Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "हमेशा" to "सदा"
Line 26: Line 26:  
परन्तु भारत में दोहरी कठिनाई है। पहली तो यह कि भारत स्वयं ही तो पश्चिमी प्रभाव में जी रहा हैं । हम ही यदि पश्चिमी व्यवस्था से मुक्त नहीं होंगे तो विश्व को कैसे मुक्त करेंगे ? इसलिये प्रथम आवश्यकता है भारत में धार्मिक शिक्षा की प्रतिष्ठा करने की । ऐसी प्रतिष्ठा करने हेतु शैक्षिक संगठन पहल करें और शासन तथा प्रशासन उन्हें सहयोग करें यह आवश्यक है। मैं इस पुस्तिका में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रारूप लाया हूँ । मेरा निवेदन है कि आप इसे पढ़ें, उस पर विचार करें और बाद में हम उस पर चर्चा करेंगे।
 
परन्तु भारत में दोहरी कठिनाई है। पहली तो यह कि भारत स्वयं ही तो पश्चिमी प्रभाव में जी रहा हैं । हम ही यदि पश्चिमी व्यवस्था से मुक्त नहीं होंगे तो विश्व को कैसे मुक्त करेंगे ? इसलिये प्रथम आवश्यकता है भारत में धार्मिक शिक्षा की प्रतिष्ठा करने की । ऐसी प्रतिष्ठा करने हेतु शैक्षिक संगठन पहल करें और शासन तथा प्रशासन उन्हें सहयोग करें यह आवश्यक है। मैं इस पुस्तिका में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रारूप लाया हूँ । मेरा निवेदन है कि आप इसे पढ़ें, उस पर विचार करें और बाद में हम उस पर चर्चा करेंगे।
   −
'''मन्त्री''' : महाशय, आपने जो भी कहा, मैं उससे पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मैं भी तो शिक्षक रहा हूँ। प्रथम माध्यमिक विद्यालय में और बाद में विश्वविद्यालय में पढाते समय मुझे हमेशा लगता था कि हम वही सब कर रहे हैं जो हमें एक धार्मिक शिक्षक के नाते नहीं करना चाहिये। उस समय मुजे लगता था कि सरकार क्यों कुछ नहीं करती, हमें क्यों यह सब पढाना पड़ रहा है । परन्तु राजनीतिमें आने के बाद सांसद और मन्त्री बनने के बाद अनुभव कर रहा हूँ कि हम तो बुरे फंसे हैं । शिक्षक के नाते तो शिक्षा की थोडी बहुत भी सेवा कर लेते थे, शिक्षामन्त्री बनने के बाद हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। पूरा देश हमसे अपेक्षा करता है परन्तु हम गैरशैक्षिक बातों में ही उलझे हैं। कभी आरक्षण के नाम पर, कभी वेतन को लेकर, कभी बजट को लेकर, कभी भगवाकरण के नाम पर इतना शोर मचता है कि शिक्षा की बात तो कभी होती ही नहीं है । विरोध पक्ष सही गलत देखे बिना सभी बातों का विरोध ही करता है। अब आप ही कुछ मार्ग बतायें ऐसा मेरा आग्रह है।
+
'''मन्त्री''' : महाशय, आपने जो भी कहा, मैं उससे पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मैं भी तो शिक्षक रहा हूँ। प्रथम माध्यमिक विद्यालय में और बाद में विश्वविद्यालय में पढाते समय मुझे सदा लगता था कि हम वही सब कर रहे हैं जो हमें एक धार्मिक शिक्षक के नाते नहीं करना चाहिये। उस समय मुजे लगता था कि सरकार क्यों कुछ नहीं करती, हमें क्यों यह सब पढाना पड़ रहा है । परन्तु राजनीतिमें आने के बाद सांसद और मन्त्री बनने के बाद अनुभव कर रहा हूँ कि हम तो बुरे फंसे हैं । शिक्षक के नाते तो शिक्षा की थोडी बहुत भी सेवा कर लेते थे, शिक्षामन्त्री बनने के बाद हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। पूरा देश हमसे अपेक्षा करता है परन्तु हम गैरशैक्षिक बातों में ही उलझे हैं। कभी आरक्षण के नाम पर, कभी वेतन को लेकर, कभी बजट को लेकर, कभी भगवाकरण के नाम पर इतना शोर मचता है कि शिक्षा की बात तो कभी होती ही नहीं है । विरोध पक्ष सही गलत देखे बिना सभी बातों का विरोध ही करता है। अब आप ही कुछ मार्ग बतायें ऐसा मेरा आग्रह है।
    
आज हम तीनों साथ बैठे हैं यह सुयोग है वरना आप लोग भी हमें दोष देते हैं और प्रशासक हमें नियमों और कानूनों में उलझाते हैं । नियमों और कानूनों का अध्ययन करें उतने समय में या तो हमारा विभाग बदल जाता है अथवा चुनाव आ जाते हैं। अतः मुझे लगता है कि शिक्षकों और शिक्षक संगठनों को ही कुछ करना होगा।
 
आज हम तीनों साथ बैठे हैं यह सुयोग है वरना आप लोग भी हमें दोष देते हैं और प्रशासक हमें नियमों और कानूनों में उलझाते हैं । नियमों और कानूनों का अध्ययन करें उतने समय में या तो हमारा विभाग बदल जाता है अथवा चुनाव आ जाते हैं। अतः मुझे लगता है कि शिक्षकों और शिक्षक संगठनों को ही कुछ करना होगा।

Navigation menu