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# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है{{Citation needed}} - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासन में रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
 
# हम महाविद्यालय में पढ़ रहे हैं, अब हम स्वतन्त्र हैं, हमें कोई टोक नहीं सकता । वस्त्र परिधान में, खान पान में, मनोरंजन में हमें न किसी का परामर्श चाहिये, न मार्गदर्शन, न निषेध । दस प्रतिशत विद्यार्थी अपनी पढाई को गम्भीरता से लेते हैं, शेष मजे करने के लिये महाविद्यालय में जाते हैं । महाविद्यालय में जाकर कक्षा में नहीं जाना, होटल में जाना, स्कूटर या बाइक पर बैठकर बातें करना, छेडछाड करना आम बात है। महाविद्यालयों के प्रवास कार्यक्रमों में, रंगमंच कार्यक्रमों में, स्वतन्त्रता के नाम पर स्वैरता, उच्छृखलता और स्वच्छन्दता दिखाई देती है । कला के प्रदर्शन में सुरुचि, संस्कारिता और आभिजात्य नहीं दिखाई देते हैं . टीवी कार्यक्रमों, धारावाहिकों तथा फिल्मों का प्रभाव वेशभूषा, केशभूषा, अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन, बोलचाल आदि में दिखाई देता है । देशभक्ति और सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखाई देते । नवरात्रि, ख्रिस्ती नूतनवर्ष, वेलेण्टाइन डे जैसे समारोहों में स्खलनों की कोई सीमा नहीं रहती । हमारे अनुभवी मनीषियों ने कह रखा है{{Citation needed}} - यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वं अविवेकिता।  एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्यम् ।।अर्थात यौवन, धनसम्पत्ति, सत्ता और अविवेक में से एक भी यदि है तो वह अनर्थ का कारण बनता है। जहाँ चारों एकत्र हों तब तो अनर्थ की सीमा ही नहीं रहती । आज के महाविद्यालय के विद्यार्थियों में दो तो होते ही हैं। ये हैं यौवन और दूसरा है अविवेक । ठीक से संगोपन और अध्ययन नहीं होने के कारण से विवेक का विकास नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप अनर्थों की परम्परा निर्मित होती है। अपने अध्यापकों के प्रति उन्हें आदर नहीं होता। अनुशासन में रहने की वृत्ति नहीं होती । गम्भीर अध्ययन करने की न इच्छा होती है न क्षमता । उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं ।
 
# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है ।
 
# जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढ़ता है अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है। अर्थार्जन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है। साथ ही मजे करने की वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लडके नौकरी और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं । उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्व अधिक होता है। जितना अधिक पढती हैं और अधिक कमाई करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती जाती है। लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है। लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है। जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है। अपने विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है ।
# एक स्थिति का स्मरण आता है। घटना कुछ पुरानी है। दिल्ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं। चौबीस घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के साथ बातें ही कर रही थीं। नीचे लोग बातें कर रहे थे । १९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह ही बीता था। रेल में अनपढ, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा कर रहे थे. वातावरण में गर्मी, जोश. उत्तेजना आदि सब थे परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनीही बातों में मस्त थीं। उनकी बातें होटेल, फैशन और बॉयफ्रेण्ड तक ही सीमित थीं। न उन्हें नीचे वालों की सुध थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की।ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं। समाज के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है।
      
==== मानसिकता के जिम्मेदार कारण ====
 
==== मानसिकता के जिम्मेदार कारण ====
युवकयुवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं....
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युवक युवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं:
 
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# छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
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# परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।
 
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# परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं ।
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# बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
 
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# कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।  
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३. परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
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४. बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं ।
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स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्त्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
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५. कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना शुरू किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से शुरू होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
      
==== सही मानसिकता बनाने के प्रयास ====
 
==== सही मानसिकता बनाने के प्रयास ====
 
अतः विद्यालयों में सही मानसिकता निर्माण करने को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानना चाहिये । जितना ज्ञान का महत्व है उतना ही ज्ञान के प्रति व्यवहार करने का है ।
 
अतः विद्यालयों में सही मानसिकता निर्माण करने को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानना चाहिये । जितना ज्ञान का महत्व है उतना ही ज्ञान के प्रति व्यवहार करने का है ।
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इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है...
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इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है:
 
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# विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है ।
विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है ।
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# उसी प्रकार से परीक्षा का महत्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी ।
 
