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# युवा होते होते नौकरी और छोकरी की चिन्ता लगती है और तनाव बढता जाता है । अनेक प्रकार के व्यसनों के भोग भी बन जाते हैं ।
 
# युवा होते होते नौकरी और छोकरी की चिन्ता लगती है और तनाव बढता जाता है । अनेक प्रकार के व्यसनों के भोग भी बन जाते हैं ।
 
# असंख्य युवा गाँव छोड़कर नगरों में कारखानों में, उद्योगगृहों में, घरों में मजदूर, चपरासी, घरनौकर बनने के लिये आते हैं, परिवारों से दूर अकेले रहते हैं, शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य खराब कर लेते हैं, अनाचार में लिप्त हो जाते हैं ।
 
# असंख्य युवा गाँव छोड़कर नगरों में कारखानों में, उद्योगगृहों में, घरों में मजदूर, चपरासी, घरनौकर बनने के लिये आते हैं, परिवारों से दूर अकेले रहते हैं, शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य खराब कर लेते हैं, अनाचार में लिप्त हो जाते हैं ।
# खातेपीते घरों के बच्चों को व्यवहारज्ञान नहीं होता । मातापिता की छत्रछाया में तो ये जी लेते हैं परन्तु अपने पैरों पर खडे होने का समय आता है तब बेहाल हो जाते हैं । अधिकांश लडकियों को घर सम्हालना नहीं आता और अधिकांश लडकों को गृहस्थी निभानी नहीं आती । ये जीवन जीते नहीं है, इनका जीवन बीत जाता है । ये कर्तृत्वहीन होते हैं।
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# खातेपीते घरों के बच्चोंं को व्यवहारज्ञान नहीं होता । मातापिता की छत्रछाया में तो ये जी लेते हैं परन्तु अपने पैरों पर खडे होने का समय आता है तब बेहाल हो जाते हैं । अधिकांश लडकियों को घर सम्हालना नहीं आता और अधिकांश लडकों को गृहस्थी निभानी नहीं आती । ये जीवन जीते नहीं है, इनका जीवन बीत जाता है । ये कर्तृत्वहीन होते हैं।
 
# विश्व में भारत की ख्याति है कि भारत युवाओं का देश है क्योंकि युवाओं की संख्या सबसे अधिक है । परन्तु भारत के युवाओं की स्थिति ही तो चिन्ताजनक है ।
 
# विश्व में भारत की ख्याति है कि भारत युवाओं का देश है क्योंकि युवाओं की संख्या सबसे अधिक है । परन्तु भारत के युवाओं की स्थिति ही तो चिन्ताजनक है ।
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अर्थात्‌ उसे केवल 'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।
 
अर्थात्‌ उसे केवल 'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।
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==== जड की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो ====
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==== जड़ की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो ====
परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।
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परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड़ हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।
    
इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।
 
इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।  
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उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड़ के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।  
    
धार्मिक शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा ।
 
धार्मिक शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा ।
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==== शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण ====
 
==== शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण ====
मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है । अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में जडता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही, स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
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मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है । अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में जड़ता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही, स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।
    
अतः शिक्षक प्रबोधन के कुछ बिन्दु और चरण इस प्रकार होंगे
 
अतः शिक्षक प्रबोधन के कुछ बिन्दु और चरण इस प्रकार होंगे
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# स्वतन्त्र बनना तो कोई भी चाहेगा परन्तु स्वतन्त्रता के साथ जो दायित्व होता है वह कोई नहीं चाहता । प्रबोधन का दूसरा मुद्दा दायित्व का भी है । शिक्षा को ठीक करने का दायित्व शिक्षक का है। पूर्व उदाहरण भी हैं, परम्परा भी है और तर्क भी इसी बात को कहता है ।
 
# स्वतन्त्र बनना तो कोई भी चाहेगा परन्तु स्वतन्त्रता के साथ जो दायित्व होता है वह कोई नहीं चाहता । प्रबोधन का दूसरा मुद्दा दायित्व का भी है । शिक्षा को ठीक करने का दायित्व शिक्षक का है। पूर्व उदाहरण भी हैं, परम्परा भी है और तर्क भी इसी बात को कहता है ।
 
