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* ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
 
* ऐसा चयन करने के बाद उन्हें अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य छात्रों को पढ़ाने का अभ्यास प्राप्त हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी माने जाने चाहिये ।
 
* विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये ।
 
* विद्यालय की व्यवस्था में अध्ययन और अध्यापन साथ साथ चले इसका प्रावधान रखना चाहिये ।
* श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका अर्थार्जन शुरू होता है। अर्थार्जन हेतु वे शिक्षक बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों का समावेश होना चाहिये ।
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* श्रेष्ठ विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण करें और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे उसके साथ ही उनका अर्थार्जन आरम्भ होता है। अर्थार्जन हेतु वे शिक्षक बनते हैं । शिक्षक बनने से पूर्व उनकी शिक्षक बनने हेतु विशेष शिक्षा होनी चाहिये । इसे आजकल शिक्षक शिक्षा कहते हैं । वर्तमान शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से बदल कर उसमें विशेष बातों का समावेश होना चाहिये ।
    
== शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम ==
 
== शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम ==
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शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
 
शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
# समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । इसलिए शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही शुरू हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों  के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
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# समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । इसलिए शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही आरम्भ हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों  के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । इसलिए यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । इसलिए यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।  
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।  
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# देश की वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने के साथ साथ देश का इतिहास एवं संस्कृति का भी उसे सम्यक्‌ परिचय होना आवश्यक है । भारतीयता का व्यवहार देश के हर नागरिक से अपेक्षित होता है । शिक्षक से भी अपेक्षित है। परंतु साथ ही उस व्यवहार का ज्ञानात्मक पक्ष भी उसे अवगत होना अपेक्षित है । उस दृष्टि से देश के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान हर शिक्षक को होना अपेक्षित है। देश की सनातन संस्कृति, संस्कृति का प्रवाह और वर्तमान सांस्कृतिक हास की स्थिति और उसके कारण आदि का ज्ञान अध्यापन कार्य की पार्थभूमि के रूप में होना आवश्यक है ।
 
# देश की वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने के साथ साथ देश का इतिहास एवं संस्कृति का भी उसे सम्यक्‌ परिचय होना आवश्यक है । भारतीयता का व्यवहार देश के हर नागरिक से अपेक्षित होता है । शिक्षक से भी अपेक्षित है। परंतु साथ ही उस व्यवहार का ज्ञानात्मक पक्ष भी उसे अवगत होना अपेक्षित है । उस दृष्टि से देश के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान हर शिक्षक को होना अपेक्षित है। देश की सनातन संस्कृति, संस्कृति का प्रवाह और वर्तमान सांस्कृतिक हास की स्थिति और उसके कारण आदि का ज्ञान अध्यापन कार्य की पार्थभूमि के रूप में होना आवश्यक है ।
 
# साथ ही दुनिया की वर्तमान स्थिति का सन्दर्भ भी ज्ञात होना आवश्यक है । वर्तमान में हमारे देश के समाजजीवन की दुर्वस्था का कारण वैश्विक स्थिति ही है। विगत दो तीन सौ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व की स्थिति बहुत विचित्र हो गई है । संचार माध्यमों की बहुतायत के कारण प्रजाओं का आपसी आदान प्रदान बहुत सुकर हो गया है । इससे वे एकदूसरे से प्रभावित होती हैं और एकदूसरे को प्रभावित करती भी हैं । कोई भी देश अपनी अलग पहचान बनाये रखने में यशस्वी नहीं हो रहा है । इस स्थिति में विश्व में आज यूरोअमेरिकी जीवन प्रतिमान प्रतिष्ठित हो बैठा है। देश के देश उससे प्रभावित हो गये हैं । कई तो अपनी शुद्ध  मूल संस्कृति को नामशेष कर चुके हैं, कई अनेक प्रकार के संकटों को झेल रहे हैं और कई संकटों को परास्त करने हेतु जूझ रहे हैं । भारत इस तीसरी श्रेणी में है । विगत दो सौ वर्षों में भारत का जनजीवन और उसकी सारी व्यवस्थायें ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप यूरोअमेरिकी प्रतिमान से प्रभावित होकर छिन्न विच्छिन्न हो गईं हैं । देश यूरोमेरिकी प्रतिमान से बनीं व्यवस्थाओं में चलता है जबकि भारतीय जन के अन्तःकरण में अभी भी भारतीय मूल्य अवस्थित हैं । ये दो स्थितियाँ आंतरिक संघर्ष निर्माण करने वाली होती हैं । इसका ठीक से बोध होना भारतीय शिक्षक के लिये आवश्यक है । प्रजाओं को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौनसे हैं, प्रभावित करने की प्रक्रिया कैसे चल रही है, देश में कौनसे संकट खड़े हुए हैं और इन्हें दूर करने के उपाय कौनसे हैं और इसके लिये कैसी शिक्षा आवश्यक है, इसका चिन्तन शिक्षक के पास होना अपेक्षित है । यह सब उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक आधार होगा ।
 
