वाले, कभी तो पीएचडी प्राप्त करने वाले. विद्यार्थियों के उदाहरण हैं, शिक्षकों के उदाहरण हैं, अच्छे विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों के उदाहरण हैं । सरकारी विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों को तो आठवीं  तक पढ़ने के बाद भी अक्षरज्ञान  या अंकज्ञान नहीं होता है।  
 
* ये सब उत्तीर्ण होने वाले, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने.वाले विद्यार्थियों के नमूने हैं, अनुस्नातक पदवी प्राप्त.करने वाले, कभी तो पीएचडी प्राप्त करने वाले. विद्यार्थियों के उदाहरण हैं, शिक्षकों के उदाहरण हैं, अच्छे विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों के उदाहरण हैं । सरकारी विद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थियों को तो आठवीं  तक पढ़ने के बाद भी अक्षरज्ञान  या अंकज्ञान नहीं होता है।  
* जानकारी तो शिक्षा का प्रथम चरण है । समझना,  उसका मर्म और प्रयोजन जानना, उसे लागू करना आगे   के चरण हैं । प्रथम चरण ही ठीक नहीं है तो आगे के और चरणों की तो बात ही नहीं की जा सकती । कोई दो  पाँच प्रतिशत ऐसे होंगे जो तेजस्वी छात्र हैं, अधिकांश तो ऐसे ही है।  
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* जानकारी तो शिक्षा का प्रथम चरण है । समझना,  उसका मर्म और प्रयोजन जानना, उसे लागू करना आगे के चरण हैं । प्रथम चरण ही ठीक नहीं है तो आगे के और चरणों की तो बात ही नहीं की जा सकती । कोई दो  पाँच प्रतिशत ऐसे होंगे जो तेजस्वी छात्र हैं, अधिकांश तो ऐसे ही है।  
 
इसका अर्थ यह है की शिक्षाक्षेत्र में सामान्य अर्थ में भी कोई शिक्षित नहीं है, सामान्य अर्थ में भी यहाँ शिक्षा नहीं चलती।  
 
इसका अर्थ यह है की शिक्षाक्षेत्र में सामान्य अर्थ में भी कोई शिक्षित नहीं है, सामान्य अर्थ में भी यहाँ शिक्षा नहीं चलती।  
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क्या हमारे छात्र इतने निर्बुद्ध हैं कि उन्हें कुछ भी आता जाता नहीं ? क्या उनमें शिक्षा ग्रहण करने की जरा भी क्षमता नहीं है ?
 
क्या हमारे छात्र इतने निर्बुद्ध हैं कि उन्हें कुछ भी आता जाता नहीं ? क्या उनमें शिक्षा ग्रहण करने की जरा भी क्षमता नहीं है ?
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क्या हमारे विद्यार्थियों के मातापिता इतने अनाडी हैं कि उन्हें अपनी सन्तानों को वास्तव में कुछ आता नहीं है इसका पता ही नहीं चलता ? या उसकी कोई परवाह ही नहीं है ?
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क्या हमारे विद्यार्थियों के मातापिता इतने अनाड़ी हैं कि उन्हें अपनी सन्तानों को वास्तव में कुछ आता नहीं है इसका पता ही नहीं चलता ? या उसकी कोई परवाह ही नहीं है ?
    
क्या हमारे शिक्षक ऐसे हैं जो पढाना जानते नहीं हैं या चाहते नहीं हैं ?
 
क्या हमारे शिक्षक ऐसे हैं जो पढाना जानते नहीं हैं या चाहते नहीं हैं ?
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# शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब पलायन कर गये हैं ।
 
# शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब पलायन कर गये हैं ।
 
# शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी अधिक बुरी तरह से आसुरी शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
 
# शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी अधिक बुरी तरह से आसुरी शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
विट्रज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
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विद्वज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
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ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्त्वों के अधीन कैसे करेगा ? इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
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ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्वों के अधीन कैसे करेगा ? इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
    
परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा ।
 
परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा ।
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==== देशव्यापी अर्थदृष्टि का संकट ====
 
