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लेख सम्पादित किया
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== शिक्षा आजीवन चलती है ==
 
== शिक्षा आजीवन चलती है ==
वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं
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वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
   −
जोड़ा गया शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी
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''तत्त्व के बारे में जानने की इच्छा होती है मनुष्य ही काव्य''
   −
नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म
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''अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सिखता ही है । मृत्यु. की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर''
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का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती
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''के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक. सकता है । ये सब ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं । ज्ञान''
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है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा
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''बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है । प्राप्त करने की उसकी सहज इच्छा होती है । ज्ञान प्राप्त करने''
   −
है गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में
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''इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती. की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं इस सृष्टि में एक मात्र''
   −
हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं अभिमन्यु, अष्टावक्र
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''है जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा... मनुष्य को ही जिज्ञासा प्राप्त हुई है ।''
   −
आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल
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''के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो''
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पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत
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''करना अनिवार्य नहीं है । यह भी आवश्यक नहीं की उसे... भी करता है वह सब शिक्षा है । शिक्षा का प्रयोजन ही ज्ञान''
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में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त
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''लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन. प्राप्त करना है ।''
   −
होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना
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''और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्त्व कभी नहीं ज्ञान कया है ? श्रुति अर्थात्‌ हमारे मूल शाख्रग्रंथ कहते''
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प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों
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''दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के. हैं कि परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । परमात्मा कया है, कौन''
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के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें
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''हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना... है, कैसा है इसकी परम अनुभूति ज्ञान है । सृष्टि में परमात्मा''
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गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद
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''अक्षरज्ञान के हुए हैं । अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान.. अनेक रूप धारण करके रहता है । अत: ज्ञान भी अनेक''
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पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह
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''के हुए हैं । अधथार्जिन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के... स्वरूप धारण करके रहता है । कहीं वह जानकारी है, कहीं''
   −
रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने
+
''लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास. ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन है, कहीं कर्मेन्ट्रियों की क्रिया है, कहीं''
   −
चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना
+
''प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते. विचार है, कहीं कल्पना है, कहीं विवेक है, कहीं संस्कार है''
   −
सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण
+
''भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के... , कहीं अनुभूति है । इन सभी स्वरूपों में ज्ञान प्राप्त करना''
   −
करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें
+
''प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं । ऐसी... मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है । शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने के''
   −
ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के
+
''शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक. लिए है।''
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साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा
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''बनाया है । शिक्षा, जैसे पूर्व में बताया है, ज्ञान प्राप्त करने हेतु की''
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होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम
+
''गई व्यवस्था है, प्रयास है, प्रक्रिया है ।''
   −
करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना
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== ''शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है'' ==
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''वर्तमान में हम शिक्षा का प्रयोजन अथर्जिन ही मान''
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सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है,
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''मनुष्य इस सृष्टि के असंख्य पदार्थों में एक है । सृष्टि .. लेते हैं । यह सर्वथा अनुचित तो नहीं है परन्तु शिक्षा का यह''
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विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त
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''के असंख्य जीवधारियों में एक है । यह सत्य होने पर भी... सीमित प्रयोजन है । व्यवहार में शिक्षा यश और प्रतिष्ठा के''
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करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक
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''मनुष्य अपने जैसा एक ही है । सृष्टि के अन्य सभी असंख्य.. लिए भी है, विजय प्राप्त करने के लिए भी है, सुख प्राप्त''
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हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता
+
''प्राणी, वनस्पति, पंचमहाभूत एक ओर तथा मनुष्य दूसरी. करने के लिए भी है, अर्थ प्राप्त करने के लिए भी है । परन्तु''
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है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है
+
''ओर ऐसी सृष्टि की रचना है । इसका कारण यह है कि... शिक्षा का परम प्रयोजन ज्ञान प्राप्त करना है ।''
   −
और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता
+
''केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त का बना हुआ इस अर्थ में ही विष्णु पुराण में प्रह्वाद कहते हैं, ;सा''
   −
भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने
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''अंतः:करण सक्रिय है। अन्य कोई भी मनुष्य की तरह... विद्या या विमुक्तये; अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति के लिए''
   −
परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या
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''विचार, कल्पना, रागट्रेष, इं्या, मद, अहंकार, उपकार, है” । तात्पर्य यह है कि परम प्रयोजन में शेष सब समाविष्ठ''
   −
है इसका विचार करता है अपने मातापिता से, संबंधियों
+
''दया आदि नहीं कर सकता मनुष्य के अलावा अन्य कोई हो जाते हैं ।''
   −
से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है
+
''भी कार्यकारण भाव समझ नहीं सकता मनुष्य की तरह नहीं''
   −
अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान
+
''अन्य कोई भी भक्ति, पूजा, प्रार्थथा, उपासना आदि नहीं कर''
   −
करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता
+
== ''शिक्षा पदार्थ नहीं है'' ==
 +
''सकता । मनुष्य को ही स्वयं के बारे में, जगत के बारे में शिक्षा को आज भौतिक पदार्थ की तरह क्रयविक्रय''
   −
है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना
+
''और स्वयं और जगत जिसमें से बने और जिसने बनाए उस... का पदार्थ माना जाता है और उसका बाजारीकरण हुआ है''
   −
सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।. तत्त्व के बारे में जानने की इच्छा होती है । मनुष्य ही काव्य
+
इसीलिए यह मुद्दा बताने की आवश्यकता होती है । शिक्षा का उपभोग भौतिक पदार्थ की तरह ज्ञानेन्ट्रियों से नहीं किया जाता । वह अन्न की तरह शरीर को पोषण नहीं देती, वह वस्त्र की तरह शरीर का रक्षण नहीं करती और अपने रंगो और आकारों के कारण आँखों और मन को सुख नहीं देती । वह कामनापूर्ति का आनंद भी नहीं देती। वह धन का संग्रह करते हैं उस प्रकार संग्रह में रखने लायक भी नहीं है । वह सुविधाओं के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीकी प्रशंसा करके प्राप्त नहीं की जाती । वह धनी माता पिता के घर में जन्म लेने के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसी से छीनी नहीं जाती । वह छिपाकर रखी नहीं जाती । उसे तो बुद्धि, मन और हृदय से अर्जित करनी होती है । वह स्वप्रयास से ही प्राप्त होती है । वह साधना का विषय है, वह साधनों से प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि वह अपने अन्दर होती है, अपने साथ होती है, अपने ही प्रयासों से अपने में से ही प्रकट होती है । इसलिए शिक्षा का स्वरूप भौतिक नहीं है । उसका क्रय विक्रय नहीं हो सकता । उसका बाजार नहीं हो सकता | यहाँ शिक्षा ज्ञान के पर्याय के रूप में बताई गई है । इसलिए शिक्षा के तन्त्र में धन, मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सुविधा, भय, दण्ड आदि का कोई स्थान नहीं है । वह स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वपुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है ।
 