# "अपना घर है और हमें उसे चलाना है " ऐसा मानने में स्वतन्त्रता है जहाँ अधिकार भी है और दायित्व भी। घर में काम करने के लिये आनेवाला न अधिकारपूर्वक काम करता है न दायित्वबोध से । घर उसका नहीं है । वेतन देने वाले और वेतन लेने वाले दोनों यह बात समझते हैं । शिक्षाक्षेत्र में आज यही स्थिति हुई है। और भी बढकर, क्योंकि इसमें तो शिक्षा वेतन देनेवाले की भी नहीं है ।
 
# "अपना घर है और हमें उसे चलाना है " ऐसा मानने में स्वतन्त्रता है जहाँ अधिकार भी है और दायित्व भी। घर में काम करने के लिये आनेवाला न अधिकारपूर्वक काम करता है न दायित्वबोध से । घर उसका नहीं है । वेतन देने वाले और वेतन लेने वाले दोनों यह बात समझते हैं । शिक्षाक्षेत्र में आज यही स्थिति हुई है। और भी बढकर, क्योंकि इसमें तो शिक्षा वेतन देनेवाले की भी नहीं है ।
# व्यवस्थातन्त्र स्वभाव से ही जड होता है । उसने शिक्षा को भी जड बना दिया है । शिक्षक से अपेक्षा है कि वह शिक्षा को जडता और जडतन्त्र से मुक्त करे ।
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# व्यवस्थातन्त्र स्वभाव से ही जड़ होता है । उसने शिक्षा को भी जड़ बना दिया है । शिक्षक से अपेक्षा है कि वह शिक्षा को जड़ता और जड़तन्त्र से मुक्त करे ।
 
# अर्थनिष्ठ समाज में ज्ञान, संस्कार, चरित्र, भावना आदि की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती । वहाँ वेतन देनेवाला सम्माननीय होता है, वेतन लेनेवाला नौकर माना जाता है, फिर वह चाहे शिक्षक हो, पूजारी हो, उपदेशक हो, धर्माचार्य हो, स्वजन हो या पिता हो | इस स्थिति से मुक्त वेतन लेने वाले को करना होता है । उसमें मुक्त होने की चाह निर्माण किये बिना उसे मुक्त करना सम्भव नहीं है ।
 
# अर्थनिष्ठ समाज में ज्ञान, संस्कार, चरित्र, भावना आदि की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती । वहाँ वेतन देनेवाला सम्माननीय होता है, वेतन लेनेवाला नौकर माना जाता है, फिर वह चाहे शिक्षक हो, पूजारी हो, उपदेशक हो, धर्माचार्य हो, स्वजन हो या पिता हो | इस स्थिति से मुक्त वेतन लेने वाले को करना होता है । उसमें मुक्त होने की चाह निर्माण किये बिना उसे मुक्त करना सम्भव नहीं है ।
 
# शिक्षा को और शिक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिये यह तो ठीक है परन्तु कोई भी शिक्षक आज अपनी नौकरी कैसे छोड सकता है ? उसे भी तो अपने परिवार का पोषण करना है । समाज उसकी कदर तो करनेवाला नहीं है । आज बडी मुश्किल से शिक्षक का वेतन कुछ ठीक हुआ है। अब उसे नौकरी छोडकर स्वतन्त्र होने को कहना तो उसे भूखों मारना है । यह कैसे सम्भव है ? ऐसा ही कहते रहने से तो प्रश्न का कोई हल हो ही नहीं सकता है ।
 
# शिक्षा को और शिक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिये यह तो ठीक है परन्तु कोई भी शिक्षक आज अपनी नौकरी कैसे छोड सकता है ? उसे भी तो अपने परिवार का पोषण करना है । समाज उसकी कदर तो करनेवाला नहीं है । आज बडी मुश्किल से शिक्षक का वेतन कुछ ठीक हुआ है। अब उसे नौकरी छोडकर स्वतन्त्र होने को कहना तो उसे भूखों मारना है । यह कैसे सम्भव है ? ऐसा ही कहते रहने से तो प्रश्न का कोई हल हो ही नहीं सकता है ।
 
# शिक्षा के लिये नौकरी छोडने वाले को समाज सम्मान नहीं देगा, उल्टे उसे नासमझ कहेगा, इसलिये उस दिशा में भी कुछ नहीं हो सकता ।
 