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# नीतिमत्ता, विश्वास, श्रद्धा, संस्कार, विनयशीलता, सदाचार आदि का अधिक महत्व प्रस्थापित करना चाहिए।
उसी प्रकार से परीक्षा का महत्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी ।
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# अध्यापन की पद्धति, गृहकार्य का स्वरूप, कार्यक्रमों का स्वरूप भी बदलना चाहिये ।
 
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# शिक्षक स्वयं परिश्रम, नीतिमत्ता, सदाचार आदि के मामले में प्रेरक बन सकते हैं किंबहुना वे ही प्रेरक हैं । उनमें होगा तो विद्यार्थियों में आयेगा ।
नीतिमत्ता, विश्वास, श्रद्धा, संस्कार, विनयशीलता, सदाचार आदि का अधिक महत्व प्रस्थापित करना चाहिए।  
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# समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ में बदलना चाहिए। तभी शिक्षा की स्थिति बदल सकती है।
 
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अध्यापन की पद्धति, गृहकार्य का स्वरूप, कार्यक्रमों का स्वरूप भी बदलना चाहिये ।
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शिक्षक स्वयं परिश्रम, नीतिमत्ता, सदाचार आदि के मामले में प्रेरक बन सकते हैं किंबहुना वे ही प्रेरक हैं । उनमें होगा तो विद्यार्थियों में आयेगा ।
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समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ में बदलना चाहिए। तभी शिक्षा की स्थिति बदल सकती है।  
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मानसिकता में बदल किये बिना शिक्षा क्षेत्र समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकता अतः सभी सम्बंधित लोगों को मिलकर सही मानसिकता बनाने का प्रयास करना चाहिए।  
 
मानसिकता में बदल किये बिना शिक्षा क्षेत्र समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकता अतः सभी सम्बंधित लोगों को मिलकर सही मानसिकता बनाने का प्रयास करना चाहिए।  
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तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रन्थि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगना, पेटदर्द, कब्ज आदि सब इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।
 
तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रन्थि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगना, पेटदर्द, कब्ज आदि सब इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।
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चौदह पन्द्रह वर्ष की आयु के विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं यह बात अनेक बार सुनने को मिलती है। मनपसन्द लडकी या लडके से विवाह नहीं हो सकता इसलिये युवक या युवती आत्महत्या कर लेते हैं । कभी मनपसन्द लडकी दूसरे लडके के साथ रिश्ता बनाती है तब उस लडके की अथवा लडकी की हत्या कर दी जाती है । अभी कुछ दिनों पूर्व जानने को मिला कि महानगर के एक. प्रतिष्ठित विद्यालय के सातवीं कक्षा के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तोल है और वह अपनी माँ को और शिक्षिका को मारना चाहता है ।
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चौदह पन्द्रह वर्ष की आयु के विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं यह बात अनेक बार सुनने को मिलती है। मनपसन्द लडकी या लडके से विवाह नहीं हो सकता इसलिये युवक या युवती आत्महत्या कर लेते हैं । कभी मनपसन्द लडकी दूसरे लडके के साथ रिश्ता बनाती है तब उस लडके की अथवा लडकी की हत्या कर दी जाती है । अभी कुछ दिनों पूर्व जानने को मिला कि महानगर के एक प्रतिष्ठित विद्यालय के सातवीं कक्षा के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल है और वह अपनी माँ को और शिक्षिका को मारना चाहता है ।
    
यह आत्महत्या की मानसिकता प्रत्यक्ष आत्महत्या से अनेक गुना अधिक है ।
 
यह आत्महत्या की मानसिकता प्रत्यक्ष आत्महत्या से अनेक गुना अधिक है ।
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पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक की छोटी कक्षाओं के बच्चे भयभीत हैं । गृहकार्य नहीं किया इसलिये शिक्षक डाटेंगे इसका भय, बस में साथ वाले विद्यार्थी चिढ़ायेंगे इसका भय, नास्ते में केक नहीं ले गया इसलिये सब मजाक उडायेंगे इसका भय, प्रश्न का उत्तर नहीं आया इसका भय । बडी कक्षाओं में मित्र हँसेंगे इसका भय, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिलेंगे तो मातापिता नाराज होंगे इसका भय, मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा इसका भय, मनपसन्द लडकी होटेल में साथ नहीं आयेगी इसका भय । चारों ओर भय का.साम्राज्य है । यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब  इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है।  
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पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक की छोटी कक्षाओं के बच्चे भयभीत हैं । गृहकार्य नहीं किया, इसलिये शिक्षक डाटेंगे - इसका भय, बस में साथ वाले विद्यार्थी चिढ़ायेंगे - इसका भय, नाश्ते में केक नहीं ले गया, इसलिये सब मजाक उडायेंगे - इसका भय, प्रश्न का उत्तर नहीं आया - इसका भय । बडी कक्षाओं में मित्र हँसेंगे - इसका भय, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिलेंगे तो मातापिता नाराज होंगे - इसका भय, मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा - इसका भय, मनपसन्द लडकी होटेल में साथ नहीं आयेगी - इसका भय ।
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चारों ओर भय का.साम्राज्य है। यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब  इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है।  
    
दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना ।  
 
दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना ।  
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आज सर्वत्र विपरीत वातावरण दिखाई देता है । धैर्य, मनोबल, डटे रहने का साहस युवाओं में भी नहीं दिखाई देता । पलायन करना, समझौते कर लेना, अल्पतामें ही सन्तोष मानना सामान्य बात हो गई है । यह अत्यन्त घातक लक्षण है। जिसमें मन की शक्ति नहीं है वह कभी भी अपना विकास नहीं कर सकता ।  
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आज सर्वत्र विपरीत वातावरण दिखाई देता है । धैर्य, मनोबल, डटे रहने का साहस युवाओं में भी नहीं दिखाई देता । पलायन करना, समझौते कर लेना, अल्पता में ही सन्तोष मानना सामान्य बात हो गई है । यह अत्यन्त घातक लक्षण है। जिसमें मन की शक्ति नहीं है वह कभी भी अपना विकास नहीं कर सकता ।  
    
==== नई पीढ़ी का मनोबल बढ़ाना ====
 
==== नई पीढ़ी का मनोबल बढ़ाना ====
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हम प्रथम विद्यालय की ही बात करेंगे ।
 
हम प्रथम विद्यालय की ही बात करेंगे ।
 
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# मन को बलवान बनाने हेतु प्रथम मन को जीतने की आवश्यकता होती है । यदि हमने मन को वश में नहीं किया तो वह भटक जाता है और हमें भी भटका देता है । यदि उसे जीता तो उसकी शक्ति बढती है और वह हमारे भी सारे काम यशस्वी बनाता है ।
१, मन को बलवान बनाने हेतु प्रथम मन को जीतने की आवश्यकता होती है । यदि हमने मन को वश में नहीं किया तो वह भटक जाता है और हमें भी भटका देता है । यदि उसे जीता तो उसकी शक्ति बढती है और वह हमारे भी सारे काम यशस्वी बनाता है ।
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# मन को वश में करने के लिये संयम आवश्यक है । छः सात वर्ष की आयु से संयम की शिक्षा शुरु होनी चाहिये । छोटी छोटी बातों से यह शुरू होता है ।
 
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# एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर नहीं देखना । पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्वपूर्ण बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है ।
2. मन को वश में करने के लिये संयम आवश्यक है । छः सात वर्ष की आयु से संयम की शिक्षा शुरु होनी चाहिये । छोटी छोटी बातों से यह शुरू होता है ।
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# घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है। शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है, आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है । किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता । शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण किया जाता है ।
 
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3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर नहीं देखना ।
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पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्वपूर्ण बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है ।
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४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है। शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है, आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है । किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता । शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण किया जाता है ।
      
==== मन की शिक्षा के अभाव में व्यक्त व्यवहार ====
 
==== मन की शिक्षा के अभाव में व्यक्त व्यवहार ====
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* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
 
* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
 
* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
 
* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
* ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं । इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
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* ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं । इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है। पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
 
यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
 
यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
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# इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा निश्चय करना और पार उतारना ।
 
# इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा निश्चय करना और पार उतारना ।
 
# कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना, हिम्मत नहीं हारना ।
 
# कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना, हिम्मत नहीं हारना ।
# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना
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# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है। इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है । ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है ।
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# विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
 
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# सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगों का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगों को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है ।
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ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
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6. विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं । ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
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7. सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगों का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगों को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
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मन की शिक्षा को परीक्षा से मुक्त रखना चाहिये । परीक्षा आते ही सबकुछ कृत्रिम हो जाता है, कर्मकाण्ड हो जाता है । कर्मकाण्ड हुआ तो मन अच्छा नहीं होता, चालाक बन जाता है । यह तो अनर्थ है ।
 
मन की शिक्षा को परीक्षा से मुक्त रखना चाहिये । परीक्षा आते ही सबकुछ कृत्रिम हो जाता है, कर्मकाण्ड हो जाता है । कर्मकाण्ड हुआ तो मन अच्छा नहीं होता, चालाक बन जाता है । यह तो अनर्थ है ।
  

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