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अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सिखता ही है । मृत्यु. की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर
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के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक. सकता है । ये सब ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं । ज्ञान
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बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है । प्राप्त करने की उसकी सहज इच्छा होती है । ज्ञान प्राप्त करने
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इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती. की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं । इस सृष्टि में एक मात्र
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है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा... मनुष्य को ही जिज्ञासा प्राप्त हुई है ।
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के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो
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करना अनिवार्य नहीं है । यह भी आवश्यक नहीं की उसे... भी करता है वह सब शिक्षा है । शिक्षा का प्रयोजन ही ज्ञान
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लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन. प्राप्त करना है ।
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और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्त्व कभी नहीं ज्ञान कया है ? श्रुति अर्थात्‌ हमारे मूल शाख्रग्रंथ कहते
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दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के. हैं कि परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । परमात्मा कया है, कौन
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हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना... है, कैसा है इसकी परम अनुभूति ज्ञान है । सृष्टि में परमात्मा
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अक्षरज्ञान के हुए हैं । अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान.. अनेक रूप धारण करके रहता है । अत: ज्ञान भी अनेक
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के हुए हैं । अधथार्जिन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के... स्वरूप धारण करके रहता है । कहीं वह जानकारी है, कहीं
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लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास. ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन है, कहीं कर्मेन्ट्रियों की क्रिया है, कहीं
  −
 
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प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते. विचार है, कहीं कल्पना है, कहीं विवेक है, कहीं संस्कार है
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भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के... , कहीं अनुभूति है । इन सभी स्वरूपों में ज्ञान प्राप्त करना
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प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं । ऐसी... मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है । शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने के
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शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक. लिए है।
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बनाया है । शिक्षा, जैसे पूर्व में बताया है, ज्ञान प्राप्त करने हेतु की
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गई व्यवस्था है, प्रयास है, प्रक्रिया है ।
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== शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है ==
  −
वर्तमान में हम शिक्षा का प्रयोजन अथर्जिन ही मान
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मनुष्य इस सृष्टि के असंख्य पदार्थों में एक है । सृष्टि .. लेते हैं । यह सर्वथा अनुचित तो नहीं है परन्तु शिक्षा का यह
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के असंख्य जीवधारियों में एक है । यह सत्य होने पर भी... सीमित प्रयोजन है । व्यवहार में शिक्षा यश और प्रतिष्ठा के
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मनुष्य अपने जैसा एक ही है । सृष्टि के अन्य सभी असंख्य.. लिए भी है, विजय प्राप्त करने के लिए भी है, सुख प्राप्त
  −
 