# शिक्षा के लिये नौकरी छोडने वाले को समाज सम्मान नहीं देगा, उल्टे उसे नासमझ कहेगा, इसलिये उस दिशा में भी कुछ नहीं हो सकता ।
# फिर भी करना तो यही होगा ।
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# तथापि करना तो यही होगा ।
 
# क्या ऐसा हो सकता है कि दस-पन्द्रह-बीस वर्ष तक अर्थात्‌ ३५ से ५० वर्ष की आयु तक नौकरी करना, सांसारिक जिम्मेदारियों से आधा मुक्त हो जाना और फिर शिक्षा की सेवा करने हेतु सिद्ध हो जाना । यदि देश के एक प्रतिशत शिक्षक ऐसा करते हैं तो बात बन सकती है ।
 
# क्या ऐसा हो सकता है कि दस-पन्द्रह-बीस वर्ष तक अर्थात्‌ ३५ से ५० वर्ष की आयु तक नौकरी करना, सांसारिक जिम्मेदारियों से आधा मुक्त हो जाना और फिर शिक्षा की सेवा करने हेतु सिद्ध हो जाना । यदि देश के एक प्रतिशत शिक्षक ऐसा करते हैं तो बात बन सकती है ।
 
# क्या देश के हजार में एक शिक्षक प्रारम्भ से ही बिना वेतन के अध्यापन के काम में लग जाय और स्वतन्त्र विद्यालय आरम्भ करे जहाँ शिक्षा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो ? यह तो बहुत बडी बात है ।
 
# क्या देश के हजार में एक शिक्षक प्रारम्भ से ही बिना वेतन के अध्यापन के काम में लग जाय और स्वतन्त्र विद्यालय आरम्भ करे जहाँ शिक्षा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो ? यह तो बहुत बडी बात है ।
 
# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
 
# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगों की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
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# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगोंं की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
# शिक्षा मुक्त होनी चाहिय ऐसा जिनको भी लगता है उन्होंने स्वयं से शुरुआत करनी चाहिये । साथ ही अन्य शिक्षकों को मुक्त होने के लिये आवाहन करना चाहिये । जिस प्रकार स्वराज्य का बलिदान देकर सुराज्य नहीं हो सकता उसी प्रकार जडतन्त्र के अधीन रहकर धार्मिक शिक्षा सम्भव नहीं है । इसी एक बात को समझाने में सबसे अधिक शक्ति खर्च करनी होगी । आज यही करने का प्रयास हो रहा है ।
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# शिक्षा मुक्त होनी चाहिय ऐसा जिनको भी लगता है उन्होंने स्वयं से शुरुआत करनी चाहिये । साथ ही अन्य शिक्षकों को मुक्त होने के लिये आवाहन करना चाहिये । जिस प्रकार स्वराज्य का बलिदान देकर सुराज्य नहीं हो सकता उसी प्रकार जड़तन्त्र के अधीन रहकर धार्मिक शिक्षा सम्भव नहीं है । इसी एक बात को समझाने में सबसे अधिक शक्ति खर्च करनी होगी । आज यही करने का प्रयास हो रहा है ।
 
शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
 
शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
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==== ऐसे शिक्षक कहाँ से मिलेंगे ? ====
 