==== देशव्यापी अर्थदृष्टि का संकट ====
भारत धर्म को प्रधानता देने वाला देश रहा है। समृद्धि होनी चाहिये, बहुत होनी चाहिये, उपभोग लेना चाहिये, आनन्द-प्रमोद्‌ करना चाहिये, वैभवी जीवन जीना चाहिये परन्तु सबकुछ धर्म के अविरोधी होना चाहिये ऐसी प्राचीन समय से भारत की दृष्टि रही है। उस दृष्टि के अनुसार ही जीवनशैली का विकास हुआ है, सारी व्यवस्थायें बनी हैं । परन्तु ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण हमारे राष्ट्रजीवन में धर्म के स्थान पर अर्थ केन्द्रस्थान पर आ गया । इस कारण से हमारे सारे व्यवहारों और व्यवस्थाओं का अन्तस्तत्त्व बदल गया, हमारी प्राथमिकतायें बदल गईं, हमारे विचार बदल गये । इस परिवर्तन के परिणाम हमें कुछ इस रूप में दीखते हैं
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भारत धर्म को प्रधानता देने वाला देश रहा है। समृद्धि होनी चाहिये, बहुत होनी चाहिये, उपभोग लेना चाहिये, आनन्द-प्रमोद्‌ करना चाहिये, वैभवी जीवन जीना चाहिये परन्तु सबकुछ धर्म के अविरोधी होना चाहिये ऐसी प्राचीन समय से भारत की दृष्टि रही है। उस दृष्टि के अनुसार ही जीवनशैली का विकास हुआ है, सारी व्यवस्थायें बनी हैं । परन्तु ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण हमारे राष्ट्रजीवन में धर्म के स्थान पर अर्थ केन्द्रस्थान पर आ गया । इस कारण से हमारे सारे व्यवहारों और व्यवस्थाओं का अन्तस्तत्व बदल गया, हमारी प्राथमिकतायें बदल गईं, हमारे विचार बदल गये । इस परिवर्तन के परिणाम हमें कुछ इस रूप में दीखते हैं
# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है । राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
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# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है। राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
 
# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
 
# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं ।
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शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं।
    
==== अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण ====
 
==== अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण ====
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
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ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें:
 
# घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
 
# घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
# घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
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# घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का एहसास होता है ।
 
# कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
 
# कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
# पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
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# पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निरदर्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
 
# जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
 
# जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
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# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्सीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँ ने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाड़ीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया । साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है ।
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# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है। उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है। रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया। साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है।
# घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
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# घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं। नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं। चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शास्त्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का दरिद्र होना अवश्यंभावी है ।
# आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है ।
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# आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हफ्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है।
    
=== अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है ===
 
=== अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है ===
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# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगों की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
 
# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगों की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
 
# लोगों के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगों की अथर्जिन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
 
# लोगों के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगों की अथर्जिन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
इस प्रकार आर्थिक दृष्टी और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
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इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
    
=== विद्यार्थियों का गृहजीवन ===
 
=== विद्यार्थियों का गृहजीवन ===
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परन्तु नहीं, पूर्व में देखा वैसे विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।  
 
परन्तु नहीं, पूर्व में देखा वैसे विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।  
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “बसुधैव कुट्म्बकम्‌ के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्त्तमान शिक्षा सर्वथा
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुट्म्बकम्‌ के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्त्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।
 
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विपरीत दिशामें जा रही है और परिवारभावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।
      
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
 
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
 
इस दृष्टि से विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखायें ?
 
इस दृष्टि से विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखायें ?
 
