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==== कुछ चिन्ताजनक बातें  ====
 
==== कुछ चिन्ताजनक बातें  ====
 
विद्यार्थी देश का भविष्य है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । कोठारी आयोग कहता है कि देश का भविष्य विद्यालयों के कक्षाकक्षों में गढा जा रहा है । कक्षाकक्षों में पढने वाले छात्र ही तो यह भविष्य है। इनका हो क्या रहा है इसका विचार गम्भीरतापूर्वक करने की आवश्यकता है । कुछ चिन्ताजनक बातें इस प्रकार हैं:
 
विद्यार्थी देश का भविष्य है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । कोठारी आयोग कहता है कि देश का भविष्य विद्यालयों के कक्षाकक्षों में गढा जा रहा है । कक्षाकक्षों में पढने वाले छात्र ही तो यह भविष्य है। इनका हो क्या रहा है इसका विचार गम्भीरतापूर्वक करने की आवश्यकता है । कुछ चिन्ताजनक बातें इस प्रकार हैं:
# आजकल सब इन्जिनीयर बनना चाहते हैं । ऐसी मान्यता है कि इन्जिनीयरों को जल्दी नौकरी मिल जाती है, अधिक वेतनवाली नौकरी मिलती है। इसलिये इन्जिनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश लेने वालों की संख्या बढ जाती है। यह देखकर इन्जिनीयरिंग कॉलेज शुरू करने वाले भी मैदान में आ जाते हैं । अनेक महाविद्यालय नये खुलते हैं। धीरे धीरे इन्जिनीयरों की संख्या बढती है परन्तु उनकी अब आवश्यकता नहीं होती है । वे नौकरी के लिये मारे मारे फिरते हैं और अल्पतम वेतन वाली नौकरी करते हैं, जो इन्जिनीयर का काम ही नहीं है ऐसी बाबूगीरी भी कर लेते हैं ।
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# आजकल सब इन्जिनीयर बनना चाहते हैं । ऐसी मान्यता है कि इन्जिनीयरों को जल्दी नौकरी मिल जाती है, अधिक वेतनवाली नौकरी मिलती है। इसलिये इन्जिनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश लेने वालों की संख्या बढ जाती है। यह देखकर इन्जिनीयरिंग कॉलेज आरम्भ करने वाले भी मैदान में आ जाते हैं । अनेक महाविद्यालय नये खुलते हैं। धीरे धीरे इन्जिनीयरों की संख्या बढती है परन्तु उनकी अब आवश्यकता नहीं होती है । वे नौकरी के लिये मारे मारे फिरते हैं और अल्पतम वेतन वाली नौकरी करते हैं, जो इन्जिनीयर का काम ही नहीं है ऐसी बाबूगीरी भी कर लेते हैं ।
 
# यही बात शिक्षकों के लिये, पाइलोटों के लिये कम्प्यूटरी सीखने वालों के लिये, डॉक्टरों के लिये सत्य है। इन सबको नौकरी मिलती नहीं है और स्वतन्त्र व्यवसाय करने की न हिम्मत है, न क्षमता है न अनुकूलता है ।
 
# यही बात शिक्षकों के लिये, पाइलोटों के लिये कम्प्यूटरी सीखने वालों के लिये, डॉक्टरों के लिये सत्य है। इन सबको नौकरी मिलती नहीं है और स्वतन्त्र व्यवसाय करने की न हिम्मत है, न क्षमता है न अनुकूलता है ।
 
# इन सबको काम देने वालों की हमेशा शिकायत रहती है कि ये लोग काम करने के लायक ही नहीं है । इनको न काम आता है न काम करने की उनकी नीयत है । इन्हें मतलब काम से नहीं है, पैसे से ही है ।
 
# इन सबको काम देने वालों की हमेशा शिकायत रहती है कि ये लोग काम करने के लायक ही नहीं है । इनको न काम आता है न काम करने की उनकी नीयत है । इन्हें मतलब काम से नहीं है, पैसे से ही है ।
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# माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशास्त्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
 
# माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशास्त्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
 
# उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते । इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
 
# उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते । इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
# तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती । हर मातापिता  चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है । अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा । अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगे पीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है । एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना शुरू हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत शुरू होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते।  तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ? अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर शुरू होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है । कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है ।  
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# तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती । हर मातापिता  चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है । अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा । अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगे पीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है । एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना आरम्भ हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत आरम्भ होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते।  तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ? अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर आरम्भ होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है । कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है ।  
 
