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== आत्मतत्व ==
 
== आत्मतत्व ==
आत्मा की संकल्पना भारतीय विचारविश्व की खास
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आत्मा की संकल्पना भारतीय विचारविश्व की खास संकल्पना है। यह मूल आधार है। इसके आधार पर जो रचना, व्यवस्था या व्यवहार किया जाता है वही रचना, व्यवस्था या व्यवहार आध्यात्मिक कहा जाता है। भारत में ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान आध्यात्मिक देश की है। यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य का अपितु सृष्टि में जो जो भी इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य या चित्तगम्य है उसका मूल रूप है। आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं । हाथ, पैर, वाक, पायु और उपस्थ हमारी कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानेन्द्रियों से हम बाहरी जगत को संवेदनाओं के रूप में ग्रहण करते हैं अर्थात बाहरी जगत का अनुभव करते हैं। कर्मेन्द्रियों से हम क्रिया करते हैं। क्रिया करके हम बहुत सारी बातें जानते हैं और जानना प्रकट भी करते हैं । इंद्रियों से जो जो जाना जाता है वह इन्द्रियगम्य है। उदाहरण के लिये सृष्टि में विविध प्रकार के रंग हैं, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ हैं, विविध प्रकार की ध्वनियाँ हैं । उनका ज्ञान हमें क्रमश: आँख, जीभ और कान से ही हो सकता है । बोलना और गाना वाक से ही हो सकता है। यह सब इन्द्रियगम्य ज्ञान है। पदार्थों, व्यक्तियों घटनाओं आदि के प्रति हमारा जो रुचि अरुचि, हर्ष शोक आदि का भाव बनता है वह मनोगम्य है। पदार्थों में साम्य और भेद, कार्यकारण संबंध आदि का ज्ञान बुद्धिगम्य है । यह मैं करता हूँ, इसका फल मैं भुगत रहा हूँ इस बात का ज्ञान अहंकार को होता है। यह अहंकारगम्य ज्ञान है। इंद्रियों, मन, अहंकार , बुद्धि आदि के द्वारा हम विविध स्तरों पर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह सब आत्मज्ञान का ही स्वरूप है क्योंकि आत्मा स्वयं इनके रूप में व्यक्त हुआ है।
 
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संकल्पना है । यह मूल आधार है । इसके आधार पर जो
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रचना, व्यवस्था या व्यवहार किया जाता है वही waar,
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व्यवस्था या व्यवहार आध्यात्मिक कहा जाता है । भारत में
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ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान
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आध्यात्मिक देश की है । यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य
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का अपितु सृष्टि में जो जो भी इंट्रियगम्य, मनोगम्य,
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बुद्धिगम्य या चित्तगम्य है उसका मूल रूप है । आँख, कान,
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नाक, त्वचा और जीभ हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं । हाथ, पैर,
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वाक, पायु और उपस्थ हमारी कर्मन्ट्रियाँ हैं । ज्ञानेन्द्रियों से
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हम बाहरी जगत को संवेदनाओं के रूप में ग्रहण करते हैं
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अर्थात बाहरी जगत का अनुभव करते हैं । कर्मन्ट्रियों से हम
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क्रिया करते हैं । क्रिया करके हम बहुत सारी बातें जानते हैं
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और जानना प्रकट भी करते हैं । इंद्रियों से जो जो जाना
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जाता है वह इंट्रियगम्य है । उदाहरण के लिये सृष्टि में विविध
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प्रकार के रंग हैं, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ हैं, विविध
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प्रकार की ध्वनियाँ हैं । उनका ज्ञान हमें क्रमश: आँख, जीभ
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और कान से ही हो सकता है । बोलना और गाना वाक से
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ही हो सकता है । यह सब इंट्रिगगम्य ज्ञान है । पदार्थों,
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व्यक्तियों घटनाओं आदि के प्रति हमारा जो रुचि अरुचि, हर्ष
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शोक आदि का भाव बनता है वह मनोगम्य है । पदार्थों में
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साम्य और भेद, कार्यकारण संबंध आदि का ज्ञान बुद्धिगम्य
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है । यह मैं करता हूँ, इसका फल मैं भुगत रहा हूँ इस बात
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का ज्ञान अहंकार को होता है । यह अहंकारगम्य ज्ञान है ।
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स्तरों पर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह सब आत्मज्ञान का
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ही स्वरूप है क्योंकि आत्मा स्वयं इनके रूप में व्यक्त हुआ
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शास्त्र कहता है कि इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि ज्ञान प्राप्त
 
शास्त्र कहता है कि इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि ज्ञान प्राप्त
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कर सकता है । बुद्धि को ज्ञान ग्रहण करने में ज्ञानेंद्रियाँ
 
कर सकता है । बुद्धि को ज्ञान ग्रहण करने में ज्ञानेंद्रियाँ
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कर्मन्ट्रियाँ और मन सहायक होते हैं। इंद्रियों से बुद्धि
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कर्मेन्द्रियाँ और मन सहायक होते हैं। इंद्रियों से बुद्धि
    
निरीक्षण और परीक्षण करती है । मन उसका सहायक भी है
 
निरीक्षण और परीक्षण करती है । मन उसका सहायक भी है

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