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# घर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये ।
घर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये ।
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# घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये ।
 
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# साथ साथ रहना तो समझ में आता है परन्तु साथ जीना अब लोगों को समझ में नहीं आता । एक तीसरी कक्षा में पढने वाली बालिका एक दिन घर आकर अपनी दादीमाँ को वर्षा कैसे होती है यह समझाती है क्योंकि आज विद्यालय में यह सिखाया गया है । दादीमाँ यह नहीं कहती कि मुझे सब पता है । वह पोती से सीखती है । विद्यालय की सारी बातों की चर्चा भोजन की टेबल पर होती है । पिताजी के कार्यालय की बातें भी होती है । टीवी की भी होती है । हास्यविनोद, मार्गदर्शन, नियमन, नियन्त्रण सब कुछ होता है । एकदूसरे में रुचि बढती है । ऐसा साथ जीना आज असम्भव सा हो गया है । संवाद ही नहीं होता है । घर में रहनेवालों की हरेक की दुनिया अलग अलग हो गई है । घर के सब लोग साथ जीयें यह देखना मातापिता का काम है परन्तु ऐसे मातापिता बनने हेतु प्रेरित करना विद्यालयों का काम है ।
घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये ।
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# घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के बीच में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
 
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# एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है। महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
साथ साथ रहना तो समझ में आता है परन्तु साथ जीना अब लोगों को समझ में नहीं आता । एक तीसरी कक्षा में पढने वाली बालिका एक दिन घर आकर अपनी दादीमाँ को वर्षा कैसे होती है यह समझाती है क्योंकि आज विद्यालय में यह सिखाया गया है । दादीमाँ यह नहीं कहती कि मुझे सब पता है । वह पोती से सीखती है । विद्यालय की सारी बातों की चर्चा भोजन की टेबल पर होती है । पिताजी के कार्यालय की बातें भी होती है । टीवी की भी होती है । हास्यविनोद, मार्गदर्शन, नियमन, नियन्त्रण सब कुछ होता है । एकदूसरे में रुचि बढती है । ऐसा साथ जीना आज असम्भव सा हो गया है । संवाद ही नहीं होता है । घर में रहनेवालों की हरेक की दुनिया अलग अलग हो गई है । घर के सब लोग साथ जीयें यह देखना मातापिता का काम है परन्तु ऐसे मातापिता बनने हेतु प्रेरित करना विद्यालयों का काम है ।
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# गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
 
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# जीवन की कौन सी आयु में क्या क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के बीच में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
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#* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा शुरू करना लाभदायी नहीं है ।
 
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#* पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये ।
एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है । महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
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#* बीस वर्ष की आयु तक लडकियों की और पचीस तक लडकों की शादी हो जाना अच्छा है ।
 
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#* बत्तीस से पैंतीस वर्ष की आयु तक दो तीन बच्चों के मातापिता बन जाना अच्छा है ।
गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
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#* एक ही सन्तान होना कभी भी अच्छा नहीं है, दो या तीन तो होने ही चाहिये ।
 