# यह तो एक पक्ष हुआ । इसमें केवल आर्थिक पक्ष है। जीवन की शिक्षा का तो कोई विचार ही नहीं है। विद्यार्थी गुणवान, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान बनना चाहिये, उसके शरीर, मन, बुद्धि, सक्षम और समर्थ बनने चाहिये, वह परिवार, समाज और राष्ट्र की मूल्यवान सम्पत्ति बनना चाहिये इसकी चाह, इसकी योजना और व्यवस्था कहाँ है ? घर में ? नहीं, विद्यालय में ? नहीं, सरकार में ? नहीं । हाँ चाह अवश्य है, भाषण अवश्य होते हैं, गोष्ठियाँ भी होती है परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। एक बार विद्यार्थी विद्यालय जाने लगा तो मातापिता को अब उसके लिये कुछ करना नहीं है । न इसके लिये समय है, न क्षमता है , न दृष्टि । विद्यालय में विषयों की चिन्ता होती है चरित्र की नहीं । सरकार नियम, कानून, नीति और प्रशासन में व्यस्त है । चरित्र और संस्कृति उसका विषय नहीं । तब जीवन, चरित्र संस्कार आदि की सुध लेने वाला तो कोई बचा ही नहीं । ऐसा मान लिया जाता है कि बिना कुछ किये ही विद्यार्थी चरित्रवान और दृष्टियुक्त बन जायेगा । अनुभव यह है कि ऐसा बनता नहीं।
 
# यह तो एक पक्ष हुआ । इसमें केवल आर्थिक पक्ष है। जीवन की शिक्षा का तो कोई विचार ही नहीं है। विद्यार्थी गुणवान, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान बनना चाहिये, उसके शरीर, मन, बुद्धि, सक्षम और समर्थ बनने चाहिये, वह परिवार, समाज और राष्ट्र की मूल्यवान सम्पत्ति बनना चाहिये इसकी चाह, इसकी योजना और व्यवस्था कहाँ है ? घर में ? नहीं, विद्यालय में ? नहीं, सरकार में ? नहीं । हाँ चाह अवश्य है, भाषण अवश्य होते हैं, गोष्ठियाँ भी होती है परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। एक बार विद्यार्थी विद्यालय जाने लगा तो मातापिता को अब उसके लिये कुछ करना नहीं है । न इसके लिये समय है, न क्षमता है , न दृष्टि । विद्यालय में विषयों की चिन्ता होती है चरित्र की नहीं । सरकार नियम, कानून, नीति और प्रशासन में व्यस्त है । चरित्र और संस्कृति उसका विषय नहीं । तब जीवन, चरित्र संस्कार आदि की सुध लेने वाला तो कोई बचा ही नहीं । ऐसा मान लिया जाता है कि बिना कुछ किये ही विद्यार्थी चरित्रवान और दृष्टियुक्त बन जायेगा । अनुभव यह है कि ऐसा बनता नहीं।
 
इस कारण से अनिश्चित भावी अव्यवस्थित वर्तमान बन जाता है । ऐसे युवाओं का देश समर्थ कैसे बनेगा ? यह युवा पीढ़ी सम्पत्ति नहीं, जिम्मेदारी बन जाती है ।
 
इस कारण से अनिश्चित भावी अव्यवस्थित वर्तमान बन जाता है । ऐसे युवाओं का देश समर्थ कैसे बनेगा ? यह युवा पीढ़ी सम्पत्ति नहीं, जिम्मेदारी बन जाती है ।
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# फिर भी करना तो यही होगा ।
 
# फिर भी करना तो यही होगा ।
 
# क्या ऐसा हो सकता है कि दस-पन्द्रह-बीस वर्ष तक अर्थात्‌ ३५ से ५० वर्ष की आयु तक नौकरी करना, सांसारिक जिम्मेदारियों से आधा मुक्त हो जाना और फिर शिक्षा की सेवा करने हेतु सिद्ध हो जाना । यदि देश के एक प्रतिशत शिक्षक ऐसा करते हैं तो बात बन सकती है ।
 
# क्या ऐसा हो सकता है कि दस-पन्द्रह-बीस वर्ष तक अर्थात्‌ ३५ से ५० वर्ष की आयु तक नौकरी करना, सांसारिक जिम्मेदारियों से आधा मुक्त हो जाना और फिर शिक्षा की सेवा करने हेतु सिद्ध हो जाना । यदि देश के एक प्रतिशत शिक्षक ऐसा करते हैं तो बात बन सकती है ।
# क्या देश के हजार में एक शिक्षक प्रारम्भ से ही बिना वेतन के अध्यापन के काम में लग जाय और स्वतन्त्र विद्यालय शुरू करे जहाँ शिक्षा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो ? यह तो बहुत बडी बात है ।
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# क्या देश के हजार में एक शिक्षक प्रारम्भ से ही बिना वेतन के अध्यापन के काम में लग जाय और स्वतन्त्र विद्यालय आरम्भ करे जहाँ शिक्षा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो ? यह तो बहुत बडी बात है ।
 
# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
 
# क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
 
# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगों की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
 
# आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगों की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।

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