  −
प्राणी, वनस्पति, पंचमहाभूत एक ओर तथा मनुष्य दूसरी. करने के लिए भी है, अर्थ प्राप्त करने के लिए भी है । परन्तु
  −
 
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ओर ऐसी सृष्टि की रचना है । इसका कारण यह है कि... शिक्षा का परम प्रयोजन ज्ञान प्राप्त करना है ।
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केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त का बना हुआ इस अर्थ में ही विष्णु पुराण में प्रह्वाद कहते हैं, ;सा
  −
 
  −
अंतः:करण सक्रिय है। अन्य कोई भी मनुष्य की तरह... विद्या या विमुक्तये; अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति के लिए
  −
 
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विचार, कल्पना, रागट्रेष, इं्या, मद, अहंकार, उपकार, है” । तात्पर्य यह है कि परम प्रयोजन में शेष सब समाविष्ठ
  −
 
  −
दया आदि नहीं कर सकता । मनुष्य के अलावा अन्य कोई हो जाते हैं ।
  −
 
  −
भी कार्यकारण भाव समझ नहीं सकता । मनुष्य की तरह नहीं
  −
 
  −
अन्य कोई भी भक्ति, पूजा, प्रार्थथा, उपासना आदि नहीं कर
  −
 
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== शिक्षा पदार्थ नहीं है ==
  −
सकता । मनुष्य को ही स्वयं के बारे में, जगत के बारे में शिक्षा को आज भौतिक पदार्थ की तरह क्रयविक्रय
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  −
और स्वयं और जगत जिसमें से बने और जिसने बनाए उस... का पदार्थ माना जाता है और उसका बाजारीकरण हुआ है
  −
 
  −
इसीलिए यह मुद्दा बताने की आवश्यकता होती है । शिक्षा
  −
 
  −
का उपभोग भौतिक पदार्थ की तरह ज्ञानेन्ट्रियों से नहीं किया
  −
 
  −
जाता । वह अन्न की तरह शरीर को पोषण नहीं देती, वह
  −
 
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वस्त्र की तरह शरीर का रक्षण नहीं करती और अपने रंगो
  −
 
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और आकारों के कारण आँखों और मन को सुख नहीं देती ।
  −
 
  −
वह कामनापूर्ति का आनंद भी नहीं देती । वह धन का संग्रह
  −
 
  −
करते हैं उस प्रकार संग्रह में रखने लायक भी नहीं है । वह
  −
 
  −
सुविधाओं के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीकी प्रशंसा
  −
 
  −
करके प्राप्त नहीं की जाती । वह धनी माता पिता के घर में
  −
 
  −
जन्म लेने के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीसे छीनी
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  −
नहीं जाती । वह छिपाकर रखी नहीं जाती । उसे तो बुद्धि,
  −
 
  −
मन और हृदय से अर्जित करनी होती है । वह स्वप्रयास से
  −
 
  −
ही प्राप्त होती है । वह साधना का विषय है, वह साधनों से
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प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि वह अपने अन्दर होती
  −
 
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है, अपने साथ होती है, अपने ही प्रयासों से अपने में से ही
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प्रकट होती है । इसलिए शिक्षा का स्वरूप भौतिक नहीं है ।
  −
 
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उसका फ्रयविक्रय नहीं हो सकता । उसका बाजार नहीं हो
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सकता |
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यहाँ शिक्षा ज्ञान के पर्याय के रूप में बताई गई है ।
  −
 
  −
इसलिए शिक्षा के तन्त्र में धन, मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सुविधा,
  −
 
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भय, दण्ड आदि का कोई स्थान नहीं है । वह स्वेच्छा,
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स्वतन्त्रता और स्वपुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है ।
      
== मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है ==
 
== मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है ==
मनुष्य अन्य असंख्य प्राणियों की तरह एक प्राणी है ।
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मनुष्य अन्य असंख्य प्राणियों की तरह एक प्राणी है । अपनी प्राकृत अवस्था में वह अन्य प्राणियों की तरह ही खातापीता है, सोताजागता है, प्राणरक्षा के लिए प्रयास करता है और अपने ही जैसे अन्य मनुष्य को जन्म देता है । अन्य सजीवों की तरह ही वह जन्मता है, वृद्धि करता है, उसका क्षय होता है और अन्त में मर जाता है । प्राणियों से अधिक उसे मन प्राप्त है । मन भी अपनी प्राकृत अवस्था में वासनापूर्ति में ही लगता है, अपनी वासनापूर्ति के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्ट्रियों को घोड़ों की तरह काम में लगाता है । मन को यदि वश में नहीं किया तो वह मनुष्य को प्राकृत अवस्था में भी नहीं रहने देता, वह विकृति की ओर घसीटकर ले जाता है । मनुष्य की यदि यह स्थिति रही तो वह तो पशुओं से भी निम्न स्तर का हो जाएगा । मनुष्य से यह अपेक्षित नहीं है क्योंकि वह विकास की अनन्त संभावनाओं को लेकर जन्मा है । उसे प्राकृत नहीं रहना है, उसे विकृति की ओर तो कदापि नहीं जाना है । उसे प्राकृत अवस्था से आगे बढ़कर, ऊपर उठकर संस्कृत बनना है। प्राकृत अवस्था से ऊपर उठकर संस्कृत बनना ही विकास है । मनुष्य को अपना विकास करना है । यही उसके जीवन का प्रयोजन है । इसी को मनुष्य बनना कहते हैं । शिक्षा मनुष्य के विकास के लिए है ।
 
  −
अपनी प्राकृत अवस्था में वह अन्य प्राणियों की तरह ही
  −
 
  −
खातापीता है, सोताजागता है, प्राणरक्षा के लिए प्रयास
  −
 
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करता है और अपने ही जैसे अन्य मनुष्य को जन्म देता है ।
  −
 
  −
अन्य सजीवों की तरह ही वह जन्मता है, वृद्धि करता है,
  −
 
  −
उसका क्षय होता है और अन्त में मर जाता है । प्राणियों से
  −
 
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अधिक उसे मन प्राप्त है । मन भी अपनी प्राकृत अवस्था में
  −
 
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वासनापूर्ति में ही लगता है, अपनी वासनापूर्ति के लिए
  −
 
  −
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्ट्रियों को घोड़ों की तरह काम में लगाता
  −
 
  −
है । मन को यदि वश में नहीं किया तो वह मनुष्य को प्राकृत
  −
 
  −
अवस्था में भी नहीं रहने देता, वह विकृति की ओर घसीटकर ले जाता है । मनुष्य की यदि
  −
 
  −
यह स्थिति रही तो वह तो पशुओं से भी निम्न स्तर का हो
  −
 
  −
जाएगा । मनुष्य से यह अपेक्षित नहीं है क्योंकि वह विकास
  −
 
  −
की अनन्त संभावनाओं को लेकर जन्मा है । उसे प्राकृत नहीं
  −
 
  −
रहना है, उसे विकृति की ओर तो कदापि नहीं जाना है । उसे
  −
 
  −
प्राकृत अवस्था से आगे बढ़कर, ऊपर उठकर संस्कृत बनना
  −
 
  −
है। प्राकृत अवस्था से ऊपर उठकर संस्कृत बनना ही
  −
 
  −
विकास है । मनुष्य को अपना विकास करना है । यही उसके
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जीवन का प्रयोजन है । इसी को मनुष्य बनना कहते हैं ।
  −
 
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शिक्षा मनुष्य के विकास के लिए है ।
      