# साथ ही दुनिया की वर्तमान स्थिति का सन्दर्भ भी ज्ञात होना आवश्यक है । वर्तमान में हमारे देश के समाजजीवन की दुर्वस्था का कारण वैश्विक स्थिति ही है। विगत दो तीन सौ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व की स्थिति बहुत विचित्र हो गई है । संचार माध्यमों की बहुतायत के कारण प्रजाओं का आपसी आदान प्रदान बहुत सुकर हो गया है । इससे वे एकदूसरे से प्रभावित होती हैं और एकदूसरे को प्रभावित करती भी हैं । कोई भी देश अपनी अलग पहचान बनाये रखने में यशस्वी नहीं हो रहा है । इस स्थिति में विश्व में आज यूरोअमेरिकी जीवन प्रतिमान प्रतिष्ठित हो बैठा है। देश के देश उससे प्रभावित हो गये हैं । कई तो अपनी शुद्ध  मूल संस्कृति को नामशेष कर चुके हैं, कई अनेक प्रकार के संकटों को झेल रहे हैं और कई संकटों को परास्त करने हेतु जूझ रहे हैं । भारत इस तीसरी श्रेणी में है । विगत दो सौ वर्षों में भारत का जनजीवन और उसकी सारी व्यवस्थायें ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप यूरोअमेरिकी प्रतिमान से प्रभावित होकर छिन्न विच्छिन्न हो गईं हैं । देश यूरोमेरिकी प्रतिमान से बनीं व्यवस्थाओं में चलता है जबकि भारतीय जन के अन्तःकरण में अभी भी भारतीय मूल्य अवस्थित हैं । ये दो स्थितियाँ आंतरिक संघर्ष निर्माण करने वाली होती हैं । इसका ठीक से बोध होना भारतीय शिक्षक के लिये आवश्यक है । प्रजाओं को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौनसे हैं, प्रभावित करने की प्रक्रिया कैसे चल रही है, देश में कौनसे संकट खड़े हुए हैं और इन्हें दूर करने के उपाय कौनसे हैं और इसके लिये कैसी शिक्षा आवश्यक है, इसका चिन्तन शिक्षक के पास होना अपेक्षित है । यह सब उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक आधार होगा ।
# इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा । अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, फिर भी इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग शुरू भी हो सकते हैं ।  
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# इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा । अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, फिर भी इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग आरम्भ भी हो सकते हैं ।  
 
# अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले । कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
 
# अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले । कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
 
# एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं । हमेशा चीजों को परखते ही रहते हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं इसलिए उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं । इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है इसलिए किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं इसलिए विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।  
 
# एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं । हमेशा चीजों को परखते ही रहते हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं इसलिए उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं । इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है इसलिए किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं इसलिए विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।  

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