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प्राण के कारण शरीर अपने में से अपने जैसा ही दूसरा शरीर बनाता है और एक शरीर जीर्ण हो जाने के बाद नया शरीर धारण करता है। मनुष्य प्राणमय है इसलिये वह प्राणी है।
 
प्राण के कारण शरीर अपने में से अपने जैसा ही दूसरा शरीर बनाता है और एक शरीर जीर्ण हो जाने के बाद नया शरीर धारण करता है। मनुष्य प्राणमय है इसलिये वह प्राणी है।
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उचित श्वासप्रश्चास, प्राणायाम, उचित आहार और निद्रा प्राण को बलवान, एकाग्र और संतुलित बनाते हैं। प्राण जितना बलवान और संतुलित है उतनी ही मनुष्य की कार्यशक्ति अच्छी होती है, जितना क्षीण है उतना ही वह उदास, थकामांदा, निर्त्साही होता है, वह हमेशा नकारात्मक बातें करता है।
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उचित श्वासप्रश्चास, प्राणायाम, उचित आहार और निद्रा प्राण को बलवान, एकाग्र और संतुलित बनाते हैं। प्राण जितना बलवान और संतुलित है उतनी ही मनुष्य की कार्यशक्ति अच्छी होती है, जितना क्षीण है उतना ही वह उदास, थकामांदा, निर्त्साही होता है, वह सदा नकारात्मक बातें करता है।
    
शरीर में प्राण नाड़ियों के माध्यम से संचार करता है इसलिये नाड़ीशुद्धि होना अत्यन्त आवश्यक है। प्राणयुक्त शरीर ही मनुष्य का कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकता है । इस दृष्टि से प्राणमय आत्मा के विकास हेतु शिक्षा में समुचित प्रयास होने चाहिए |
 
शरीर में प्राण नाड़ियों के माध्यम से संचार करता है इसलिये नाड़ीशुद्धि होना अत्यन्त आवश्यक है। प्राणयुक्त शरीर ही मनुष्य का कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकता है । इस दृष्टि से प्राणमय आत्मा के विकास हेतु शिक्षा में समुचित प्रयास होने चाहिए |
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यह मनुष्य का मन है । मन के कारण ही मनुष्य सृष्टि के अन्य सारे पदार्थों से अलग पहचान बनाता है । सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ अन्नमय हैं, मनुष्य का शरीर भी अन्नसरसमय है । यह उसका निर्जीव पदार्थों से साम्य है । वनस्पति और प्राणीसृष्टि अन्नमय के साथ साथ प्राणमय भी है । मनुष्य भी प्राणमय है । यह उसका वनस्पति और प्राणीसृष्टि से साम्य है। परन्तु मनोमय से आगे केवल मनुष्य ही है। अत: अब वह अन्य सभी पदार्थों से अलग और विशिष्ट है।
 
यह मनुष्य का मन है । मन के कारण ही मनुष्य सृष्टि के अन्य सारे पदार्थों से अलग पहचान बनाता है । सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ अन्नमय हैं, मनुष्य का शरीर भी अन्नसरसमय है । यह उसका निर्जीव पदार्थों से साम्य है । वनस्पति और प्राणीसृष्टि अन्नमय के साथ साथ प्राणमय भी है । मनुष्य भी प्राणमय है । यह उसका वनस्पति और प्राणीसृष्टि से साम्य है। परन्तु मनोमय से आगे केवल मनुष्य ही है। अत: अब वह अन्य सभी पदार्थों से अलग और विशिष्ट है।
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मन के कारण से ही मनुष्य को मनुष्य संज्ञा प्राप्त हुई है । अर्थात्‌ मन सक्रिय है इसलिये वह मनुष्य है । मनुष्य के मन के कारण ही संसार की सारी विचित्रतायें निर्माण हुई हैं । मन द्वंद्वात्मक है। वह हमेशा संकल्प विकल्प करता रहता है। वह रजोगुणी है इसलिये नित्य क्रियाशील रहता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि मनुष्य के षडरिपु मन का आश्रय लेकर रहते हैं। मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है। उसकी उत्तेजना द्वंद्वों में ही प्रकट होती है अर्थात्‌ वह हर्ष और शोक से, राग और द्वेष से, मान और अपमान से, आशा और निराशा से उत्तेजित होता है और अशान्त रहता है। वह रजोगुणी होने के कारण से सदा चंचल रहता है और निरन्तर निर्बाध रूप से, अकल्प्य गति से भागता रहता है। हमारा सबका अनुभव है कि मन को चाहे जहाँ जाने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता। मन अत्यन्त जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसे वश में रखना बहुत कठिन है।
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मन के कारण से ही मनुष्य को मनुष्य संज्ञा प्राप्त हुई है । अर्थात्‌ मन सक्रिय है इसलिये वह मनुष्य है । मनुष्य के मन के कारण ही संसार की सारी विचित्रतायें निर्माण हुई हैं । मन द्वंद्वात्मक है। वह सदा संकल्प विकल्प करता रहता है। वह रजोगुणी है इसलिये नित्य क्रियाशील रहता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि मनुष्य के षडरिपु मन का आश्रय लेकर रहते हैं। मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है। उसकी उत्तेजना द्वंद्वों में ही प्रकट होती है अर्थात्‌ वह हर्ष और शोक से, राग और द्वेष से, मान और अपमान से, आशा और निराशा से उत्तेजित होता है और अशान्त रहता है। वह रजोगुणी होने के कारण से सदा चंचल रहता है और निरन्तर निर्बाध रूप से, अकल्प्य गति से भागता रहता है। हमारा सबका अनुभव है कि मन को चाहे जहाँ जाने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता। मन अत्यन्त जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसे वश में रखना बहुत कठिन है।
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मन इच्छाओं का पुंज है। उसे हमेशा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है।
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मन इच्छाओं का पुंज है। उसे सदा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है।
    
मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है।
 
मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है।
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=== आनुवंशिक संस्कार ===
 
=== आनुवंशिक संस्कार ===
सूक्ष्म शरीर जब जन्म धारण करता है तब माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से संस्कार प्राप्त होते हैं । माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से मातापिता के संपूर्ण चरित्र के साथ साथ पिता की चौदह पीढ़ियों और माता की पाँच पीढ़ियों के पूर्वजों के संस्कार जीव को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ संस्कार उसके सूक्ष्म शरीर के अंग बनते हैं। इसे कुल के संस्कार भी कहते हैं। ये संस्कार भी सूक्ष्म शरीर के साथ हमेशा रहते हैं और मृत्यु तक उनमें परिवर्तन नहीं आता अथवा नष्ट भी नहीं होते । पूर्वजन्म के संस्कार की भाँति केवल निर्विकल्प समधि के द्वारा ही उनका लोप होता है।
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सूक्ष्म शरीर जब जन्म धारण करता है तब माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से संस्कार प्राप्त होते हैं । माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से मातापिता के संपूर्ण चरित्र के साथ साथ पिता की चौदह पीढ़ियों और माता की पाँच पीढ़ियों के पूर्वजों के संस्कार जीव को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ संस्कार उसके सूक्ष्म शरीर के अंग बनते हैं। इसे कुल के संस्कार भी कहते हैं। ये संस्कार भी सूक्ष्म शरीर के साथ सदा रहते हैं और मृत्यु तक उनमें परिवर्तन नहीं आता अथवा नष्ट भी नहीं होते । पूर्वजन्म के संस्कार की भाँति केवल निर्विकल्प समधि के द्वारा ही उनका लोप होता है।
    
=== संस्कृति के संस्कार ===
 
=== संस्कृति के संस्कार ===

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