== शिक्षा मनुष्य को अन्यों के साथ समायोजन सिखाने के लिए है ==
 
== शिक्षा मनुष्य को अन्यों के साथ समायोजन सिखाने के लिए है ==
मनुष्य इस सृष्टि में अकेला नहीं रहता है । वह भले ही
+
मनुष्य इस सृष्टि में अकेला नहीं रहता है । वह भले ही सर्वश्रेष्ठ हो, भले ही अपने जैसा एक ही हो, भले ही अनेक विशिष्टताओं से युक्त हो,उसे रहना अन्यों के साथ ही है। इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य हैं जो उसकी ही तरह मन, बुद्धि आदि अन्तः:करण लिए हुए हैं और उनके चलते अनेक भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के हैं । मनुष्यों की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के कारण उनमें मैत्री भी होती है और दुश्मनी भी । सृष्टि में वनस्पति है, प्राणी हैं और पंचमहाभूत भी हैं । मनुष्य को इन सबके साथ रहना है । मनुष्य सबसे श्रेष्ठ तो है परन्तु अपनी हर छोटी-मोटी आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर सकता । भूमि से उसकी अन्न, वस्त्र, पानी, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सर्व प्रकार की वनस्पति भूमि के कारण ही संभव है । प्राणी उसकी सहायता करते हैं। मनुष्य को अन्य मनुष्यों की सहायता भी चाहिए । अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने आप ही नहीं कर सकता । उसे स्नेह, प्रेम, मैत्री भी चाहिए । अकेला रहकर वह पागल हो जाएगा । इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सबके साथ रहना आना भी चाहिए । सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है । वह एक साधना है । सबके साथ रहने के लिए ही अनेक शास्त्र निर्मित हुए हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार सिखाये गए हैं, अनेक प्रकार की साधनायें बताई गई हैं ।  
 
  −
सर्वश्रेष्ठ हो, भले ही अपने जैसा एक ही हो, भले ही अनेक
  −
 
  −
विशिष्टताओं से युक्त हो,उसे रहना अन्यों के साथ ही है ।
  −
 
  −
इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य हैं जो उसकी ही तरह मन, बुद्धि
  −
 
  −
आदि अन्तः:करण लिए हुए हैं और उनके चलते अनेक
  −
 
  −
भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के हैं । मनुष्यों की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों
  −
 
  −
के कारण उनमें मैत्री भी होती है और दुश्मनी भी । सृष्टि में
  −
 
  −
वनस्पति है, प्राणी हैं और पंचमहाभूत भी हैं । मनुष्य को इन
  −
 
  −
सबके साथ रहना है ।
  −
 
  −
मनुष्य सबसे श्रेष्ठ तो है परन्तु अपनी हर छोटी-मोटी
  −
 
  −
आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर
  −
 
  −
सकता । भूमि से उसकी अन्न, वस्त्र, पानी, आवास आदि
  −
 
  −
आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सर्व प्रकार की वनस्पति
  −
 
  −
भूमि के कारण ही संभव है । प्राणी उसकी सहायता करते
  −
 
  −
हैं। मनुष्य को अन्य मनुष्यों की सहायता भी चाहिए ।
  −
 
  −
अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने आप ही
  −
 
  −
नहीं कर सकता ।
  −
 
  −
उसे स्नेह, प्रेम, मैत्री भी चाहिए । अकेला रहकर वह
  −
 
  −
पागल हो जाएगा । इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सबके
  −
 
  −
साथ रहना आना भी चाहिए ।
  −
 
  −
सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है । वह एक
  −
 
  −
साधना है । सबके साथ रहने के लिए ही अनेक शास्त्र निर्मित
  −
 
  −
हुए हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार
  −
 
  −
सिखाये गए हैं, अनेक प्रकार की साधनायें बताई गई हैं
  −
 
  −
शिक्षा मनुष्य को अन्य सबके साथ समायोजन
  −
 
  −
सिखाती है।
  −
 
  −
इस प्रकार शिक्षा का मनुष्य के जीवन में विशिष्ट स्थान
  −
 
  −
है । जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेता है उसी प्रकार मनुष्य
  −
 
  −
सीखता भी है । वह चाहे तो भी जिस प्रकार श्वास लेना बन्द
  −
 
  −
नहीं कर सकता उसी प्रकार सीखना भी बन्द नहीं कर
  −
 
  −
सकता ।
  −
 
  −
इस शिक्षा का मनुष्य ने अपने चिन्तन मनन,
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निदिध्यासन से एक बहुत ही उत्कृष्ट शाख्र बनाया है । वही
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शिक्षाशाख्र है
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इसीका हम किंचित विस्तार से यहाँ विचार कर रहे
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शिक्षा मनुष्य को अन्य सबके साथ समायोजन सिखाती है। इस प्रकार शिक्षा का मनुष्य के जीवन में विशिष्ट स्थान है । जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेता है उसी प्रकार मनुष्य सीखता भी है । वह चाहे तो भी जिस प्रकार श्वास लेना बन्द नहीं कर सकता उसी प्रकार सीखना भी बन्द नहीं कर सकता ।
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हैं।
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इस शिक्षा का मनुष्य ने अपने चिन्तन मनन, निधिध्यासन से एक बहुत ही उत्कृष्ट शास्त्र बनाया है । वही शिक्षाशास्त्र है । इसीका हम किंचित विस्तार से यहाँ विचार कर रहे हैं।
    
== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==
 
== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==

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