शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब एक दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के बीच एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी बनाता है ।
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शिक्षक विद्यार्थी के साथ साथ समाज भी सुस्थिति में रहे इसकी चिन्ता करने वाला होना चाहिये । मनुष्य जब एक दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है तब समाज बनता है । इस समाज को बनाए रखने वाला तत्त्व धर्म होता है। यह समाजधर्म है । शिक्षक इस समाजधर्म का पालन करने वाला होता है । समाज को ही वह ईश्वर का विश्वरूप मानता है । वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है । आज समाज और व्यक्ति के मध्य एक प्रकार का द्वंद्व निर्माण हुआ है । वास्तव में व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग होता है परन्तु आज व्यक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो गया है और व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहा जाता है। समाज की यह परिभाषा सही नहीं है । समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है । समाजपरायण बनाने के साथ साथ शिक्षक विद्यार्थी को राष्ट्र परायण और ईश्वर परायण भी बनाता है ।