==== ऐसे शिक्षक कहाँ से मिलेंगे ? ====
# समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो शिक्षा को चिन्तित हैं । इन के दो प्रकार हैं । एक ऐसे हैं जो अपनी सन्तानों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं और अन्यत्र कहीं अच्छी शिक्षा नहीं है इसलिये स्वयं पढ़ना  चाहते है।  दूसरे ऐसे लोग हैं जो समाज के सभी बच्चों की शिक्षा के लिये चिन्तित हैं और अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं । देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं । ये सब शिक्षक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हैं अथवा सरकारमान्य शिक्षक हैं ऐसा नहीं होगा, परन्तु ये धार्मिक शिक्षा की सेवा करनेवाले अच्छे शिक्षक हैं । इनकी सूची दस हजार से ऊपर की बन सकती है । इन स्वेच्छा से बने शिक्षकों को शिक्षाशास्त्रियों ट्वारा समर्थन, सहयोग, मार्गदर्शन मिलना चाहिये । उनके प्रयोग को. निखारने और बढाने में शिक्षाशास्त्रियों का योगदान होना चाहिये क्योंकि ये धार्मिक शिक्षा हेतु आदर्श प्रयोग हैं । देशके शैक्षिक संगठनों ट्वारा इन प्रयोगों को समर्थन और सुरक्षा की सिद्धता होनी चाहिए।
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# समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो शिक्षा को चिन्तित हैं । इन के दो प्रकार हैं । एक ऐसे हैं जो अपनी सन्तानों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं और अन्यत्र कहीं अच्छी शिक्षा नहीं है इसलिये स्वयं पढ़ना  चाहते है।  दूसरे ऐसे लोग हैं जो समाज के सभी बच्चोंं की शिक्षा के लिये चिन्तित हैं और अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं । देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं । ये सब शिक्षक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हैं अथवा सरकारमान्य शिक्षक हैं ऐसा नहीं होगा, परन्तु ये धार्मिक शिक्षा की सेवा करनेवाले अच्छे शिक्षक हैं । इनकी सूची दस हजार से ऊपर की बन सकती है । इन स्वेच्छा से बने शिक्षकों को शिक्षाशास्त्रियों ट्वारा समर्थन, सहयोग, मार्गदर्शन मिलना चाहिये । उनके प्रयोग को. निखारने और बढाने में शिक्षाशास्त्रियों का योगदान होना चाहिये क्योंकि ये धार्मिक शिक्षा हेतु आदर्श प्रयोग हैं । देशके शैक्षिक संगठनों ट्वारा इन प्रयोगों को समर्थन और सुरक्षा की सिद्धता होनी चाहिए।
# विद्यालयों में आज तो ऐसी व्यवस्था या पद्धति नहीं है कि वे स्वयं अपने विद्यालयों या महाविद्यालयों के लिये स्वयं शिक्षक तैयार कर सर्के । इसका एक कारण यह भी है कि पूर्ण शिक्षा कहीं एक स्थान पर होती हो ऐसी व्यवस्था नहीं है । किसी एक संस्थामें पूर्व प्राथमिक से महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा होती हो तब भी वे सारे विभाग भिन्न भिन्न सरकारी स्चनाओं के नियमन में चलते हैं । इसलिये कोई एक विद्यालय स्वयं चाहे उस विद्यार्थी को या उस शिक्षक को अपने विद्यालय में नियुक्त नहीं कर सकता । अपने विद्यार्थी के साथ साथ उसे अन्य लोगों को भी चयनप्रक्रिया में समाविष्ट करना होता है । एक अच्छा विद्यार्थी जब तक शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं करता तब तक वह शिक्षक नहीं बन सकता । उसी प्रकार से सभी प्रमाणपत्र प्राप्त विद्यार्थी अच्छे शिक्षक होते ही हैं ऐसा नियम नहीं है । शिक्षकों के चयन में विद्यालय के मापदण्ड नहीं चलते, सरकार के चलते हैं । इसलिये उस व्यवस्था से ही शिक्षक लेने होते हैं । इस स्थिति में इतना तो किया जा सकता है कि जो शिक्षक बनने योग्य हैं ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक ही बनने की प्रेरणा दी जाय और उन्हें इस हेतु से मार्गदर्शन, अवसर और शिक्षण भी दिया जाय । विभिन्न विषयों के महाविद्यालयीन अध्यापकों ने भी अध्यापक बनने योग्य विद्यार्थियों को प्रगत अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जाकर अध्यापक बनने के लिये प्रेरित करना चाहिये । ये विद्यार्थी अपने ही विद्यालय या महाविद्यालय में शिक्षक न भी बनें तो भी जहाँ जायें वहाँ अच्छे शिक्षक के रूप में कार्य कर सकेंगे । इसके साथ ही जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक बनने से परावृत्त करने की भी योजना बनानी चाहिये । जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है वे जब शिक्षक बन जाते हैं तब वे शिक्षा की और समाज की कुसेवा करते हैं ।
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# विद्यालयों में आज तो ऐसी व्यवस्था या पद्धति नहीं है कि वे स्वयं अपने विद्यालयों या महाविद्यालयों के लिये स्वयं शिक्षक तैयार कर सर्के । इसका एक कारण यह भी है कि पूर्ण शिक्षा कहीं एक स्थान पर होती हो ऐसी व्यवस्था नहीं है । किसी एक संस्थामें पूर्व प्राथमिक से महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा होती हो तब भी वे सारे विभाग भिन्न भिन्न सरकारी स्चनाओं के नियमन में चलते हैं । इसलिये कोई एक विद्यालय स्वयं चाहे उस विद्यार्थी को या उस शिक्षक को अपने विद्यालय में नियुक्त नहीं कर सकता । अपने विद्यार्थी के साथ साथ उसे अन्य लोगोंं को भी चयनप्रक्रिया में समाविष्ट करना होता है । एक अच्छा विद्यार्थी जब तक शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं करता तब तक वह शिक्षक नहीं बन सकता । उसी प्रकार से सभी प्रमाणपत्र प्राप्त विद्यार्थी अच्छे शिक्षक होते ही हैं ऐसा नियम नहीं है । शिक्षकों के चयन में विद्यालय के मापदण्ड नहीं चलते, सरकार के चलते हैं । इसलिये उस व्यवस्था से ही शिक्षक लेने होते हैं । इस स्थिति में इतना तो किया जा सकता है कि जो शिक्षक बनने योग्य हैं ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक ही बनने की प्रेरणा दी जाय और उन्हें इस हेतु से मार्गदर्शन, अवसर और शिक्षण भी दिया जाय । विभिन्न विषयों के महाविद्यालयीन अध्यापकों ने भी अध्यापक बनने योग्य विद्यार्थियों को प्रगत अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जाकर अध्यापक बनने के लिये प्रेरित करना चाहिये । ये विद्यार्थी अपने ही विद्यालय या महाविद्यालय में शिक्षक न भी बनें तो भी जहाँ जायें वहाँ अच्छे शिक्षक के रूप में कार्य कर सकेंगे । इसके साथ ही जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक बनने से परावृत्त करने की भी योजना बनानी चाहिये । जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है वे जब शिक्षक बन जाते हैं तब वे शिक्षा की और समाज की कुसेवा करते हैं ।
 