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#* साठ वर्ष की आयु में सभी सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ हो जाना अत्यन्त लाभकारी है। वानप्रस्थ अवस्था में समाजसेवा करना अनिवार्य मानना चाहिये ।
जीवन की कौन सी आयु में कया क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
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#* घर की अर्थव्यवस्था में दान और बचत को अनिवार्य मानना चाहिये ।
* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा शुरू करना लाभदायी नहीं है ।
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#* घर में स्वाध्याय और सत्संग होने ही चाहिये ।
* पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये ।
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#* गृहस्थाश्रम की इस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में देने से ही घर बचेंगे । घर बचेंगे तो संस्कृति बचेगी ।
* बीस वर्ष की आयु तक लडकियों की और पचीस तक लडकों की शादी हो जाना अच्छा है ।
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# घर में साथ साथ जीने का एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम व्यवसाय है । पतिपत्नी यदि एक ही व्यवसाय करते हैं, साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं और अपनी सन्तानो को  भी अपने व्यवसाय में साथ लेने की योजना बनाते हैं तो घर कितना महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण स्थान बन जाता है इसकी कल्पना करने में भी आनन्द है । उसमें भी यदि घर में ही व्यवसाय भी चलता हो तो और भी अच्छा है । इससे सुख, समृद्धि और आनन्द तीनों मिलते हैं । ऐसे गृह के लाभ विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क में बिठाना विद्यालय का काम है ।
* बत्तीस से पैंतीस वर्ष की आयु तक दो तीन बच्चों के मातापिता बन जाना अच्छा है ।
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* एक ही सन्तान होना कभी भी अच्छ नहीं है, दो या तीन तो होने ही चाहिये ।
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* साठ वर्ष की आयु में सभी सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ हो जाना अत्यन्त लाभकारी है। वानप्रस्थ अवस्था में समाजसेवा करना अनिवार्य मानना चाहिये ।
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* घर की अर्थव्यवस्था में दान और बचत को अनिवार्य मानना चाहिये ।
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* घर में स्वाध्याय और सत्संग होने ही चाहिये ।  
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गृहस्थाश्रम की इस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में देने से ही घर बचेंगे । घर बचेंगे तो संस्कृति बचेगी ।
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8. घर में साथ साथ जीने का एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम व्यवसाय है । पतिपत्नी यदि एक ही व्यवसाय करते हैं, साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं और अपनी सन्तानो को  भी अपने व्यवसाय में साथ लेने की योजना बनाते हैं तो घर कितना महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण स्थान बन जाता है इसकी कल्पना करने में भी आनन्द है । उसमें भी यदि घर में ही व्यवसाय भी चलता हो तो और भी अच्छा है । इससे सुख, समृद्धि और आनन्द तीनों मिलते हैं । ऐसे गृह के लाभ विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क में बिठाना विद्यालय का काम है ।
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आज यदि विद्यालयों ने ऐसा किया तो दो पीढ़ी बाद घर स्वयं शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे और प्रत्यक्ष विद्यालयों में ज्ञान के नये नये क्षेत्र खुलते जायेंगे ।
 
आज यदि विद्यालयों ने ऐसा किया तो दो पीढ़ी बाद घर स्वयं शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे और प्रत्यक्ष विद्यालयों में ज्ञान के नये नये क्षेत्र खुलते जायेंगे ।
   Line 383: Line 372:     
==== संस्कृति के अभाव में समृद्धि आसुरी बन जाती है उसके क्या लक्षण हैं ? ====
 
==== संस्कृति के अभाव में समृद्धि आसुरी बन जाती है उसके क्या लक्षण हैं ? ====
* समृद्धि प्राप्त करने के लिये असंस्कारी व्यक्ति अनैतिक पद्धति अपनाता है । वह असत्य, कपट और शोषण का मार्ग अपनाता है ।
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* समृद्धि प्राप्त करने के लिये असंस्कारी व्यक्ति अनैतिक पद्धति अपनाता है । वह असत्य, कपट और शोषण का मार्ग अपनाता है।
 
* अपना अधिकार नहीं है ऐसी वस्तुयें भी प्राप्त करने की चाह रखता है, प्राप्त करने के प्रयास भी करता है।
 
* अपना अधिकार नहीं है ऐसी वस्तुयें भी प्राप्त करने की चाह रखता है, प्राप्त करने के प्रयास भी करता है।
 
* वह चोरी और लूट करता है, दुर्बलों की सम्पत्ति छीन लेता है ।
 
* वह चोरी और लूट करता है, दुर्बलों की सम्पत्ति छीन लेता है ।
Line 398: Line 387:  
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
 
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
 
* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
 
* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगों को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चस्त्रि की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
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* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगों को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चरित्र की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
    
==== समाज के दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू ====
 
==== समाज के दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू ====
विद्यालयों को अपने विद्यार्थियों को. सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देनी चाहिए। सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू इस प्रकार हैं....
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विद्यालयों को अपने विद्यार्थियों को. सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देनी चाहिए। सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा के पहलू इस प्रकार हैं:
 
# सारे मनुष्य एक हैं, समान हैं, समान रूप से स्नेह और आदर के पात्र हैं ऐसा भाव जागय्रत करना प्रमुख बात है । इसे परिवारभावना कहते हैं, आत्मीयता कहते हैं । मिलबाँटकर उपभोग करने की वृत्ति और प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले, ऐसा करने की प्रेरणा मिले. ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन करना चाहिये । ऐसी कहानियाँ, चरित्रकथन, सत्यघटनाओं का वृत्त विद्यार्थियों को बताना चाहिये ।  
 
