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परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।  
 
परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।  
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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उनके आदर्श चरित्र नटनटियाँ अथवा... परन्तु अहमदाबाद की ये दो युवतियाँ सबसे बेखबर अपनी
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क्रिकेटर होते हैं, वीरपुरुष विद्वान या तपस्वी नहीं । ही बातों में मस्त थीं । उनकी बातें होटेल, फैशन और
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२. जैसे जैसे अध्ययनकाल समाप्ति की ओर बढता है... बॉयफ्रेष्ड तक ही सीमित थीं । न उन्हें नीचे वालों की सुध
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अपने भावी जीवन की चिन्ता उन्हें घेरने लगती है।. थी, न कोलाहल की, न बाबरी की न राममन्दिर की ।
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अधथर्जिन हेतु नौकरी और गृहस्थी के लिये लडकी कैसे ये दोनों मेडिकल कोलेज के अन्तिम वर्ष में अध्ययन
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मिलेगी इसकी उलझन बढ़ती है । साथ ही मजे करने की. कर रही थीं, एक वर्ष के बाद डॉक्टर बनने वाली थी, समाज
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वृत्ति तो निरंकुश रहती ही है । इस मामले में लड़कियों की... के बौद्धिक वर्ग की सदस्य बननेवाली थी, किसी कार्यक्रम में
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अपेक्षा लड़कों की स्थिति अधिक विकट है । लड़के नौकरी . मंच पर अतिथि विशेष या अध्यक्ष बनने वाली थीं । समाज
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और विवाह दोनों के लिये इच्छुक होते हैं लड़कियाँ नौकरी के शिक्षित वर्ग का यह प्रातिनिधिक उदाहरण है ।
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के लिये तो इच्छुक रहती हैं परन्तु विवाह के लिये नहीं ।
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उन्हें विवाह से भी नौकरी का आकर्षण और महत्त्व अधिक
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==== मानसिकता के जिम्मेदार कारण ====
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होता है । जितना अधिक पढ़ती हैं और अधिक कमाई युवकयुवतियों की यह मानसिकता अचानक नहीं बन
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करती है उतनी विवाह की आयु बढती जाती है और जाती, बचपन से ही विकसित होती है। विद्यालय की
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विवाह करने की, बालक को जन्म देने की इच्छा कम होती. व्यवस्था, अध्यापक और मातापिता इसके लिये जिम्मेदार
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जाती है । लड़कियों का संगोपन और शिक्षा ही इस प्रकार. होते हैं । कुछ बातें इस प्रकार हैं
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से होती है कि आर्थिक स्वतंत्रता, करियर, घरगृहस्थी के १, छोटी आयु से ही पढाई करना अथर्जिन के लिये
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प्रति अरुचि, घर के कामों के प्रति हेयता का भाव निर्माण होता है, पढ़ाई करना आनन्ददायक नहीं होता,
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होता है । लड़कियों की इस मानसिकता का समाज की अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की
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स्थिरता और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव होता है । जाती हैं ।
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जो विद्यार्थी गम्भीर अध्ययन करते हैं उनमें भी क्यों
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ज्ञाननिष्ठा कम और अर्थनिष्ठा ही अधिक होती है । अपने २... परीक्षा पका नह है तो क्यों गा की चाह पा मन
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विषय का प्रेम, ज्ञान के क्षेत्र में योगदान, अपने ज्ञान का जानेवाला * = an की कोई क्षा में पूछा नहीं
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अपने या समाज के जीवन विकास में उपयोग आदि बातें जानेवाला है नरसिंह ई आवश्यकता नहीं ।
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गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर,
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कम और अपना अर्थलाभ अधिक प्रेरक तत्त्व होता है । मीरा pnd aia sant
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३. एक स्थिति का स्मरण आता है । घटना कुछ रा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही
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पुरानी है । दिल्‍ली से अहमदाबाद आनेवाली रेल में एक पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं,
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डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर दो युवतियाँ बैठी थीं । चौबीस भक्ति या तत्त्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का
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घण्टे के सफर में सोने के लिये आठ घण्टे, खाने पीने का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता
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होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की
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सामान लेने के लिये एकाध घण्टा और शौचालय में जाने i
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गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं ।
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हेतु एकाध घण्टा नीचे उतरीं । शेष समय वे एकदूसरी के
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साथ बातें ही कर रही थीं । नीचे लोग बातें कर रहे थे । परीक्षा के परे उनका कोई महत्त्व नहीं ।
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१९९२ का वर्ष था और बाबरी ढाँचा गिरकर एकाध सप्ताह परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी
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ही बीता था । रेल में अनपढ़, ग्रामीण, थोडे पढे लिखे, भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये
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महिला पुरुष सब बाबरी ध्वंस और राममन्दिर की ही चर्चा अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता
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कर रहे थे, वातावरण में गर्मी, जोश, उत्तेजना आदि सब थे है।
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३. परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
 
३. परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
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इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है...
 
इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रयास करने की आवश्यकता है...
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१.विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है ।
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विद्यालय में सभी स्तरों पर स्पर्धा निषिद्ध कर देनी चाहिये । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश की ओर गति होती है यह सर्वत्र लागू होने वाला सूत्र है ।
 
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२. उसी प्रकार से परीक्षा का महत्त्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी ।
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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उसी प्रकार से परीक्षा का महत्त्व अत्यन्त कम कर देना चाहिये । जहाँ अनिवार्य नहीं है वहाँ परीक्षा होनी ही नहीं चाहिये । परीक्षा से शिक्षा को मुक्त कर देने के बाद ही ज्ञान के आनन्द की सम्भावना बनेगी ।
    
नीतिमत्ता, fae, wa, ६... समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ
 
नीतिमत्ता, fae, wa, ६... समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ
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