# सही मार्ग तो यह है कि अपने विद्यालय के छात्र ही विद्यालय में शिक्षक बनें । शिक्षा की परम्परा निर्माण करना धार्मिक शिक्षा का एक खास लक्षण है । हर पिताश्री को जिस प्रकार अपने कुल की परम्परा अपने पुत्र को सौंपनी चाहिये उसी प्रकार हर शिक्षक को अपना दायित्व वहन करे ऐसा योग्य विद्यार्थी निर्माण करना चाहिये । ऐसे एक से अधिक विद्यार्थी निर्माण करना उचित होगा क्योंकि तब शिक्षा का प्रसार होगा । अपने विद्यार्थियों में कौन प्राथमिक में, कौन माध्यमिक में, कौन महाविद्यालय में और कौन सभी स्तरों पर पढा सकेगा यह पहचानना शिक्षक का कर्तव्य है। अच्छे विद्यार्थी ही नहीं तो अच्छे शिक्षक भी देना यह शिक्षक की शिक्षासेवा और समाजसेवा है ।
 
# सही मार्ग तो यह है कि अपने विद्यालय के छात्र ही विद्यालय में शिक्षक बनें । शिक्षा की परम्परा निर्माण करना धार्मिक शिक्षा का एक खास लक्षण है । हर पिताश्री को जिस प्रकार अपने कुल की परम्परा अपने पुत्र को सौंपनी चाहिये उसी प्रकार हर शिक्षक को अपना दायित्व वहन करे ऐसा योग्य विद्यार्थी निर्माण करना चाहिये । ऐसे एक से अधिक विद्यार्थी निर्माण करना उचित होगा क्योंकि तब शिक्षा का प्रसार होगा । अपने विद्यार्थियों में कौन प्राथमिक में, कौन माध्यमिक में, कौन महाविद्यालय में और कौन सभी स्तरों पर पढा सकेगा यह पहचानना शिक्षक का कर्तव्य है। अच्छे विद्यार्थी ही नहीं तो अच्छे शिक्षक भी देना यह शिक्षक की शिक्षासेवा और समाजसेवा है ।
 
# इस दृष्टि से हर शिक्षा संस्थाने पूर्वप्राथमिक से उच्चशिक्षा तक के विभाग एक साथ चलाने चाहिये ताकि विद्यार्थी को अध्ययन में और शिक्षकों को चयन में सुविधा हो । यदि नगर के सारे विद्यालय मिलकर कोई रचना करते हैं तो वह एक विद्यालय की योजना से भी अधिक सुविधापूर्ण हो सकता है ।
 