# सारे मनुष्य एक हैं, समान हैं, समान रूप से स्नेह और आदर के पात्र हैं ऐसा भाव जागय्रत करना प्रमुख बात है । इसे परिवारभावना कहते हैं, आत्मीयता कहते हैं । मिलबाँटकर उपभोग करने की वृत्ति और प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले, ऐसा करने की प्रेरणा मिले. ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन करना चाहिये । ऐसी कहानियाँ, चरित्रकथन, सत्यघटनाओं का वृत्त विद्यार्थियों को बताना चाहिये ।  
 
# समाज में तरह तरह के मनुष्य होते हैं । सब एकदूसरे से भिन्न होते हैं । सबके स्वभाव, रूपरंग, कौशल, ज्ञान, गुणदोष भिन्न भिन्न होते हैं । इन भेदों के कारण सुन्दरता निर्माण होती है । भेदों को ऊँचनीच  न मानकर वैविध्य और सुन्दरता मानना सिखाना चाहिये । भेदभाव न पनपे यह देखना चाहिये । जो  जैसा है वैसा ही स्नेह का पात्र है, आत्मीय है ऐसा भाव जागृत करना चाहिये । यह सामाजिक समरसता है । समरसता से ही समाज में सुख, शान्ति, सुरक्षा, निश्चितता पनपते हैं, संस्कृति की रक्षा होती है और समृद्धि बढती है ।
 
# समाज में तरह तरह के मनुष्य होते हैं । सब एकदूसरे से भिन्न होते हैं । सबके स्वभाव, रूपरंग, कौशल, ज्ञान, गुणदोष भिन्न भिन्न होते हैं । इन भेदों के कारण सुन्दरता निर्माण होती है । भेदों को ऊँचनीच  न मानकर वैविध्य और सुन्दरता मानना सिखाना चाहिये । भेदभाव न पनपे यह देखना चाहिये । जो  जैसा है वैसा ही स्नेह का पात्र है, आत्मीय है ऐसा भाव जागृत करना चाहिये । यह सामाजिक समरसता है । समरसता से ही समाज में सुख, शान्ति, सुरक्षा, निश्चितता पनपते हैं, संस्कृति की रक्षा होती है और समृद्धि बढती है ।
# समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसीमें से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता... गया, बढ़ता. गया ।.. परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये ।
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# समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसी में से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता गया, बढ़ता गया। परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये ।
# समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है । हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात्‌ विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है ।
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# समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है। हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात्‌ विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है ।
 
# विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान,  अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये ।
 
# विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान,  अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये ।
# समाज देवता स्वरूप है । सबने मिलकर जिस समृद्धि का निर्माण किया है वह समाज की समृद्धि है । उसका रक्षण और संवर्धन करना मेरा दायित्व है, उसे नष्ट नहीं करना या नष्ट नहीं होने देना मेरा दायित्व है । उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है । उसे मेरे स्वार्थ का साधन बनाने का या अपने स्वामित्व में लाने का मेरा अधिकार नहीं है । समाज की सम्पत्ति और समृद्धि का रक्षण करने की राज्य नामक एक व्यवस्था बनाई गई है । उसके कायदे कानून हैं, उसकी न्याय व्यवस्था है समाजकण्टटों के लिये दंड  की व्यवस्था है । इस व्यवस्था का स्वीकार करना, उसका पालन करना भी हरेक का कर्तव्य है । यह भी सामाजिक दायित्वबोध का एक आयाम है ।
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# समाज देवता स्वरूप है । सबने मिलकर जिस समृद्धि का निर्माण किया है वह समाज की समृद्धि है । उसका रक्षण और संवर्धन करना मेरा दायित्व है, उसे नष्ट नहीं करना या नष्ट नहीं होने देना मेरा दायित्व है । उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है। उसे मेरे स्वार्थ का साधन बनाने का या अपने स्वामित्व में लाने का मेरा अधिकार नहीं है । समाज की सम्पत्ति और समृद्धि का रक्षण करने की राज्य नामक एक व्यवस्था बनाई गई है । उसके कायदे कानून हैं, उसकी न्याय व्यवस्था है समाजकण्टटों के लिये दंड  की व्यवस्था है । इस व्यवस्था का स्वीकार करना, उसका पालन करना भी हरेक का कर्तव्य है। यह भी सामाजिक दायित्वबोध का एक आयाम है ।
# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही ख्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
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# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही स्त्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
 
# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगों का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगों को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को, दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
 
# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगों का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगों को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को, दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है । इस दृष्टि से सम्यकू व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
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# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है। इस दृष्टि से सम्यक व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  
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==== देशभक्ति की समझ ====
 
==== देशभक्ति की समझ ====
 
# जिसे देश कहते हैं उसे वास्तविक रूप में राष्ट्र कहा जाता है । राष्ट्र केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक इकाई है ।
 
# जिसे देश कहते हैं उसे वास्तविक रूप में राष्ट्र कहा जाता है । राष्ट्र केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक इकाई है ।
# राष्ट्र भूमि का टुकडा मात्र नहीं है । वह भूमि, भूमि के ऊपर रहने वाली प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । तत्त्व के रूप में राष्ट्र जीवनदर्शन है और व्यवहार के रूप में जीवनदर्शन, प्रजा और भूमि ये तीनों मिलकर राष्ट्र बनता है ।
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# राष्ट्र भूमि का टुकडा मात्र नहीं है । वह भूमि, भूमि के ऊपर रहने वाली प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । तत्व के रूप में राष्ट्र जीवनदर्शन है और व्यवहार के रूप में जीवनदर्शन, प्रजा और भूमि ये तीनों मिलकर राष्ट्र बनता है ।
 
# भूमि और उस पर रहनेवाली प्रजा का माता और पुत्र का सम्बन्ध होना अनिवार्य है । जगत में इस सम्बन्ध को विभिन्न नाम भले ही दिये गये हों तो भी भावना एक ही है । जैसे कि अंग्रेजी भाषा में मातृभामि के स्थान पर पितृभूमि और अरबी, फारसी आदि भाषाओं में वतन अथवा मादरे वतन कहा जाता है । भूमि के लिये भक्तिभाव होना राष्ट्रीय होने की अर्थात्‌ देश के नागरिक होने की प्रथम शर्त है ।
 
# भूमि और उस पर रहनेवाली प्रजा का माता और पुत्र का सम्बन्ध होना अनिवार्य है । जगत में इस सम्बन्ध को विभिन्न नाम भले ही दिये गये हों तो भी भावना एक ही है । जैसे कि अंग्रेजी भाषा में मातृभामि के स्थान पर पितृभूमि और अरबी, फारसी आदि भाषाओं में वतन अथवा मादरे वतन कहा जाता है । भूमि के लिये भक्तिभाव होना राष्ट्रीय होने की अर्थात्‌ देश के नागरिक होने की प्रथम शर्त है ।
 
# भूमि यदि माता है तो प्रजा में आपस में बन्धुभाव है यह भी स्वाभाविक है । देश की सम्पत्ति मेरी है, देश की प्रजा मेरी है, देश की नदियाँ, पर्वत, अरण्य सब मेरे हैं ऐसा भाव होना भी उतना ही स्वाभाविक है ।  
 
# भूमि यदि माता है तो प्रजा में आपस में बन्धुभाव है यह भी स्वाभाविक है । देश की सम्पत्ति मेरी है, देश की प्रजा मेरी है, देश की नदियाँ, पर्वत, अरण्य सब मेरे हैं ऐसा भाव होना भी उतना ही स्वाभाविक है ।  
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६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।   
 
६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।   
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७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टी से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।   
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७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।   
    
८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव स्थायी बनना चाहिये ।  
 
८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव स्थायी बनना चाहिये ।  

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