# इस दृष्टि से हर शिक्षा संस्थाने पूर्वप्राथमिक से उच्चशिक्षा तक के विभाग एक साथ चलाने चाहिये ताकि विद्यार्थी को अध्ययन में और शिक्षकों को चयन में सुविधा हो । यदि नगर के सारे विद्यालय मिलकर कोई रचना करते हैं तो वह एक विद्यालय की योजना से भी अधिक सुविधापूर्ण हो सकता है ।
# उच्च शिक्षा और प्रगत अध्ययन तथा अनुसन्धान का क्षेत्र तुलना में खुला होने में सुविधा रहेगी, प्रश्न केवल अच्छे शिक्षक के मापदण्ड ठीक हों उसका ही रहेगा । फिर भी “अपना विद्यार्थी अपना शिक्षक की प्रथा उत्तम रहेगी ।
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# उच्च शिक्षा और प्रगत अध्ययन तथा अनुसन्धान का क्षेत्र तुलना में खुला होने में सुविधा रहेगी, प्रश्न केवल अच्छे शिक्षक के मापदण्ड ठीक हों उसका ही रहेगा । तथापि “अपना विद्यार्थी अपना शिक्षक की प्रथा उत्तम रहेगी ।
 
# आज एक शिक्षक भी अपने अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनाना नहीं चाहता । मातापिता भी अपनी तेजस्वी और मेधावी सन्तान को शिक्षक देखना नहीं चाहते । ऐसे में शिक्षाक्षेत्र साधारण स्तर का ही रहेगा इसमें क्या आश्चर्य ? शिक्षा को श्रेष्ठ और तेजस्वी बनाना है तो मेधावी और श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित करना होगा । इस दृष्टि से समाज प्रबोधन, अभिभावक प्रबोधन और शिक्षक प्रबोधन की आवश्यकता रहेगी । प्रबोधन का यह कार्य प्रभावी पद्धति से होना चाहिये तभी घर में, समाज में और विद्यालय में शिक्षक को प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त होंगे और विद्यार्थियों को शिक्षक बनने की प्रेरणा मिलेगी ।
 
# आज एक शिक्षक भी अपने अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनाना नहीं चाहता । मातापिता भी अपनी तेजस्वी और मेधावी सन्तान को शिक्षक देखना नहीं चाहते । ऐसे में शिक्षाक्षेत्र साधारण स्तर का ही रहेगा इसमें क्या आश्चर्य ? शिक्षा को श्रेष्ठ और तेजस्वी बनाना है तो मेधावी और श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित करना होगा । इस दृष्टि से समाज प्रबोधन, अभिभावक प्रबोधन और शिक्षक प्रबोधन की आवश्यकता रहेगी । प्रबोधन का यह कार्य प्रभावी पद्धति से होना चाहिये तभी घर में, समाज में और विद्यालय में शिक्षक को प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त होंगे और विद्यार्थियों को शिक्षक बनने की प्रेरणा मिलेगी ।
 
# जो शिक्षक नहीं बन सकता वही अन्य कुछ भी बनेगा, उत्तम विद्यार्थी तो शिक्षक ही बनेगा ऐसे भाव का प्रसार होना चाहिये ।
 
# जो शिक्षक नहीं बन सकता वही अन्य कुछ भी बनेगा, उत्तम विद्यार्थी तो शिक्षक ही बनेगा ऐसे भाव का प्रसार होना चाहिये ।
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# कई व्यक्ति जन्मजात शिक्षक होते हैं । इनका स्वभाव ही शिक्षक का होता हैं क्योंकि स्वभाव जन्मजात होता है । ऐसे जन्मजात शिक्षकों को पहचानने का शास्त्र और विधि हमें अनुसन्धान करके खोजनी होगी । इसके आधार पर शिक्षक बनने की सम्भावना रखने वाले विद्यार्थियों का चयन करना सरल होगा । अधिजननशास्त्र, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र आदि ऐसे शास्त्र हैं जो इसमें हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । अर्थात्‌ ये सब अपनी अपनी पद्धति से व्यक्ति को पहचानने का कार्य करते हैं । शिक्षक को इन सब का समायोजन कर अपने लिये उपयोगी सामग्री बनानी होगी ।
 
# कई व्यक्ति जन्मजात शिक्षक होते हैं । इनका स्वभाव ही शिक्षक का होता हैं क्योंकि स्वभाव जन्मजात होता है । ऐसे जन्मजात शिक्षकों को पहचानने का शास्त्र और विधि हमें अनुसन्धान करके खोजनी होगी । इसके आधार पर शिक्षक बनने की सम्भावना रखने वाले विद्यार्थियों का चयन करना सरल होगा । अधिजननशास्त्र, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र आदि ऐसे शास्त्र हैं जो इसमें हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । अर्थात्‌ ये सब अपनी अपनी पद्धति से व्यक्ति को पहचानने का कार्य करते हैं । शिक्षक को इन सब का समायोजन कर अपने लिये उपयोगी सामग्री बनानी होगी ।
 
# अभिभावकों में भी स्वभाव से शिक्षक परन्तु अन्य व्यवसाय करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं । इन्हें शिक्षक बनने हेतु प्रेरित किया जा सकता है । इन्हें विद्यालय के शैक्षिक कार्य में, शिक्षा विचार के प्रसार में, विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं में सहभागी बनाया जा सकता है ।
 
# अभिभावकों में भी स्वभाव से शिक्षक परन्तु अन्य व्यवसाय करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं । इन्हें शिक्षक बनने हेतु प्रेरित किया जा सकता है । इन्हें विद्यालय के शैक्षिक कार्य में, शिक्षा विचार के प्रसार में, विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं में सहभागी बनाया जा सकता है ।
# विभिन्न प्रकार के कार्य कर सेवानिवृत्त हुए कई लोग स्वभाव से शिक्षक होते हैं । उन्हें भी उनकी क्षमता  और रुचि के अनुसार शिक्षा की पुर्नरचना के विभिन्न कार्यों के साथ जोडा जा सकता है ।
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# विभिन्न प्रकार के कार्य कर सेवानिवृत्त हुए कई लोग स्वभाव से शिक्षक होते हैं । उन्हें भी उनकी क्षमता  और रुचि के अनुसार शिक्षा की पुर्नरचना के विभिन्न कार्यों के साथ जोड़ा जा सकता है ।
 
# तात्पर्य यह है कि शिक्षा का क्षेत्र खुला करना चाहिये । आज वह अनेक गैरशैक्षिक बातों का  बन्धक बन गया है । उसे इनसे मुक्त करना चाहिये । धार्मिक समाजन्यवस्था का मूल तत्व परिवारभावना है। विद्यालय भी एक परिवार है । परिवार में परम्परा बनाना और बनाये रखना मूल काम है । समाजजीवन में दो प्रकार की परम्परायें होती हैं । एक है वंशपरम्परा जो पितापुत्र से बनती है । दूसरी है ज्ञानपरम्परा जो गुरुशिष्य अर्थात्‌ शिक्षक और विद्यार्थी से बनती है । विद्यालय का धर्म इस परम्परा को निभाने का है । शिक्षक अपने विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर इस परम्परा को निभाता है।
 
# तात्पर्य यह है कि शिक्षा का क्षेत्र खुला करना चाहिये । आज वह अनेक गैरशैक्षिक बातों का  बन्धक बन गया है । उसे इनसे मुक्त करना चाहिये । धार्मिक समाजन्यवस्था का मूल तत्व परिवारभावना है। विद्यालय भी एक परिवार है । परिवार में परम्परा बनाना और बनाये रखना मूल काम है । समाजजीवन में दो प्रकार की परम्परायें होती हैं । एक है वंशपरम्परा जो पितापुत्र से बनती है । दूसरी है ज्ञानपरम्परा जो गुरुशिष्य अर्थात्‌ शिक्षक और विद्यार्थी से बनती है । विद्यालय का धर्म इस परम्परा को निभाने का है । शिक्षक अपने विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर इस परम्परा को निभाता है।
 
इस प्रकार सांस्कृतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से उत्तम विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर शिक्षाक्षेत्र के लिये अच्छे शिक्षक प्राप्त करने की योजना बनाना आवश्यक है ।
 
इस प्रकार सांस्कृतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से उत्तम विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर शिक्षाक्षेत्र के लिये अच्छे शिक्षक प्राप्त करने की योजना बनाना आवश्यक है ।

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